Friday 25 October 2013

जमीं पे उतर के मिल..

दर्द ए बयार न देख अब झोकें सा मिल ,
काँटें बहुत है चमन में तू गुलों सा खिल .

रंग ए झिलमिल सी ख़ूबसूरती नजर में ,
वो बुत संगमरमरी से, किरदारों से मिल. 

न आंसूं बहे ,न रुके ही पलक पर ढलके ,
डूबते उतरते नजर के सितारों से मिल .

इन्तजार ए वफा तो आज भी है मगर,
सूरज के बाद छिटके,न अंधेरों से मिल .

सितारा गगन का फलक पर बसा है अब ,
मिलना है तो सुन , जमीं पे उतर के मिल....
.विजयलक्ष्मी 

Saturday 19 October 2013

शरद पूर्णिमा


शरद पूर्णिमा 
सम्पूर्ण प्रेम 
पावन अवसर 
मन 
बना है ब्रजधाम 
राधा के अराध्य 

मनमोहन
हे घनकेशी
हे घनश्याम
आ जाओ इस याम
खिला चन्दमा
सोलह कलाओ संग
रस बरसाओ मन आंगन में
और रचाओ रास
गोपी मन
करे पुकार
बजा बांसुरी
मधुर मनोरम
यमुना तट का करो श्रृंगार
महिमा अपरम्पार
सांवरे
अब तो दर्श दिखाओ
नैनो में तस्वीर बसी
मन वीणा पर सरगम गूंजे
चातक बन करें पुकार
अब सम्मुख आ जाओ
मेरे
कृष्णमुरार
मन मन्दिर को
पावन
कर जाओ एकबार .-- विजयलक्ष्मी




चाँद चल ही दिया आखिर





चाँद चल ही दिया आखिर
कितने ख्वाब रुके थे उसकी पलको पर 
वक्त वक्री गति लेकर गुजरा और इन्तजार और भी लम्बा हो गया 
जानती हूँ तारो की छाँव में ओस से मोती समेटे होंगे तुमने भी 
कुछ याद बाक़ी है अभी शेष 
दीखते अवशेष हैं शिकस्ता हुए सहर के खण्डहर पर 
कुछ हिचकियाँ भेजी जो तुमने सम्भाल कर रखली बंधकर खुद में 
खोलेंगे उन्हें फुर्सत के लम्हों में ...दिन दोपहर जब ख्वाब सब खो चुके होंगे 
तारे नींद की आगोश में सो चुके होंगे ...जुगनू से अहसास चमकते होंगे
इतिहास दोहराता है खुद को हमने सुना था ...
फिर लौटता क्यूँ नहीं वक्त वो पहला सा
जब लहर लहर उन्माद सा था और ख्वाब जगाते थे तुम्हे वतन के नाम पर 

कैक्टस के कांटे भी महकते रहे थे उसूल सा
और बिफरते थे तुम किसी नेता की खोखली सी बात पर
सोचती रही खत लिखूं तुमको ...मगर नहीं लिखा
क्यूँ लिखूं ...और क्या लिखूं ..बताओ ..
तुम कभी बताते ही नहीं खत मिला भी या नहीं ...
हां ..डाकिये से चर्चा हुयी थी कल भी तुम्हारी और वो भी हंसकर टाल गया
नहीं मालूम ये इंतजार अभी और कितना है बाकी
आँखों ने देखा होगा नजारा ...कान बेजार क्यूँ होने लगे हैं आजकल
कदम ठहर से जाते है बढ़ते बढ़ते ..क्योकि तुम रोक देते हो हमेशा
गहमी सी सुबह है लेकिन सूरज अभी दिखा नहीं ...बादल गहरे हैं .--- विजयलक्ष्मी

Sunday 13 October 2013

उठती है हुक छितरा जाती है ख़ुशी की घड़ियाँ ,


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उठती है हुक छितरा जाती है ख़ुशी की घड़ियाँ ,


घूमते है चलचित्र नजर में शब्द कम बयाँ को लड़ियाँ 

माओ की फटी धोती से तन दहकती है दस साल की बेटी 

व्ही साडी जिसे ठकुराइन ने पर के बरस दी थी पोता होने ख़ुशी में

बर्तन घिसते हुए पीतल के ...

