Monday 30 January 2017

बसंत की पतंग ,,

बसंत की पतंग ,,
लिए उड़ने की चाह 
वो भी छत पर खड़ा 
था मुंडेर से टिका 
निहार रहा था ,,
पतंग
उडती थी नील गगन
मंथर मंथर ,,
कभी गुलीचा मारती ..
कभी इतराकर उपर उड़ जाती ..
जैसे जिन्दगी उडी चली जा रही थी
दूर इस दुनियावी दस्तूर से
अनंत को पाने की चाह में
अंतर्मन को छूने की राह में
जैसे छा जाना चाहती थी
इस मन के अनंत आकाश में
हो पवन वेग पर सवार
यूँ डोर संग करती इसरार
ज्यूँ उँगलियों से पाकर इशारा
मापना चाहती हो आकाश पूरा
जैसे एक दिन में जीना चाहती है
पूरी जिन्दगी ,,
या ..
पूरी सदी
या ..पूरा युग ,,
या पूरा ही कल्प ,,
जन्मों की गिनती क्या करनी 

डर लगता था टूट गिरी 
अटकी लटकी ..
गिरती फटती 
बस एकांत गिरी जाकर 
न लूट सका ..
न छूट सका 
मन पर पैबंद लगा बैठी
बस ,,
कुछ और नहीं ,,
प्रेम प्रीत की डोर बंधी जैसे
जीवन पूरा जी उठी ऐसे
क्या बसंत की पतंग सी ... ||
----- विजयलक्ष्मी

क्यूँ न हलफनामा लिख दूं ,,

अकेले रहें ,,
जब 
मंजूर होने लगा है तुम्हे 
और
पेट तो भर लेता है पशु भी ...
मान को मान न मिले
क्या जाना उस घर ...
सच कहना ..
सब झूठ लगता है ....
इंतजार करता हूँ ,,
देखता हूँ जाते हुए दूर से
महकता हूँ महक से ..
भरा रहता हूँ अहसास से
भूलता नहीं याद से ,,
गिनता हूँ साँसों में
अजीब लगता है ..
यूँ दूरियों का महसूस होना
जानबूझकर जवाब न देना
देखकर अनजान बनना
टिकी हुई नजर को उखाड़ते हुए
जैसे अनजान गुजरते हो
अनछुए से
यूँभी
टूटी हुई सडक के किनारे
बिखरे हुए ही होते हैं
खुद में
अब मैं भी ...इन
गुजरते लम्हों में गुजारिश भी क्या करून तुमसे
सोचती हूँ
क्यूँ न हलफनामा लिख दूं ,,
कुछ तलाक़ सा  ? ------- विजयलक्ष्मी

Sunday 29 January 2017

" गुरुर ए इश्क हो या सुरूर ए इश्क सोने कब देता है ,,"

गुरुर ए इश्क हो या सुरूर ए इश्क सोने कब देता है ,,
है चाँद की पहरेदारी ,, सीने में दिल ही कब होता है ||

दर्द औ जख्म मुक्कमल, जरूरी दस्तावेज सम्भाले
हंसना ,,गाना ,, रूठना - मनाना ,,ये ही सब होता है ||

उचककर खुलती हैं ख्वाहिश गिरह बांधती खोलती ,,
पलकों पर सब्ज नमी संग शबनमी मनसब होता है ||

दफन नफरतों को उजागर करता है यूँ रकीब कोई ,,
लहरता हुआ सा समन्दर.. डूबता सा दरख्त होता है ||

लिए पतवार नाखुदा बूझता है पहेली सी हर दफा ,,
जुगनू चमकता है अँधेरे में दिन में उजाला कब होता है ||

ढलती साँझ में सूरज भी डूबता है याद की नदी में ,,
दहकता है अहसास लिए बताओ सूरज कब सोता है || --------- विजयलक्ष्मी



सूरज बनने की ख्वाहिश दहकाती रही ,,
महकने से पहले ही चाँद बना दिया गया || ------ विजयलक्ष्मी

Saturday 28 January 2017

" रानी पद्मावती की अमर कहानी "

आप भी जाने रानी पद्मावती को : ---

चेतना का चिन्तन 
सम्वेदना का मनन 
मौलिकता का हनन 
श्ब्दाक्षारो का अंकन 
सभ्यता हुई कैद ..

