Wednesday 27 February 2013

कब छोडोगे छलना ..

सुना है -औरत नाच रही है नंगई नृत्य ,
बताओ तो - करता कौन है है यह कृत्य .
सुना है - औरत बिक रही है सरे बाजार ,
बताओ तो - क्यूँ हों गए हैं ऐसे आसार .
सुना है -वक्त की धार कुछ कुंद हों चली ,
बताओ तो - क्यूँ रौंदी जाती है खिलने से पहले कली .
सुना है - औरत हों गयी बदकार ,
बताओ तो - कौन करता  है उसका व्यापार .
सुना है - समाज खराब हों रहा है ,
बताओ तो - किसका दिमाग खराब हों रहा है .
सुना है -कीमत लगी है शरीरों की ,
बताओ तो - इबारत किस्मत में लिखी हुयी तकदीरों की .
सुना है - औरत हिस्सा है बराबर ही घर का ,
बताओ तो - कभी दिया है दर्जा क्या बराबर का .
सुना है - औरत घर की रानी होती है ,
बताओ तो - क्यूँ दुर्गति औरत की ही होती .
चलो बंद कर दो औरत का घर निकलना ,
बस एक यही हल है लगता तुमको बाकी ,
हे पुरुष !तुम इस निर्णय को न कभी बदलना...
औरत को स्वामिनी कहकर बताओगे क्या कब छोडोगे छलना
..विजयलक्ष्मी 

उड़ना था पतंग सा ..




उड़ना था पतंग सा ,....
डोर बांधेगा अपनी ...
या यूँ ही खड़ा रहेगा ...
चरखी लिए अपनी ...
कुछ देर निहार कर आकाश ..
चल देगा होकर निराश ..
देखकर पतंग बाजों को ..
देखकर ऊँचे उड़ते बाजों को ..
और ..कदम ठहर कर मुड जायेगें दूसरी और ..
जाने को दुनिया के दुसरे छोर ..
सोच ले ...सोचकर बताना ..
इच्छा हों तो चले आना
.
- विजयलक्ष्मी



बसंत की पतंग ,,


बसंत की पतंग ,,
लिए उड़ने की चाह 
वो भी छत पर खड़ा 
था मुंडेर से टिका 
निहार रहा था ,,
पतंग
उडती थी नील गगन
मंथर मंथर ,,
कभी गुलीचा मारती ..
कभी इतराकर उपर उड़ जाती ..
जैसे जिन्दगी उडी चली जा रही थी
दूर इस दुनियावी दस्तूर से
अनंत को पाने की चाह में
अंतर्मन को छूने की राह में
जैसे छा जाना चाहती थी
इस मन के अनंत आकाश में
हो पवन वेग पर सवार
यूँ डोर संग करती इसरार
ज्यूँ उँगलियों से पाकर इशारा
मापना चाहती हो आकाश पूरा
जैसे एक दिन में जीना चाहती है
पूरी जिन्दगी ,,
या ..
पूरी सदी
या ..पूरा युग ,,
या पूरा ही कल्प ,,
जन्मों की गिनती क्या करनी 

डर लगता था टूट गिरी 
अटकी लटकी ..
गिरती फटती 
बस एकांत गिरी जाकर 
न लूट सका ..
न छूट सका 
मन पर पैबंद लगा बैठी
बस ,,
कुछ और नहीं ,,
प्रेम प्रीत की डोर बंधी जैसे
जीवन पूरा जी उठी ऐसे
क्या बसंत की पतंग सी ... ||
 ----- विजयलक्ष्मी
"इंसान का चरित्र गिर रहा है ,
देश का भविष्य गर्त में जा रहा है ..
वर्तमान सीधा खड़ा नहीं हों पा रहा है ,
बैसाखियाँ चुराई जा रही है ,चलना सम्भव कैसे हों ,
मानुष मन से मनुष्यता घट रही है ,
हर किसी को बस अपनी पड़ी है ,
ऐसे में सरकार की क्या गलती है दुनिया ही ऐसी हों रही है ,
पाखंडी को लगता है हर कोई पाखंड ही खेलेगा ,
पुजारी मंदिर में ,मौलवी फतवे से ,पण्डे घाट पर ,
नेता जी लोकतंत्र की मचान पर ...
कोई दुकान पर कोई किराये के मकान पर,
हर कोई लगा है फेर में निन्यान्ब्बे के फेर में ,
कुछ नहीं बढा ,देश के किसी ग्राफ में वर्द्धि नहीं हुयी ...एक छोड़ कर ..
भ्रष्टाचार की दूकान फल फूल रही है सुंदर तरीके से ,
बगीचा मुस्कुरा रहा है ,भ्रष्टाचार का वृक्ष पुष्पित पल्लवित है ...
उसपर पूर्ण कृपा विद्यमान है सरकार बनी माली की ...
अब लोकतंत्र क्या करेगा ...
देखना है ऊंट किस करवट बैठेगा ....
किस मन्तव्य से उतरेगा युद्ध में चुनावी ...?.
"- विजयलक्ष्मी

