Sunday, 8 September 2013

बहुत दर्द है मजहबी फैला हुआ यहाँ ....

बहुत दर्द है मजहबी फैला हुआ यहाँ ....
खुद को खुदा का बन्दा कहते है 
हर शातिरी चाल चलने वाला इंसान नहीं होता है 
इंसान तो खुद भी मजहब के नाम पर रोता है 
किसने कहा तलवार का वार जिबह करता है तो खुदाई है ,

किसी जिबह के बाद किसे खुदा की आवाज आई है
किसे नूर मिला राम का किसने आशीष खुदा का पाया ,
कोई फतवा कोई क़ानून इंसानियत के नाम नहीं आया
स्वार्थ और मतलब रह गया है आजकल 

मौत करना लहू को चखना खेल हो गया है आजकल
सियासत के खेल अजब होते है
इस खेल में इंसान कहाँ होते हैं
होते है वारिसान गद्दी के
लहू मांग का बर्बाद ,कही राखी गुजरती है
सियासत के रंग में हमेशा इंसानियत मरती है
दर्द तडपता है सडक पर दिखाई नहीं देता
आलम हर घर का मरघट सा ही होता
खोया है विवेक और फडकती भुजाये लिए
ढूंढते है भेड़िये शिकार को खोजते हुए
हाँ भेड़िये ही इंसानी जामा पहनकर
बंदूक जिनके मजहब गोली से दोस्ताना लिए
दुश्मनी इंसान से मजहबी मेहनताना लिए
कातिलों की फ़ौज वहशी दरिन्दे जैसे
किसे कहे इंसानी वाशिंदे यहाँ ऐसे
बिखरा लहू सडकों पर पुकारता रहा
जब भी लिया नाम ए रसूल उतना ही मारता रहा
औरत की इज्जत करते तार तार है
काश राम के प्यारे और खुदा के बंदे नाम होता कुछ तुम्हारा
कोई राम कोई रहीम कोई लक्ष्मण ,,करीम होता कोई
अफ़सोस .....कोई नहीं है इनमे कातिलों के सिवा कोई
फिर पूछते हो मुझसे मानवता भला क्यूँ रोई
क्यूँ आख है सूजी ...क्यूँ जागी ....रातभर नहीं सोयी .- विजयलक्ष्मी

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