जमाना हुआ मुस्तैद
|| ---- विजयलक्ष्मी

रानी पद्मावती का सही इतिहास और तब निर्णय कीजिये की भंसाली के साथ किया गया व्यवहार पूर्णरूपेण दुरुस्त था।
राजा गंधर्व सेन और रानी चंपावती की बेटी रानी पद्मावती का विवाह, चित्तौड़ के राजा रतन सिंह से हुआ था। वीरांगना होने के साथ-साथ रानी पद्मावती बहुत खूबसूरत भी थीं।
इतिहास की किताबें बताती हैं कि दिल्ली के सुल्तान
अलाऊद्दीन खिलजी, रानी की खूबसूरती पर मोहित था। किंवदंती है कि खिलजी ने आईने में रानी पद्मावती को देखा था और वो उसी से उन पर अभिभूत हो गया था। इतिहास के मुताबिक पद्मावती के लिए खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया। इसके बाद उसने रानी पद्मावती के पति राजा रतन सिंह को बंधक बना लिया और पद्मावती की मांग करने लगा। इसके बाद चौहान राजपूत सेनापति गोरा और बादल ने खिलजी को हराने के लिए संदेश भिजवाया कि अगली सुबह पद्मावती उसके हवाले कर दी जाएगी। इसके लिए अगली सुबह 150 पालकियां खिलजी के शिविर की ओर भेजी गई। पालकियों को वहीं रोक दिया गया जहां रतन सिंह बंदी बनाए गए थे। इसके बाद पालकियों से सशस्त्र सैनिक निकले और रतन सिंह को छुड़ा कर ले गए। जब खिलजी को इस बात की जानकारी हुई कि रतन सिंह को छुड़ा लिया गा तो उसने अपनी सेना को चितौड़ करने का आदेश दिया। लेकिन वो किले में प्रवेश ना कर पाया। जिसके बाद खिलजी ने किले की घेराबंदी कर दी। ये घेराबंदी इतनी मजबूत थी कि धीरे-धीरे किले में राशन और खाद्य सामग्रियों के लिए दिक्कत हो गई।
ये 25 अगस्त 1303 ई० की भयावह काली रात थी। स्थान मेवाड़ दुर्ग राजस्थान। राजा रतन सिंह जी की रियासत। राजा रतन सिंह की धर्मपत्नी रानी पद्मावती सहित 200 से ज्याद राजपूत स्त्रियाँ उस दहकते हवन कुंड के सामने खड़ी थी। दुर्दांत आक्रान्ता अल्लौद्दीन खिलजी दुर्ग के बंद द्वार पर अपने सेना के साथ खड़ा था।
अलाउद्दीन वही शख्स था जो परम रूपवती रानी पद्मावती को पाना चाहता था और अपने हरम की रानी बना कर रखना चाहता था। रानी पद्मावती को प्राप्त करने के लिए उसने दो बार मेवाड़ पर हमला किया, लेकिन वीर राजपूतों के आगे उसकी सेना टिक नहीं सकी। लेकिन इस बार मामला उलट चुका था। अलाउद्दीन लम्बी चौड़ी सेना के साथ मेवाड़ के दुर्ग के बाहर अपना डेरा डाले था। ज्यादातर राजपूत सेना वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी। सब समझ चुके थे कि इस मुग़ल सेना से अब बच पाना मुस्किल है। मुगल सेना न सिर्फ युद्ध में हिन्दू राजाओं को मारते थे बल्कि उनकी रानियों के साथ जबरन अनैतिक कार्य भी करते और अंत में उन्हें गजनी के मीना बाज़ार लाकर बेच देते थे।