न छेड सरगम , कोई गीत संवर जायेगा .



ए दिल न मचल ,सम्भल ,रुसवा हों जायेगा ,
न छेड सरगम , कोई गीत संवर जायेगा .

जिंदगी को किसी की नजर न लगजाये कहीं ,
श्वेत रंग पे बिखरा हर रंग नजर आयेगा .

सम्भल कर निकल हर राह पर नजर है ,
निगाह ए मुहब्बत से भला कैसे बच पायेगा .

शाम ओ सहर संग चलते रहे है सदा ही ,
रंग ए मुहब्बत नजरों पे हरसू नजर जायेगा .

ये दुनिया का मेला है तू इसमें अकेला 
सफर जिंदगी का बाकी भी यूँही कट जायेगा .
- विजयलक्ष्मी

मौन का टूटना ,

मौन का टूटना ,
टूटता है इंसान खुद भी भीतर ,
जिंदगी कितनी राहों से जाती है गुजर ,
अहसासों के सफर की पीड़ा जानता भी वही है मौनव्रती,
शब्द शब्द निखरता है ,पल पल सिहरता है ,
कदम कदम चलता है सहमा सा ...
जब टूटता है मौन टूटता है इंसान भी खुद के भीतर ,
टूटकर जुड़ने की कोशिश नाकाम तो नहीं है खौफ भी है यही सफर का ...
पत्तियां टूटकर डाल से जुड़ती कब है ,
पुष्प गिरकर फूलता कब है ,
टूटता है मौन के साथ बहुत कुछ ...सिहरता है ,
सहमता है हर फलसफा ...
जलकर ,,बिखरकर,,सम्भलने में जिंदगी बीतती है पूरी ,
टूटता है मौन ...बहते है समन्दर के धारे से थमकर बाँध बनकर थामे थे जो किनारे ...
मौन अकेला कब टूटता है ..
टूटता है मौन ,बहुत कुछ टूटकर बिखरता है भीतर भीतर
.- विजयलक्ष्मी

Tuesday 26 February 2013

तौबा ...



निगाह ए मुहब्बत लबरेज नजरों का बहाना ,तौबा ,

वो देखकर खुद ही पलकों पे रुक गए औ नाम हमारा, तौबा ...विजयलक्ष्मी
कहा उसने ..निशाने बाजी का हुनर खुदा ने मुझको खूब दिया ,
चल छोड़ ,कलाबाजी बरसों की काम आई है तेरे .मैंने भी कह दिया - विजयलक्ष्मी

गुनगुनाकर देख लो ..

मौत के बाद का सन्नाटा ठहरा है यहाँ ,
शहर ए खामोशां की चीख सुनती है सिर्फ रूहों को ,
इन्सां डरते है झाँकने से वहाँ ..
गुनगुनाकर देख लो ,यकीन नहीं होता गर ...विजयलक्ष्मी

जिंदगी और मौत का सवाल उठा इक दिन

जिंदगी और मौत का सवाल उठा इक दिन .
ये रजामंदी का नहीं खारों का खेल है ,
रंज न करना कत्ल ए आम में गर घायल हुआ ...
यहाँ तलवार से नहीं बमों से होते खेल हैं ,
चुप रहती है सरकार चीखती है जनता ...
लोकतंत्र के घर में लोकशाही की रेलमपेल है ..
मुझे जिंदगी नहीं मिलेगी मालूम है याद रखना ..
तुने समझा होगा मगर पूरा हुआ खेल है...विजयलक्ष्मी