चूल्हे की राख से हथेली की लकीरे घिसने लगी थी उसकी

किस्मत तो देखिये ...भगवान को भी दया नहीं उसपर 

जंगल से बीनते हुए मरद को कीड़े ने काट खाया ...बेटा मर गया बीमारी से 

अब भरती है पेट बर्तन मांजकर खुद का और बेटी का लाचारी से 

एक गैया थी .छोटी ..बछिया सी सलोनी ..उठाकर लेगया महाजन ..अनाज के बदले में ...

बेटी भी लगती है रोज बढती है दुगुनी होकर 

डर लगने लगा है घर से निकलना बंद करूं सोचती है ...

साहूकार की नजर से गुजरकर ..-- विजयलक्ष्मी

अगर दिल दिया होता ...



अगर दिल दिया होता और तुम मिल गये होते 

वक्त का आलम ऐसा न होता गुल खिल गये होते 

महक उठती सुबह शाम हमारी यूँ न रो रहे होते 
जो दीवाना कह गये अभी हमको यूँ न कह रहे होते 

बेरुखी उनकी दर्द दे जाती है तन्हाइयों के चलते 
जीते है उन्ही के साथ वरना अबतक मर गये होते 

न शऊर था नुमाया होने का न चुप ही रह सके
मुश्किल यही है हमारी ,पर्दे हया के न हट गये होते

झांकते न यूँ बंद खिडकियों से इस तरह हम 
करते सौदा औरो की तरह बेमोल न बिक गये होते .

आईने पर नजरे उठाते है साजो श्रृंगार की खातिर
अब देने लगा है धोखा ये भी तुम यूँ न दिख रहे होते.

- विजयलक्ष्मी

कविता सी लगती है ..

जिनसे जीवन मिलता है कविता सी लगती है ,
सूरज का ढलकर निकलना कविता सी लगती है 
तारों की छाँव में आना नंगे पांव दौडकर कविता सी ..
वो पिता की आँख के आंसू जिन्हें पौंछ लेते है आस्तीन के कोने से 
और मुस्कुरा उठते है मुझे सामने पाकर कविता सी ...
भाई का मुरझाया चेहरा बहन की खिलखिलाती हंसी पर पहरे बैठाना
उन्मुक्त महकना खेतों सा बढ़ती है चिंता भी कविता सी ...
और वो एक मुस्कुराहट तुम्हारे चेहरे की ...जब तुम झांकते हो ओट से निकल 
...ये बताते हुए मैं यही हूँ साथ तुम्हारे ....कविता सी लगती है 
माँ का चेहरा मुस्कुराता है सुकून से और ख़ुशी से... कविता सी लगती है .- विजयलक्ष्मी

Friday 11 October 2013

ए जिंदगी चल वक्त हों चला है ,

ए जिंदगी चल वक्त हों चला है ,
डूबती उतरती है कश्ती नदी में .

बहता है जो बीच धारा सा बनके ,
लहरों का उठाना गिरना नदी में .

बहुत प्यास है समन्दर की देखो,
यादों का झरना मिलता नदी में .

खिलते गुलों सा तसव्वुर देखा ,
कमल भी देखा खिलता नदी में .

बचकर भला कैसे पार हम उतरते,
पतवार छूटी, ख्वाब बहता नदी में .....विजयलक्ष्मी 

ये जो रौशनी है बिखरती है

ये जो रौशनी है बिखरती है चांदनी सी खिलकर 
अंधेरों से कहों सो जाये रात की गोद में जाकर 
सहर होगी सूरज निकलेगा ,उजाला घर से बाहर 
छिपत फिरते है मुकद्दस से सवाल पर यक्ष बने प्रश्न 
और तारे भी अंधेरों में होकर रोशन मना लेते हैं जश्न 
बिखर कर चांदनी निखरती है दर्द में भी हरूफ हरूफ 
कलम बेध जाती है जब शब्दों को उधेड़ उधेड़ कर 
स्वेटर का बुनना मजाक समझा है कुछ लोगो ने 
एक धागे से स्नेह को लपेटते जाना बिना तोड़े ही
कभी खुद धागे सा बनकर मिल और देख मेरा हुनर
टूटकर गिर जाते है वही जो झुकना नहीं जानते
ईमान की बात है वरना ..भाषा लठ्ठमार भी हैं जानते
स्वाभिमान भरा है अभिमान से रहते है बहुत दूर
किसी भी चुप्पी को हमारी कमजोरी न समझना हुजुर .- विजयलक्ष्मी 

