Thursday 23 April 2015

" वीर सुभाष की सुनी कहानी और भगत की फांसी भी "




आओ चलो सपने सच करने देखे थे भारत के वीरों ने 
जब जकड़ा था भारत माता को दुश्मन की जंजीरों ने
न फांसी से डरे कभी कभी न तलवारों की धारों से 
बचके कभी खड़े हुए नहीं बरछी ढाल कटारों से 
वीर सुभाष की सुनी कहानी और भगत की फांसी भी 
सावरकर के जख्म भी देखे , देखी आजाद की आजादी भी
देखा था चरखे का करतब नेहरु की देखी लाचारी भी 
बम फेंकते असेम्बली में देखि जीवन देने की मारामारी भी 
लक्ष्मीबाई की तलवार भी देखी तात्याँ की होशियारी भी 
और आजादी के बाद देख ली सत्ता हत्यारी भी 
कैसा सुराज कैसा स्वराज ...सब खो गये धरती के नगीने 
रह गये भांड दलाल सब सत्ता के गलियारे में डोलते 
सच को बंद कर तालो में कुंजी फेंकी तालो में 
रह गई सत्ता साठ बरस से बस भौकने वालों में
कौन खेलता फूलो से कौन रंग अबीर लिए बैठा 
देखो भारत के सपूतो सियासती बे-ईमान जमीर पिए बैठा 
बेच दिया ईमान जिन्होंने वो हमको क्या सुख देवेंगे 
औरत की इज्जत को बेचा माँ और ममता को दुःख देवेंगे 
ये भेड़िये इन्सान नहीं पशु है इंसानी चेहरों में 
इनको बाहर की राह दिखाओ फेंको इनको झेरे में 
एक समन्दर खारे जल का दूजा सब मिलकर तैयार करो 
जो दुश्मन भारत माता का उसको निकाल बाहर करो 
अब तीर कमान उठेंगे उनपर ,,जो गंगाजल को रोक रहे 
मेरे भारत के विकास को बस नोटों में तौल रहे 
वो शहीद लजाये न जिन्होंने आजादी पर प्राण दिए 
आओ मिलकर खड़े हो सब अपने वतन की आन लिए 
जिसको वतन नहीं यारा उनको रोका है किसने 
जिसको जाना हो जा सकता है गैरो को टोका है किसने
अब आगे बढने से रोकना होगा जहर उगले वालो को 
बनकर कहर बरसना होगा शोले में जलने वालों को 
अब अंगार बना शब्दों को सच का जलसा सजायेंगे 
न किसान मरे कोई न न्याय बेचता कोई मिले 
कोई आंगन सूना न हो हर घर में चूल्हा भी जले 
बहुत किया बर्बाद वतन ... केसर यहाँ उगायेंगे 
नग्न हुई धरणी को मिलकर हरियाली बाना पहनाएंगे ,,
 राष्ट्रप्रेम की अलख जगायेंगे |
...------ विजयलक्ष्मी

" अरे ओ दिल्ली के मुख्यमंत्री तभी तो हर कोई तुझे इंसान मानता "



मन में कष्ट ज्यादा है या ग्लानी या अफ़सोस है रंग ए राजनीति देखकर
आखिर किसके लिए यहाँ खड़ा है वो इन्सान को मौत की देहलीज फेंककर
एक जान की कीमत पर एक रैली की ख्वाहिश से जिन्दगी शुरू हो जिसकी
सोचकर देखना हकीकत उस दगाबाज की
कोई धर्म के नाम पर कोई कर्म के नाम पर ..
लेकिन ...
ये किस सत्ता की भूख
उठी न जिसको हूक
निगल गया एक इंसान को खड़ा खड़ा
कितना तमाशा और
कितने जीवन और
कितनी भूख और
कितने सत्ता के गलियारे और
करने होंगे कितने भगवान के प्यारे और
क्या फिर भी मिटेगी भूख
खुद को सबसे अलग दिखाती हूक
खुद को इन्सान कहते तुम्हे लज्जा न आएगी
आज धरती दिवस के दिन जब ये गाथा दोहराई जाएगी
आज नहीं सदियों तक तेरी गायी जाएगी
एक मुख्यमंत्री के सामने ..पृथ्वी दिवस पर
उसी पृथ्वी के लाल की भेंट चढाने वाले में तेरी गिनती आएगी
इतिहास तेरे स्वार्थ को मापेगा ,,
सोया हुआ है जो इन्सान कभी तो जागेगा
तुझसे तेरे बाद भी हिसाब मांगेगा
इन्सान के दर्द को काश तू पहचानता
अरे ओ दिल्ली के मुख्यमंत्री तभी तो हर कोई तुझे इंसान मानता
तुम होंगे किसी के लिए देशभक्त
आज तुम्हारी सोच से भी खौलता है रक्त
कैसे तुझे भारत का कहूँ पूत
कलंकित किया आज देश को जैसे करता है कोई कपूत
फर्जीवाड़े की कोई तो सीमा होती होगी शायद ,,,
किन्तु राजनीति और स्वार्थ के आगे सब निरापद | ---------- विजयलक्ष्मी
बहुत कष्ट और अफ़सोस (महादुःख में और हताश हूँ आज सत्ता के प्यार से )हुआ ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद पर देखकर |