अचानक एक तेज़ आवाज के साथ मुगल सैनिकों ने दुर्ग का विशाल दरवाजा तोड़ दिया, मुग़ल सेना तेज़ी से महल की तरफ बढ़ चली, जहाँ पर महान जौहर व्रत चल रहा था वो महल का पिछला हिस्सा था। राजपूत रणबाकुरों का रक्त खौलने लगा। तलवारे खिंच गयी, मुट्ठियाँ भिंच गयी। हर हर महादेव के साथ 500 राजपूत रणबाकुरे उस दस हज़ार की मुगल सेना से सीधे भिड गये। महा भयंकर युद्ध की शुरुवात हो गयी जहाँ दया और करुणा के लिए कोई स्थान नहीं था। हर वार एक दुसरे का सर काटने के लिए था। नारे ताग्बीर अल्लाहो अकबर और हर हर महा देव के गगन भेदी नारों से मेवाड़ का नीला आसमान गूँज गया। हर राजपूत सैनिक अपनी अंतिम सांस तक लड़ता रहा। अंत में वो क्षण आ गया जब महान सुन्दरी और वीरता और सतीत्व का प्रतीक महारानी पद्मावती उस रूई घी और चंदन की लकड़ियों से सजी चिता पे बैठ गयी, बची हुइ नारियां अपने श्रेष्ठतम वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित थी। अपने पतियों को अश्रुपूरित विदाई दे रही थी। अंत्येष्टि के शोकगीत गाये जा रही थी। महिलाओं ने रानी पद्मावती के नेतृत्व में चिता की ओर प्रस्थान किया और कूद पड़ी धधकती चिता में, अपने आत्मदाह के लिए, जौहर के लिए, देशभक्ति और गौरव के उस महान यज्ञ में अपनी पवित्र आहुति देने के लिए। आकाश हर हर महादेव के उदघोषों से गूँज उठा था। आत्माओं का परमात्मा से मिलन हो रहा था।
अगस्त 25, 1303 ई ० की भोर थी, चिता शांत हो चुकी थी। राजपूत वीरांगनाओं की चीख पुकार से वातावरण द्रवित हो चूका था। राजपूत पुरुषों ने केसरिया साफे बाँध लिए। अपने अपने भाल पर जौहर की पवित्र भभूत से तिलक किया। मुंह में तुलसीपत्र रखा। दुर्ग के द्वार खोल दिए गये। हर हर महादेव कि हुंकार लगाते राजपूत रणबांकुरे टूट पड़े अलाउदीन की सेना पर। हर कोई मरने मारने पर उतारू था। दया का परित्याग कर दिया गया। राजपूत रणबाकुरों ने आखिरी दम तक अपनी तलवारों को मुगल सैनिको का खून पिलाया और अंत में लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गये। अल्लाउद्दीन खिलज़ी की जीत उसकी हार थी, क्योंकि उसे रानी पद्मिनी का शरीर हासिल नहीं हुआ, मेवाड़ कि पगड़ी उसके कदमों में नहीं गिरी। चातुर्य और सौन्दर्य की स्वामिनी रानी पद्मिनी ने उसे एक बार और छल लिया था।
ये खूनी रात की वो कहानी है इस वीरांगना के अतुल्य बलिदान को शत शत नमन।