गहन तिमिर और सूर्य का प्रकाश

गहन तिमिर और सूर्य का प्रकाश 
समय की पीठ पर सवार आस 
खो रही है वजूद और अंतिम यात्रा की ओर
कुछ व्यर्थ सा समय और मृत्यु की चौखट का दीप करता सत्कार 
हडबडाहट और आहट रक्तरंजित सी स्वप्निल वेदनाओं का संचार 
आत्मीय सी सम्वेदना ...प्रश्नों की बौछार 
म्रत्यु ....जीत हार व्यर्थ संवेदित प्रहार झुलसकर बिखरी देह 
चौराहे खड़ा था नेह ..उसपर काली लम्बी रात 
सुबह की धुंध ...ओस की बरसात ...और अंत की और बढ़ते कदम 
एक सूरज का आगमन ..चन्दमा का विर्सजन ...यही सृजन है शायद !!
संचरित प्रकाश की उम्मीद में पथिक ..
एक छोर पर समय खड़ा रहा ...दूसरे पर जीवन
और चल पड़े थे हम लिए यक्ष प्रश्न बाँध जीवन डोर से
काश ...उजियारा हो जाता ,
किन्तु जल बरसता ही मिला ..और बादल ढीठ से हटे ही नहीं .- विजयलक्ष्मी 

समुन्द्र को प्यास होती है सबसे ज्यादा

समुन्द्र को प्यास होती है सबसे ज्यादा ,
रखता है सारी नदियों को पीने का इरादा
दर्द की इन्तेहाँ मिल जाये शायद कभी 
जितना हो सके दर्द को और देजा ज्यादा .
ये सच है जिन्दगी घर किराए का ही हैं 
फिर भी मापते है सभी देह रूह से ज्यादा - विजयलक्ष्मी 

Thursday 10 October 2013

सफर ,,

सफर 
चल पड़ा है 
नई डगर
समय 
रपट रहा है 
मुट्ठी से 
मेरी 
कुछ पल 
बाँधने को आतुर मन 
जो ..
दे सके
एक मुस्कुराहट
घायल लौटने पर
तुम्हे
बिखर जाये
ख़ुशी
और महक उठे
मन आंगन
बहक उठे
मौसम
और जीवन
तुम संग
महका बहका सा .- विजयलक्ष्मी

मेरे तकिये की नमी से क्या पूछोगे तुम


मेरे तकिये की नमी से क्या पूछोगे तुम 
साँझ सहर फैली धुंध का पता 
या.. मुझसे होकर गुजरती हुयी यादों के रेशमी अहसास को 
जिनके साथ भर से छलक उठती है जैसे मौसम ही बरसात हो 
क्या क्या सुनोगे मुझसे ...गुजरे सुनहरे दिन की मरी मरी सी उसी धूप के लिए तो सूखकर महकती मिलेगी उसी तकिये के एक छोर पर सजी 
या ..उस दिन की वो निराशा ..जब बेचीं थी गाय कसाई को पड़ोसी ने चंद सिक्को की खातिर ...मैं कुछ न कर सकी बेबस सी देखती  रही
या ..वो खेत जो गीले तो थे मगर खारे पानी से और फसल चौपट थी जिनकी
या .. वो सपने उस लड़की की आँख के जिसे छोड़ना पड़ा स्कूल ...कुछ लफंगे हुए जिस्मों के कारण ...घर में रहने को बाध्य
या ..उस माँ के आंसू जो रो रही थी उजडती कोख के कारण वजह बेटी का होना
या ..भूख से मरते किसान के बच्चे की जिन्दगी का ,.. जो अन्नदाता है हमारा
या ..सरकारी भाषण से जिसमे रोटी का वादा तो है रोटी नहीं है मगर
या ..सुरक्षा में रासुका तो है मगर सुरक्षित कोई नहीं है आजकल
या .. बेटियों के उन आंसूओ का हिसाब पूछोगे ...जिसे दहेज की कमी के चलते जला रहे है बरसों से ...जिन्दा ही
या ..देह को ताकती उन निगाहों का हिसाब देखोगे जो शोषण कर रही है मन का भी
या.. उस कानून की करतूत सुनोगे जो बंद है चंद पैसे वालो की मुट्ठी में
या.. बिजली पानी के साथ मेरे उस घर के टैक्स का वो बिल जिसे चिलचिलाती धूप में तपकर ...आग उगलती सडको से गुजर कर शीत लहर के मौसम तक ठंड से सिकुड़ते हुए बनवाया था खून पसीने की कमाई लगाकर ....
या.. राशन वाले लाला का वो बिल ...जो किसान के उस बेटे के हाथ में थमा देता है ..जिसने उगाई थी.. फसल अपने बच्चो की खातिर और ब्याज में आढतिया खा गया था सारी
या ..फूटपाथ पे खुले मौसम के तले बैठे उस इंसानी जिस्म जिसे लकड़ी तो हासिल लेकिन पतीला खाली है उसका
बता सकोगे मुझे तुम ...मेरे तकिये नमी से क्या पूछोगे ..या वो अधूरे से ख्वाब ..जो देखे थे कभी हमने एक साथ .----- विजयलक्ष्मी


