Friday 26 July 2013

अभी सम्भलना नहीं जानता

कुछ देर खेल लेने दो हमे , हमारे अपने ही दिल से ,
ये नादान भी कुछ ज्यादा ही है रवायतदारी नहीं जनता ,
कुछ बिखरेगा कुछ रिसेगा टूटकर घाव भी होंगे अभी 
सम्भल जायेगा वक्त के साथ अभी सम्भलना नहीं जानता .- vijaylaxmi 

वो दोस्ती क्या जो दरार बनादे मेरे ही घर में

वो दोस्ती क्या जो दरार बनादे मेरे ही घर में ,
दोनों के साथ अलग से करतब देखे हैं हमने भी 

बहुरंगी दुनिया के कुछ रंग देखे हैं हमने भी 
गिरगिट से रंग बदलते इंसान देखे है हमने भी 

ख्वाहिशे ढूँढा किये तुम सरेराह मिलते कहाँ 
हक औ हुतुत मिले क्यूँकर लम्हे देखे हमने भी 

बहुत गुरुर तुमको भी स्वाभिमानी हम भी है 
महफिलों को सजाने वाले बहुत देखे हैं हमने भी

जिस राह मंजिल न हो ,उस डगर जाते नहीं
चोरी के बाद सीनाजोरी दस्तूर देखे हैं हमने भी

पैरहन नहीं पहनते वो जो अपनी हमारी न हो
काले मन उजले तन के लोग संग देखे हैं हमने भी .- vijaylaxmi 

वो मुन्तजिर है कैसे कहूं उसे तो मेरा भी एतबार नहीं

हम जिए कैसे भला इस राह ए गुजर पे बतादो, 
किधर रुख किधर बस्ती गुलशन अपना गुलजार नहीं .

वफा ओ मैकदे मकदम चलते तूफ़ान के साये ,
न हम बेवफा हुए न तुम ही थे मगर इख़्तियार नहीं .

हमे एहद था तुम्हारा तुम्हे गुरुर था खुद्दारी का ,
हम बर्दाश्त कर सकते थे ,गद्दारों का पर एतबार नहीं .

ये कौन सा मुकाम जिस पर तुमने पहुचा दिया ,
क्या हुआ जो मुहब्बत औ हयात पर इख़्तियार नहीं .

सच हवस नसीब नजर को करार कैसे मिलता
वो मुन्तजिर है कैसे कहूं उसे तो मेरा भी एतबार नहीं .- विजयलक्ष्मी

सुर सजते है महफिल में ,युद्ध से हटेंगे तुम न समझना

हम अहिंसा के पुजारी है जितने हमे कायर न समझना 
तलवार का रुख रखती है कलम को बेकार न समझना 
हमने पूजा है गाँधी को सुभाष को भी कम न समझना
वंशज लक्ष्मीबाई ,आजाद के है जयचंद की न समझना 
यूँही किसी को छेड़ते नहीं छुट जायेगा छेड़ न समझना 
किसी की चोरी नहीं की कभी छोड़ देंगे चोर न समझना
संस्कार सीखे, कायदे अदब सब है कमजोर न समझना
गुल महकते हैं चमन में काँटों की धार कम न समझना
चहकना महकना ठीक मुहब्बत ए वतन कम न समझना
सुर सजते है महफिल में ,युद्ध से हटेंगे तुम न समझना
हिम्मत ए फुर्खा उतर कर आ ,मैदा में शैदा न समझना .- विजयलक्ष्मी

Friday 19 July 2013

अनजान भी नहीं मुसलसल पहचान भी नहीं ,


















अनजान भी नहीं मुसलसल पहचान भी नहीं ,
एक चेहरा मुझे मेरे ही ख्वाबो में सजा देता है .

खो गयी है नींद भी मेरी आँखों से दूर कहीं 
ख्यालों में बसकर मेरे पहलू में जगा देता है.