Monday 23 January 2017

" है बेगैरत सूरज भी साम्प्रदायिकता फैलाता है ,,"

है बेगैरत सूरज भी साम्प्रदायिकता फैलाता है ,,
इसे भी उगते .. डूबते हुए केसरिया रंग भाता है ||

चाँद को समझाया कितना सुनता ही नहीं है
कौन धर्म में त्यौहार पर कभी पूर्णिमा मनाता है ||

काश सितारों से यूँ शिकवे शिकायत न होती
एक नहीं सप्तको के मंडल में भी ऋषि बिठाता है ||

कैसे कायनात, दुश्मनी दिखाती है क्यूँ भला
ईश्वरीय बद्री,बरगद, तुलसी,दूब से बताया नाता है ||

समझाया कई बार तजे केसरिया बाना अब
जबसे इस दुनिया में आया इससे अपना नाता है ||

डरकर बदले रंग वही हमे क्यूँ आँख दिखाते हैं ,,
कब किसी का हुआ सगा जो पुरखो को भूल जाता है ||

नारजगी की बात पर मुस्काया खिलखिलाया
बोले गगन कैसे बदलू धर्म धरा से जन्मों का नाता है|| ------- विजयलक्ष्मी


Sunday 22 January 2017

" उजली सी रात बिखरी रातरानी सी महक "

" उजली सी रात 
बिखरी रातरानी सी महक 
मेहनतकशी पसीने को महकाती है 
इत्रफुलेलों को नहीं ,,
भावना की मय लहू में बहती है 
चूल्हे की रोटी महक गहरती है नथुनों में
और भूख जलाती है पेट में अलाव सी
पहली बरसात भली सी देती है सौंधी सी पहचान
खेत से आती गर्म हवा ,,पसीने को छू ,,
जैसे बहकती है शराबी सी ,,
वो नीम का पेड़ याद है न ...
जिसपर झूलते थे झुला भरी धूप
और वो पुराना बरगद ... माँ पूजती थी जिसे लपेटकर मौली कच्चे सूत की
होली की आंच से बचाकर भेजी गयी बहुए ,,
बासंती गुंजार पंछी की और कुहुकना कोयल का
वो तितली ...थिरकती सी जा बैठती फूलों पर
कुछ पत्ते पीले हुए से झूलते थे कांपते से
जैसे इन्तजार है ..
बस गुजरने का ..कैसे उन्हें छूकर कडकती आवाज सुनते थे
खेत में फूलती सरसों जैसे अंगडाई लेती है धरा
एक भीनी सी महक बहका रही है ,,
उम्र के इस पडाव पर जहां सूरज ढल रहा है जिन्दगी का
और मन चंचल हुआ जाता है बच्चे सा ..
जिन्दगी के वो लम्हे परिदृश्य से गुजरते है ..
और खुली आँखों में घुमन्तु हुआ समय जैसे ठहर गया है आज
 "-- विजयलक्ष्मी

Saturday 21 January 2017

" मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करता हु कि मेरी पत्नी 2 महीने पहले ही मर चुकी है।"

इसे तौलिये तराजू पर .........

मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करता हु कि मेरी पत्नी 2 महीने पहले ही मर चुकी है।ये शब्द थे।भारत के महान न्यायाधीश जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के...
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इंदिरा गांधी के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप थे। वो भ्रष्टाचार के दम पर प्रधानमंत्री बनी थी। इंदिरा गांधी के खिलाफ केस चला और ये केस इलाहबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सिन्हा की कोर्ट में चला। सबको लग रहा था की इस महिला तानाशाह से जस्टिस सिन्हा डर जाएंगे। मगर सिन्हा के अंदर सिंह बैठा हुआ था। जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को दोषी पाया और फैसले की तारीख तय की, जिस दिन फैसला देना था उस दिन जस्टिस सिन्हा के लैंडलाइन फोन की घंटी बजी और सामने से आवाज आई-अगर तुमने प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला दिया तो अपनी पत्नी को बोल देना की करवा चौथ न मनाये...
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ये सुनकर जस्टिस सिन्हा बोले-आप कौन बोल रहे है।ये मुझे नहीं मालूम लेकिन आपकी जानकारी के लिए मैं आपको बता दू कि मेरी पत्नी का 2 महीने पहले ही स्वर्गवास हुआ है।इसलिए मैं ईश्वर का धन्यवाद करता हूँ। कि मेरे लिए व्रत रखने वाली स्त्री अब इस संसार में नहीं है...!
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और जस्टिस सिन्हा ने कोर्ट पहुंचकर इंदिरा गांधी को सजा सुना दी, इंदिरा गांधी गिरफ्तार हो गयी...
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इंदिरा गांधी की भ्रष्ट टुकड़ी ने संविधान संशोधन का फैसला किया ताकि प्रधानमंत्री को कभी जेल न जाना पड़े।और अनुच्छेद 329 A का प्रस्ताव संसद में पारित हुआ लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया...
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इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट पर अपना नियंत्रण करने की कोशिश की, इंदिरा गांधी के घमंड से तंग आकर सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन कुछ समझदार न्यायाधीश इंदिरा गांधी के आगे झुके नहीं और इंदिरा गांधी के मंसूबो में पानी फिर गया...
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वही जस्टिस सिन्हा को इंदिरा गांधी को जेल भेजने की भारी कीमत चुकानी पड़ी,जस्टिस सिन्हा का लाइफ टाइम प्रमोशन नहीं हुआ,वो सुप्रीम कोर्ट के जज बन सकते थे।मगर इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें परेशान करने के हर हथकंडे अपनाये...
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सत्ता का जितना दुरूपयोग इस अहंकारी स्त्री ने किया उतना किसी ने नही किया, संविधान से लेकर न्यायपालिका तक को अपने काबू में करने की कोशिश इस भ्रष्ट महिला ने की, ऐसा लग रहा था।जैसे बंदरिया के हाथ में उस्तरा दे दिया गया हो...