Wednesday 9 October 2013

सरहदों के रक्षक तुम्हे सलाम ,


हवाबाज देश के तुम सरताज ,सरहदों के रक्षक तुम्हे सलाम ,
लिख दिया जीवन देश के नाम तुम्हारे उस जज्बे को सलाम 
लड़ते हो मौत से जमीं क्या हवाओं पे लिखकर वतन का नाम 
चीरते हो गगन का सीना हौसलों से जब चलते जानिब ए मुकाम 
- विजयलक्ष्मी 

सुना कुछ रजिया गुंडों में फंसी

सुना कुछ रजिया गुंडों में फंसी 
और द्रोपदी का चीर हरण जारी है 
सी बी आई को क्लीन चिट देना का काम मिला 
खबर आसाराम देश की सभी खबरों पर भारी है 
देश के आर्थिक खराब क्यूँ ..नहीं, शिल्पी का रिश्ता क्या है .. जानना ज्यादा जरूरी है 
धार्मिक उन्माद के नाम पर भगवा बाक़ी सभी शांतिदूत प्रभारी है 
अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का फेर बहुत गहरा ..लगाया लैपटॉप का पहरा 
सद्भावना रैली में बंदूक हाथ में होना जनता की सुरक्षा लाचारी है
झूठफरेब और न्याय की आपसी रिश्तेदारी है
बलात्कार की दोषी पांच बरस की उकसाती लोगो को बेटी तुम्हारी है
उसपर सच कहना लिखना और बोलना तलवार दुधारी है .
समाचार खबर देता था कभी हकीकत ..अब तो खबरे भी हुयी बेचारी हैं
मतलब हो या न हो हर विज्ञापन के लिए हुयी जरूरी नारी है
पलटवार बोली तो कुलटा है ...

सब कुछ चुपचाप सह जाये गर गुणों की खान नारी है .- विजयलक्ष्मी

Monday 7 October 2013

शिद्दत ए अहसास यही कहता है सामने रहो अब तो

करे क्या दस्तूर ए वफा निभा ही जायेंगे हम तो ,
मौत रोकेगी रास्ता एक बार दगा भी दे आयेंगे अब तो .

रूठने मनाने के मौसम कभी न आते है न जाते हैं 

बेमौसम ही बरसात बादल भी बरस जाते है अब तो .

आइना कहता है तुम खामोश या बोलो कुछ भी ,
शिद्दत ए अहसास यही कहता है सामने रहो अब तो .- विजयलक्ष्मी 

ईंटें ..


ईंटो के मकाँ ..ईंटों के हथियार ,
ईंटों की मजार ,ईंटो बाकी रहेगी दरकार .
ईंटो का व्यापार ,ईंटों से बाजार 
ईंटो की करनी को भुगतेगा सारा ही संसार .

- विजयलक्ष्मी 







नीव में भी ईंट है ......कंगूरे भी इंट के ,


घर उजड़ते भी ईंट से.. घर बनते ईटं से 


,
भ्रान्ति में फिंकती है ईंटे क्रांति भी करती है ईंटे 



कुछ काम बांतों से नहीं ,,,बनते हैं ईंट से .

-- विजयलक्ष्मी

"माँ "तुम दिखती नहीं बसी हो मुझमे ही कहीं .

