हमारी संसद में
जितने जन है
सब देवगण है
देव
सिर्फ पूजे जाते है
वो स्वयम नहीं करते कुछ
देखते है तमाशा
बनाते है तमाशा
और
बनता है तमाशा जनता का
हंसती है महंगाई
दस्ते है घोटाले
चीखती है
मानवता और मरती है
इमानदारी
होता है
हलाल या झटका
इंसानी जमीर
नोट के चाकू से
दंगे बे काबू से
धर्म लड़ते है बंटवारे पर
होती है बन्दर बाँट
उलटी होती खाट
जनता की
और ऐश होती
देवगणों की
जय हो देवा
अपनों को मेवा
बाकी को धोबी पछाड़
टूटता रहे पहाड़
गरीबी का
देश की बदनसीबी का .
- विजयलक्ष्मी
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