Tuesday 17 January 2017

" मैं स्त्री ,, मेरा वजूद प्रश्न चिह्न है "

मैं स्त्री ,,
मेरा वजूद प्रश्न चिह्न है
कहोगे अच्छी खासी तो है ,,,
क्या कमी है ,,
सबकुछ तो है भगवान का दिया ,,
बड़ा सा घर ,,एश औ आराम का सामान ,,
गाड़ी ,,धन-दौलत ,,
बच्चे परिवार ,,,
फिर वजूद कैसा
पगला गयी है .....
हाँ ,,शायद ..यही सच है
पगलाना ,,
सटीक बैठता है..
स्त्री और वजूद ...हंसी आती है न ...........||
नदी समन्दर में खुद को कब ढूंढ सकी है भला ...
तो क्या समन्दर से मिलन अर्थात
अस्तित्वहीनता सीधा सा मृत्यु !
अरे ..रे ,, क्या कहा ...इसमें मृत्यु की बात कहाँ ?
तुम हो तो जीती-जागती,, जिन्दा
मतलब देह का होना जिन्दा होने का सबूत है ,,
और अस्तित्व कर्तव्य के तले दबकर मर गया
लोथड़ा ,,बंदिश भावो का अहसासों का ,,
पिंजरे की मैना सी ,,
बस देखो मचान को ...
शिला हुई अहिल्या को तारने को राम आये थे
तभी तो ..अग्निपरीक्षा सीता की ,,राम ही पाए थे
पांडवों ने द्रोपदी को जुए में हारा था ,,
मांडवी ,उर्मिला के वजूद को भरत औ लक्ष्मण ने नकारा था
कभी मोनालिसा बना तस्वीर में टांक दिया ,,
हकीकत दिखाई मुस्कान पर आंसू का पहरा बिठा दिया
" मेरी" मिले वर्जिन ये तमगा लगा दिया
कोई बुद्ध आकर यशोधरा को तज गया
कंस के आदेश ने पूतना को राक्षसी बना दिया
होलिका को जलना पड़ा हिरण्याक्ष के प्रकोप में
त्याग की मूर्ती बने वो है औरत ,,
वजूद खोकर खो जाये वो है औरत
अस्तित्व को नकार दे वो है औरत ,,
अपने सपनों को सबपर वार दे वो है औरत ,,
न स्वप्न न ख्वाहिश ,,
न अहसास भाव का ,,
झेलती रहे दंश सदा ही दुराव का
क्यूँ नहीं मान उसका समाज में
कहाँ है नारी स्थान कहो आज में
क्यूँ मान की अधिकारिणी नहीं है औरत ,,
क्यूँ अपने नाम की अधिकारिणी नहीं है औरत
मिटा दिया अस्तित्व तुमने नाम देकर अपना
प्रश्न पूछूं किससे कहाँ समाज है यहाँ
कोई तो बताये नारी का आज है कहाँ ,,
झुकते झुकते औरत धरती में समा गयी
कोई गर उठी तो पतिता सुना गयी ,,
क्या कभी जिन्दगी जिन्दा सी मिलेगी ..
औरत को आजादी परिंदा सी मिलेगी ..
क्या कभी फूलो सी मुस्कान पाएगी ,,
सच बताना ,,जिन्दगी कभी अपने कदमों से माप पायेगी
क्या कभी इमानदारी से औरत अपना वजूद पाएगी || -------- विजयलक्ष्मी