"माँ "तुम दिखती नहीं बसी हो मुझमे ही कहीं ..
आवाज घुमड़ कर मुझमे ,मुझमे ही समा जाती है ,
तुम साथ हो मेरे ये अहसास दिला जाती है 
मेरी रगों में दौड़ता है जो लहू तुम्हरी दी हुयी वो चेतना है 
और बेचैनी है नजरों में तुम्हे न ढूंढ पाने की 
स्वप्न जी तुमने दिए थे आँख में को मेरी समेटे है मैंने 
बहती नदी जो वक्त की उसमे यादे है तुम्हारी 
और एक बंद मुट्ठी जिसमे चंद लकीरे उकेर डाली वक्त ने 
जीते है आज भी उन्ही लम्हों में तुम्हारा हाथ थामकर
सफर जो करना चाह तुम्हारे साथ मगर तुम चल दिए
उसी अहसास में चल रहे है इस डगर ..
और स्नेह तुम्हारा बांधकर रख लिया साथ अपने
नहा लेते है और आचमन भी उसी से ...मुझमे बहते हो सदा
आंगन छूटा अपना दर छूटा सखियाँ छूटी ...
नहीं छूता तो तुम्हारे साथ का अहसास जो जिन्दा है वर्षों बाद भी मुझमे
डगर इम्तेहान की तुम दिखा गये जो चल रहे हैं
श्रद्धा है श्राद्ध का हक मुझे मिला नहीं ..
पुकारना चाहते हैं बार बार ..कोई दर खुला मिला नहीं
और खुद में बसा कर घूम रहे है अब हर डगर
तुम्हारा प्यार देता है अवलम्बन हर टूटते पल में मुझे
दुनिया से शिकायत क्या करे
चले आयेंगे फिर तुम्हारे पास तुम ठहरो जरा
मुझे जिन्दगी के लम्हों का करना है हिसाब ..
आहत आहटों का लिखना है हिसाब ..तुम ठहरो जरा
और फिर चले आएंगे..दूर इस दुनिया से ...चैन से सोने .- विजयलक्ष्मी 

पाकीजा से मोती

ये जो उतर आते हैं पलको में दुआ बनकर छलकते है ,
पाकीजा से मोती ,अहसास के समन्दर से निकलते हैं
रंग श्वेत जिनका आभा रक्तिम सी पिरोये स्नेह धागे में 
छलकती है पाकीजगी जिनसे दामन में मेरे चमकते हैं 
चाँद कह दूं सूरज कहूं या ईमान का आना ईमान पर है 
जुगनू सा चमक लहरता जैसे पहाड़ी झरने छलकते हैं .- विजयलक्ष्मी 

तुम तो नहीं ...

वो सांकल खनकती है हवा से जब दर की मेरे ,
एक अहसास चला आता है ख्वाब सा तुम तो नहीं 

एक स्मित सी उभर आती है होठो पर खुद ब खुद 
जी सकेंगे इस ख्वाब को कहकर क्या तुम तो नहीं

कल उलझ गया था आंचल यूँही उड़कर गुलाब से 
महकाता है मुझे लिए शुलों सी चुभन तुम तो नहीं 

टीस सी उठती है घुलकर हवाओं में मुझे संवारती है 
लिए संग यादों के मेले घुमती हूँ जिसे तुम तो नहीं

ओढ़ी थी चुनरी वो चटक से रंग की , भायी दिल को
उठता है ख्याल दिल में उसे लाये कहीं तुम तो नहीं.- विजयलक्ष्मी 

Sunday 6 October 2013

वक्त को पकड़ने की चाहत ने जगा दिया ख्वाब से पहले



वक्त को पकड़ने की चाहत ने जगा दिया ख्वाब से पहले
और सूरज का इंतजार हुआ चाहता है जाग जागकर यहाँ
बात कल की वक्त से पिछड़ कर खामोश से बीतते दिवस को देखा किये अकेला बैठकर
और जिन्दगी को जाते हुए देखा था खुद को लपेटकर
भोर का सूरज निकलकर पूछेगा नैनो से ख्वाब खोये क्यूँ 