" हे धरतीपुत्रो, उठो खडे होकर मागों हक ,"




पैसों की झिकझिक रिक्शा वालो से कभी नोटों की झिकझिक ओटो वालों से

न कार के किराए की मारामारी सुनी हमने न झगड़ा देखा होटल वालों से 
नहीं मरता नेता का बेटा कभी सरहद पर वतन की
खेत में झुलसता किसान सूरज में सीना ताने खडा लाल उसी का मरने वालों में 
हर बार बलि चढ जाता है सियासतदानों की सियासतदारी में
हे धरतीपुत्रो, उठो खडे होकर मागों हक ,कुचल  सत्ता के भोगने वालों से 
--------- विजयलक्ष्मी

Monday 20 April 2015

" निर्मल प्रेम की उन्मुक्त धारा...पंछियों के बीच "



निर्मल प्रेम की उन्मुक्त धारा
धरा पर
बहती है
उम्रभर
पंछियों के बीच ,,
मनुष्य तो नफरत जोड़ता है
ह्रदय में
और
समझौता प्यार में
टोकना मत
हम
मनुष्य वेशधारी तो हैं
उड़ते हैं उड़ान
कभी मर्यादित कभी उन्मुक्त
स्वार्थ के पाँखो पर सवार
किन्तु
पंछी नहीं है हम
बरसते हैं
अपने ही सहरा पर
सरसब्ज होने को
रखकर स्वार्थ का बीज किसी कोने
रोकना मत
कहने देना
फरेब इंसानी फितरत का
क्यूंकि
बादल नहीं हैं हम ---- विजयलक्ष्मी 

Wednesday 15 April 2015

" माँ औ ममता का इकरार बहुत "

बेटे को घर- दौलत सब देदो ,,
मुझे जीने का अधिकार बहुत ||
वसीयत कब मागी बिटिया ने
आ जाये हिस्से गर प्यार बहुत||
रूठी ही कब देहलीज से बेटी
अपनेपन का इन्तजार बहुत ||
न दहेज न दरकार ए किस्मत
समझे न पराया इसरार बहुत ||
मंजूर विदाई भी कर लेती बेटी
माँ औ ममता का इकरार बहुत || ---- विजयलक्ष्मी 

Sunday 5 April 2015

" मन बदरा बना हम बरसते रहे "

बेरंग सी राहे मिली बहुत हम उनमे ही रंग भरते रहे ||
गुजरते मिले नक्श ए कारवाँ सब उसी डगर से गुजरते रहे ||
जहर भरा कूजा ए जिंदगानी उम्रभर उसी को निगलते रहे ||
बंजर जमी फसल को तरसती मन बदरा बना हम बरसते रहे ||
लहर से मचलना सीखू कैसे नाखुदा संग डूबते उतरते रहे ||
अहसास समन्दर में तिरे खूब फाख्ता सी याद मुंडेर उतरते रहे ||

--- विजयलक्ष्मी

" सूखता है गला हलक तक हाहाकार देखकर"

चाँद चमक कर छिप गया ओट बादलों की सितारे सहम गये पसरे अँधेरे को देखकर ||
जीवन भूख बेचैन सी दौड़ पड़ी पीछे पीछे बिन बरसात तडप उठी हुक सुखा देखकर ||
नजरे आसमान पर टिकी टकटकी लगाये बरस जा ओ बदरा आँखों की नमी देखकर ||
रक्तं बिखरा है सडक पर दूरतलक अपना सूखता है गला हलक तक हाहाकार देखकर ||
--- विजयलक्ष्मी


"माचिस में आफ़ताब कोई ठीक नहीं"

ख्वाबों पर माना कोई रोक नहीं ,,
नागवार गुजरे ख्वाब कोई ठीक नहीं
मशक्कत ए पैमाना ए नजर हुई 
माचिस में आफ़ताब कोई ठीक नहीं
खुशबू ओ गुल महकता उपवन
काँटों बिन यूँ गुलाब कोई ठीक नहीं 
रंग ए नाज ओ अदा बिखरे से 
बे-पर्दा बिखरे शबाब कोई ठीक नहीं 
सितारों जड़ी चुनर ओढ़े यामिनी
नजर चुराले महताब कोई ठीक नहीं ---- विजयलक्ष्मी


Saturday 4 April 2015

" इंतजार है इक सहर का ,"

इंतजार ..
हर रात को
इंतजार है 
इक सहर का ,
हर नये प्रहर का 
जब ..
उजाला ही उजाला होगा चहुँ ओर
और
निराशा के पुष्प भी
आशा के रंग में रंगे जायेंगे..
मुस्कुराहट होगी हर चेहरे पर
महकता होगा हर मंजर
भूख खो जाएगी
निराशा तिर जाएगी
गरीबी बिक चुकी होगी
और जिन्दगी बिखेरती मिलेगी ख़ुशबू
बस
किसान गुनगुनाते मिलेंगे
सरहद पर सिपाही खिलखिलाते मिलेंगे
जब
वही इक सहर
इंतजार ..
हर रात को
इंतजार है
इक सहर का ,
हर नये प्रहर का
जब ..
उजाला ही उजाला होगा चहुँ ओर--- विजयलक्ष्मी