" कस्तूरी "


कस्तूरी ..
हाँ ,तुम हिरन परी जो ठहरी
यद्यपि ...मेरे पंख
कट चुके थे
सालो पहले सामाजिक अनुष्ठान में
एक दो नहीं सैकड़ो के सामने
गवाह हुए
गाजे बाजे ...
किसी ने नहीं पूछा ...उसके बाद ...
" कैसी हो "
बस माँ ने निहारा था प्रश्न भरी निगाहों से
उनकी आँखों में अजीब सा सुकून देख चुप थी मैं भी
मुस्कुराई हौले से ...
और .......कह दिया खुश हूँ !
ख़ुशी ..किसे कहते हैं ?....कोई बतायेगा ये सच
आत्मा कब और कैसे खिलखिलाती है
नहीं मालूम था ..
हाँ ...बीमार माँ के चेहरे का सुकून ,,
याद था ...
याद था पकते बालों में पिता का मुस्कुराना
आँखों के मोती ...
जो पोंछ लिए थे मुहं घुमाकर मेरी और से
बाबा की जिन्दगी जैसे बिदाई के इन्तजार में थी
और रूठ गयी सबसे
बेटी की बिदाई ..
सुकून है या नई चिंता ?
कल की नई फ़िक्र
आँखों में प्रश्न दिल में समाज का डर
कोई नहीं चाहता ...
विदा हुई बेटी लौटकर कहे मैं खुश नहीं हूँ
जानती है हर बेटी इस सच की
जानती है पिता के कंधो का वजन
उसपर चढ़ा अपना बोझ
विदा ...मतलब ..विदा ही होता है बस
और कुछ नहीं ..
जिस देहलीज चढ़ी ..
अर्थी पर चौखट लांघे ..
कोई कुछ भी बांचे कोई कुछ भी बोले
सप्तपदी को मापों ,,
हर बंधन स्वीकार ,,
हर मंत्रोच्चार ...चाहे छलनी सीना हो
या चाक हो मन भीतर
आंसू न छलके
मन कितना भी बिलखे
दहेज के ताने या ...काम का बोझ
खूंटे से बंधी .........||
ये कस्तुरी तब कहाँ थी
मैं किसी के लिए इनाम नहीं थी
नसीब मेरा सराहा गया पढ़ा लिखा दूल्हा मिला था आखिर ..
लेकिन .......
कमियां थी मुझमे
कभी सर्वगुण सम्पन्न न बनना था मुझे
न ही बन पाई मैं
मैं नारी
मैं सीता भी थी ..और उर्मिला भी
मांडवी भी मैं ही थी और द्रोपदी भी
कैकेई और कौशल्या ही नहीं ...
मैं मेघनाथ की महतारी
नहीं इस सम्मान की अधिकारी
समाज की ऊँगली उठती है मेरी और ..
मुझे यही सच मालूम है आज भी
और तुम्हे ...मालूम है कस्तुरी की महक
मुझे नहीं मालूम ...कैसी होती है
मैं कैसे जानूंगी ये सच ?
जाने कब समझूंगी ये सच ?..या
बस यूँही सोचूंगी ये सच..
कहीं झूठ तो नहीं ये सच ?
------- विजयलक्ष्मी

" जीवन की अलिखित कविता को स्वर जिसने दिया ,,"

जीवन की अलिखित कविता को स्वर जिसने दिया ,,
बाकि करते रहे दिखावा ,ये जीवन तो उसी ने जिया ||

पथिक बहुत मिलते रहते हैं ,, सहभागी सहचर कहाँ ,,
कंटक चुभे चुभते ही रहेंगे, दर्द उसीका जिसने पिया ||

राजपथ पर हैं वही जिनके सोने के चम्मच थे मुख में ,,
जनपथ कर्मपथ बना उसीका भूख को जिसने जिया ||