ये बता जब साथ था नूर मेरा फिर तुम रोये क्यूँ
कैसे कहूं हर लम्हा उजाले का भी तुम बिन लगे है घनेरी रात सी
और जब मुस्कुरादो तुम नजर में बैठकर रात गहरी भी खिले उगते हुए जज्बात सी
आओ सूरज का स्वागत करें मुस्कुराकर झूमते गगन और खिलते फूल है धरा पर
भोर चिड़ियों को बुला रही है स्वागत गीत गाने के लिए
भावना लिए सौम्य से स्नेह सज्जित स्वप्न सच बनाने के लिए
और अम्बर शर्म से सिंदूरी सा हुआ मिलन के अहसास से
नदी स्नेह की बह उठी ,, खेलती है लहरे प्रथम किरण के सलौने अहसास से
मंत्रोच्चार के साथ घंटी बज रही है मन्दिर में जैसे
अनुपन छटा सी उतरेगी अंगना में मेरे मुस्कुराता है तुलसी का पौधा
.- विजयलक्ष्मी 

मगर ये तय है ..कुछ न कुछ तो है

भीतर धधकता है कोई अंगार सा ,
बरसता है कुछ जलधार सा 
मरता है मौत को गले लगाकर कही हिज्जो में ,बहकता है बहार सा 
दहकता भी है सूरज बनकर ,
छ्नकता भी है ..चहकता है पंछी सा 
कभी उदासी की चादर ओढ़ता है कभी खिलखिलाता है उपवन सा
इठलाता है तितिली सा
कभी गुलों की तरह खिलकर मुरझा जाता है फिर कभी न खिल पाने के अहसास से
कभी मुस्कुरा उठता है जिन्दगी बन .
कभी रंग मौत का लिए
कभी जंगल में भी मंगल कभी लगता है महफिल में तन्हाई का आलम
कभी रुसवाई का डर भी तो कभी जगहसाई का
कभी लगता है मर जायेगे यूँही तो धडक उठता है जोर से
कभी छुपना चाहता है तुममे तुम बनकर कभी हमारा अहसास बनकर
जिन्दा खुद में नहीं जितना तुममे उतना ही जिन्दा होकर ..
कभी तैरता है उसी समन्दर में जो बहता तुम्हारे और मेरे अंदर में
कभी चटकती धूप सा कभी बरता है घुमड़ता बादल सा
कभी लगता सयाना सा ...कभी आवारा पागल सा
भीतर कुछ न कुछ तो है ..ये तो तय है
नहीं मालूम मुझमे बसी ये कौन सी शैह है
मगर ये तय है ..कुछ न कुछ तो है ..
जिसे चैन नहीं किसी किसी पल कभी लगता है दुनिया क्यूँ पागल हो रही है
कभी सुकून के मेले .. कभी झंझा से झमेले है
अजबी सी दास्ताँ है अलग सी कुछ बाते कटने लगी है जागकर राते .
कभी नींद भी जैसे नीम बेहोशी ..
या गोलिया खाकर बेसुध देह छोडकर रूह चली जाये ..
कभी मंजिल है हाथभर की दूरी ..कभी मामला सैकड़ो कोस का पूरी
गिनती बहुत मुश्किल ..आसाँ भी भूलना और मुश्किल कहूं कैसे .- विजयलक्ष्मी 

हालत अच्छे हैं और विचार सच्चे .

हालत अच्छे हैं और विचार सच्चे ..
लंगड़ी देह के भीतर समूची रूह है बकाया 
झांक लेती है नदी के मझदार से लहरों पर बैठकर उस पार 
और क्षितिज पर झांकती है...सुबह की मंजिल हो जैसे 
राहे तलाशते हैं कदम सहरा में धुल की आंधियों के बीच में 
आँख में गिरी जो धुल नमी दे गयी थी 
मेरे हाथ में खिंची चंद लकीरे ...ढूंढती है वजूद को 
और सूरज मुंडेर पर बैठा है ...रौशनी को साथ में लेकर 
सुखा रहा ख्वाब अपने पलकों के झरोखो पर
भावनाओ की डोर बांधकर गुनगुनाते है रागिनी अमन के नाम की
जल रहा है वतन भूख से और भीग रहा है बरसात में सडको पर पानी है ..और प्यास है बुझती नहीं खुद में कभी ...ये कैसा अजब संसार है ..
काव्य के खेत है और बीज शब्दों के लिए बो दिए पौध जो मन के अंगन में खिली .
आओ महक लेते है साथ में हम लोग ..बहुत दूर लगने लगी है राहे आजकल .-
सफर पर चल पड़े है नंगे पांव ही ...पथरीली राहे है और काँटों से भरी
सिद्ध गिद्ध की नजर भी उनपर है खड़ी .- विजयलक्ष्मी

Friday 4 October 2013

गरीब का चुल्हा आग को तरसा न होता

शब्दों से भर जाता पेट गर ...
दुनिया में कोई भी तो भूखा न सोता .

