Tuesday 17 September 2013

महकते रिश्तों से भी जल रहा है आदमी |

इबारत लिखी गयी जो दिल पर मिटती नहीं कभी 
ये और बात है जुबाँ पर नाम आये या न आये कभी .- विजयलक्ष्मी



खामोश ख्याल और याद पलपल घुमड़ती है भीतर भीतर ,
शोर बहुत है बाहर, मद्धम सा संगीत बजता है भीतर भीतर.- विजयलक्ष्मी



हर काम अधूरा है किया हुआ देश बर्बाद पूरा है ,
इमदाद खाते है नेता , जनता की पीठ पर छुरा है .- विजयलक्ष्मी



रौनक ए महफिल शबनमी ,पडती ठंडी फुहार है ,
जिनके तबस्सुम के नूर से जिन्दा वो खुद बहार है .- विजयलक्ष्मी


घर ठिकाना नहीं ईंट पत्थरों का तो मकाँ होगा ,
शिद्दत ए अहसासात ए मुताल्लिक ही जहां होगा .- विजयलक्ष्मी



अपने गिरेबाँ में भला झांकता कौन है,
खुद कितने पानी में खड़ा आंकता कौन है .विजयलक्ष्मी



महकते रिश्तों से भी जल रहा है आदमी |
प्यार को भी नफरत में बदल रहा है आदमी .- विजयलक्ष्मी

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