वार लिए फिरता है देखो,, धार कुंद क्यूँकर है आज ,,
कलम बने तलवार वही भावों का गरल जिसने पिया ||

युगयुगीन धरोहर अपनी क्यूँ लुटती देखी चौराहों पर ,,
राष्ट्रपथ चढ़े वही तज अहम स्वाभिमान जिसने जिया ||

सत्य कहूँ पर्दे की लीला जिसने औरत को ही लीला ,,
अदनाभाव है मन के भीतर का औरत ने हरबार जिया ||

गर मान नहीं दे सकते तुम पिंजरे में तो मत कैद करो,,
स्नेह समर्पण सरल ह्र्दया ने छलकपट हर बार जिया ||
------- विजयलक्ष्मी

" न मालूम इश्क किये होता है कि हुए होता आप ,,"



न मालूम इश्क किये होता है कि हुए होता आप ,,
बीमार ए इश्क बताये कोई ,क्या है इसका राज
--- विजयलक्ष्मी


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तकदीर में जुदाई तस्वीर से नदारत ,,
तासीर में शामिल वफाओ की तरह ||

वाह री मुह्हबत दर्द ओ सितम तेरे ,,
क्यूँ लगते हैं भले अदाओं की तरह ||

रुसवाइयों के चलते खामोश सिसकियाँ ,,
खुदाई नियामत सुने गुनाहों की तरह ||

अजब दास्ताँ है बिछड़ कर न बिछड़े ,,
साथ रहती है पलपल दुआओं की तरह ||

गजब घरौंदा है गूंगे के गुड की मिठास ,,
खनकती है हर बात फिजाओं की तरह ||
--------- विजयलक्ष्मी

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वाह ,,अजब दास्ताँ खुदाई नियामत की हद ज्यूँ 
खुशामदीद बेहतर भला खुशामद की आमद क्यूँ ? ---- विजयलक्ष्मी


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जिसमे खुशामद भरी हो स्वार्थ के अंश लगते शामिल ,,
मुहब्बत की तासीर हवाओं में घुल होती आप शामिल || --------- विजयलक्ष्मी


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खुदाई नियामत है तो तकदीर क्यूँ सोती देखी ,,
फिर ,,गम ए इश्क में जिन्दगी क्यूँ रोती देखी ,,|| ---------- विजयलक्ष्मी









Sunday 15 January 2017

" नवरात्र पूजन "

2017 

माघी नवरात्र ..28 जनवरी से 5 फरवरी तक 
चैत्र वसन्त नवरात्रि 28 मार्च से 5 अप्रेल तक 
आषाढीय नवरात्र 24 जून से 3 जुलाई तक 
शारदीय नवरात्र 21सितम्बर से 29 सितम्बर तक .||

चैत्र नवरात्रिशरद नवरात्रि के समान, नौ दिनों के लिये आयोजित की जाती है। चैत्र नवरात्रि माँ दुर्गा को समर्पित होती है। माता के भक्त प्रतिपदा से नवमी तक माता के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना और उपवास कर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

चैत्र नवरात्रि के लिये घटस्थापना चैत्र प्रतिपदा को होती है जो कि हिन्दु कैलेण्डर का पहला दिवस होता है। अतः भक्त लोग साल के प्रथम दिन से अगले नौ दिनों तक माता की पूजा कर वर्ष का शुभारम्भ करते हैं। चैत्र नवरात्रि को वसन्त नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। भगवान राम का जन्मदिवस चैत्र नवरात्रि के अन्तिम दिन पड़ता है और इस कारण से चैत्र नवरात्रि को राम नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है।

चैत्र नवरात्रि के दिन माता दुर्गा के नौ भिन्न-भिन्न स्वरूपों को समर्पित होते हैं। शरद नवरात्रि में किये जाने वाले सभी अनुष्ठान चैत्र नवरात्रि के दौरान भी किये जाते हैं। शरद नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि की घटस्थापना पूजा विधि समान ही होती है।

चैत्र नवरात्रि उत्तरी भारतीय प्रदेशों में ज्यादा प्रचलित है। महाराष्ट्र में चैत्र नवरात्रि की शुरुआत गुड़ी पड़वा से और आन्ध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में उगादी से होती है।

" पाँव देहलीज पर ठहरे ,लगे सामाजिकता के पहरे "

पाँव देहलीज पर ठहरे ,लगे सामाजिकता के पहरे
बताओ दर्द की लहरें हमे नहलाये भी न भला कैसे ?