अपनापन खत्म न होता गर 
इंसान कोई इतना भी तन्हा न होता .

अमीर रोटी को न फेंकता गर 
किसी गरीब का बालक भूखा न रोता .

भूख का पता न चला उम्रभर 
एक रोटी को तरस भूखा मरा न होता .

ये सूरज धरती पे जलता गर
गरीब का चुल्हा आग को तरसा न होता .- विजयलक्ष्मी 

तक धिना धिन ता -ता थैया ,




तक धिना धिन ता -ता थैया ,
नाचे मनमोहन नचावे मैया .
ताल दे दे गावे राहुल भैया .
तक धिना धिन ता -ता थैया ..
कागज के टुकडन पे नाचे ...और बलिहारी जाय 
वोट पड़ेगे कितने भैया ..कुछ भी कहा न जाए 
राग चले सर धुनि अपने नटत नचैया
तक धिना धिन ता - ता थैया .
नाचे मनमोहन नचावे मैया .
ताल दे दे गावे राहुल भैया .
तक धिना धिन ता -ता थैया .- विजयलक्ष्मी
दर्द ए शिकन क्यूँ हो भला जब गुल ही गुल नजर में हो ,
कट चलेगा रास्ता भी गर.. चल पड़े सफर में हो 

होगी बिवाई पैरो में अपने और छाले भी मिलेंगे 
रुकता कब कोई सफर है राह में गम भी मिलेंगे 
होती ख़ुशी कितनी गुना जब मंजिले नजर में हो 
कट चलेगा रास्ता भी गर.. चल पड़े सफर में हो |

हर सफर देता चला कुछ निशानियाँ अपनी हमे 
नफरते भी पाई हमने , मिली मुहब्बत भी गले 
रुसवाइयों का रंज क्यूँ हो गर ख़ुशी नजर में हो
कट चलेगा रास्ता भी गर ..चल पड़े सफर में हो |

हौसलों के पंख लेकर उड़ चले हैं पिंजरे के पंछी
लहुलुहान राहे कराहट , मुस्कुराहट लिए जिन्दगी
बन्दगी हो दिल में सच्ची और खुदाई नजर में हो ..
कट चलेगा रास्ता भी गर ..चल पड़े सफर में हो |.
.- विजयलक्ष्मी

Thursday 3 October 2013

मेरे हौसले हैं बहुत बड़े बंदूक लिए रहो खड़े



मेरे हौसले हैं बहुत बड़े बंदूक लिए रहो खड़े 

ये टुकड़ा नहीं है सबक है तुम्हारे लिए 


मरने से नहीं डरता ..मारता हूँ जिन्दगी के लिए 


जिन्दा रहने की ख्वाहिश है फिरता हूँ आग दिल में लिए 


मेरी उम्र पर न जाना ..छूटा नहीं है अंदाज पुराना 

देखना तो देख जिन्दा हूँ जिन्दगी का हुनर हूँ लिए 


उस दिन ..तक ..


तुम्हे सबक सिखा दूंगा ..जिन्दगी को जीने का बुलंद हौसला दिखा दूंगा 


यही सबक आने वाली पीढ़ियों को सिखा दूंगा 


भूख और वजूद के लिए आग सब दिलों में लगा दूंगा 


उस दिन ...तक ..


जिन्दा हूँ और जिन्दा ही रहूँगा ..


याद रखना मैं ..मरके भी नहीं मरूंगा ..


मरने का सबक सिखा चुका हूँ जिन्दगी के लिए 


मेरे हौसले हैं बहुत बड़े बंदूक लिए रहो खड़े 


ये टुकड़ा नहीं है सबक है तुम्हारे लिए 


मरने से नहीं डरता ..मारता हूँ जिन्दगी के लिए.- विजयलक्ष्मी