अंकुरित पौध को हवा खाद पानी की जरूरत बहुत
बंजर जमीं पर कैक्टस उग आयें भी न भला कैसे ?

नयन कजरारे बदरा से भरे ठहरी हुई जलधार है
हालात पर दिल के होठ मुस्कुराएँ भी न भला कैसे ?

रोटी घास की खाकर बिलखते भूख से बच्चे किन्तु
राणा के वंशज दाल-रोटी खपाए भी न भला कैसे ?

वो लड़ते आन की खातिर ,जीवन मान की खातिर
मातृभूम-हित समर्पित मन जगाए भी न भला कैसे ?

जिन्हें रोटी की चिंता सताती है, दीवाना कहे कैसे
भगतसिंह सुभाष की हालत पढाये भी भला कैसे ?

खरा उतरने की तमन्ना में भट्टी पर चढ़ बैठे जो
चाहे बनना आभूषण उन्हें तपाये भी न भला कैसे ?

होठ हंसते रहे लेकिन सुलगते अंगार हो दिल में
तपिश से खिलते हुए सपने सताये भी न भला कैसे ?
--- विजयलक्ष्मी

Saturday 14 January 2017

" दुनिया है या पिंजरा ,,,समझ से परे है ...."

" दुनिया है या पिंजरा 
समझ से परे है ..
जहां सभ्य चुप है 
बुद्धिजीवी मौन तमाशबीन बने हैं 
असभ्य किसे कहूं ....
यही दुनिया का दस्तूर ..
यही सुना ,,
आजाद है स्वतंत्र नहीं ,,
न्याय है बिका हुआ सा
कहीं कायदा नहीं ..
कहीं मजमून अँधा है
कही टुटा हुआ कंधा है
कहीं पर सोच ढीली है
कहीं जिन्दगी गीली है
कोई कुम्हार अधूरा है
कहीं अहसास अधूरा है
कहीं छूटे हुए किस्से
कहीं बिखरे हुए हिस्से
कहीं लालच के फंदे हैं
कहीं मासूम बंदे हैं
झुग्गी में तो तन से अधनंगे है
महलों में तो मन के गंदे हैं
सुनते दुनियावी धंदे हैं
सच क्या है ..
कौन समझा ..कौन समझा पाया
कोई मेहनतकश भी भूखा है
कहीं देह ने पाया है
नशा दौलत का सर चढ़ आया है
जिसमे इन्सान से इन्सान भुलाया है
ख़ामोशी अख्तियार कर लूं
मगर कैसे स्वीकार कर लूं
सत्य को मौत को ही तमाशा बनाया है
यथार्थ चीख रहा है
वर्तमान अँधेरे में लग रहा है
भविष्य लापता सा है
रपट लिखने वाले लापता हैं
वो सैनिक रोटी को रोता है
वो महाराणा घास की रोटी खाता है
सब स्वार्थ टकरा रहे हैं
ये हम कहाँ जा रहे हैं ,,
शायद इसीलिए इसे कलयुग बता रहे हैं
इसीलिए कहती हूँ ...
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ?
सूरज थककर डूब गया ,,
जाने कब भोर हो ...इंतजार है अनवरत
तबतक तलाश जारी है ..
दुनिया है या पिंजरा
समझ से परे है ..
जहां सभ्य चुप है
बुद्धिजीवी मौन तमाशबीन बने हैं
असभ्य किसे कहूं ....
यही दुनिया का दस्तूर ..
यही सुना ,,
आजाद है स्वतंत्र नहीं ,,
न्याय है बिका हुआ सा "
------------ विजयलक्ष्मी