टूटकर बिखरती हूँ जब कभी खुद के भीतर
थामने को मुझको अपना हाथ बढ़ा देता है 



तमन्ना भी हुयी कई बार कि तन्हाई में रोऊँ
चुप से दिल के दरवाजे की जंजीर हिला देता है

करूं गुमान उसपे या खुद पे ,न समझी मैं
साथ पल भर ,लम्हे में सदियाँ भुला देता है
.- विजयलक्ष्मी 

उफ़ मौसम को समझाओ कोई, मेरी नहीं सुनता



ए गुस्ताख न बरस यूँ ,मुश्किलात बहुत होगी ,
खैर औ खबर की फ़िक्र औ तलाश बहुत होगी .

बदगुमाँ हुए बादलों जरा रास्ते बदल दो अब तो 
बिजलियों की तडप में भी तो अजाब बहुत होगी

सफर में खैर औ मकदम कदम कदम जाँनिसारी 
राहे भी टूटीफूटी है सड़के पानी नवाज बहुत होगी 

उफ़ मौसम को समझाओ कोई, मेरी नहीं सुनता
क्या करूं जतन कैसे इसकदर इंतजारी बहुत होगी.

गर है कही खुदारा मेरी आरजू ए रजामंदी तुमसे 
विजय सब्र , दुनिया सारी रंग औ साज बहुत होगी .

- विजयलक्ष्मी 

खुदारा जश्न ए मुहब्बत में हो शामिल

कब्र ए कफन पे मेरी जलता चराग वफादार है विजय 
बाद मरने के रूह का रूह से मिलन असरदार है विजय 

अश्क मेरे उसने मोती समझ के बेच डाले सरे -आम 
दरकार ए मुहब्बत का फिर भी क्यूँ , इकरार है विजय .

है ये कैसी उसकी कुव्वत , है ये कैसी शौक ए शुमारी 
जान लेके मेरी ही देता है जिन्दगी कैसा प्यार है विजय .

बहुरुपिया सी दुनिया में असल की पहचान है मुश्किल 
फरेब ए मशियत समझ , जमाने से खबरदार है विजय.

रंग ए वफा में काबिल ए हुनर की दरकार हुयी यूँ अब
सच और झूठ कुछ हो ,उनके लब पर एतबार है विजय .

लफ्फाजी ए गजल न कर बैठे हम किसी से किसी रोज
अब देखना है बाकी , कितना खुद पर एतबार है विजय .

आँखों में जलते थे जुगनू और चरागात लिए से हम भी
न जाने किस रह-गुजर से गुजरे वो, इन्तजार है विजय .

लिए मुस्कुराहट लबो पर नई सी पहरन में आ गया वो
खुदारा जश्न ए मुहब्बत में हो शामिल क्यूँ खुद्दार है विजय
.- विजयलक्ष्मी 

Wednesday 17 July 2013

अब अजाब सा उठता है दर कदम

हमे मनाने का हुनर नहीं आता आंसू ढुलक पड़ते है साथ में ,
दिल के रईस बहुत है हम मगर फक्कड़पन भी बसता है साथ में .
नहीं जानते थे उदासी कैसे उदास करती रही सभी को पल पल 
अब अजाब सा उठता है दर कदम तुम बिन बीज पलता है साथ में
.- विजयलक्ष्मी 

शिनाख्त कर सको गर तो करो खुद में गहर गहर

करती है सफर देह ये रूह चल देती है लहर लहर ,
अब खुद से दूर हुए, आवाज लगाते है ठहर ठहर 
वफा नहीं मालूम, है मुकम्मल यूँभी कहर कहर
वक्त ए लम्हात इनायत तेरी शाम औ सहर सहर 
दरकार ए वक्त रूह भी रूह से रूबरू थी बहर बहर
शिनाख्त कर सको गर तो करो खुद में गहर गहर
कब्र को खोदते हो वक्तबेवक्त, घड़ी घड़ी प्रहर प्रहर 
खटखटाती सांकल याद की जब वक्त है जहर जहर 
तिर भी जाने दो कश्ती जीवन नदी में लहर लहर 
महकने दो खुशबू ए कस्तूरी मुसलसल फैहर फैहर
.- विजयलक्ष्मी 

जोधाबाई का घर देखा है

खौफ ए रुसवाई न होता तो ..
कोई पल अधीर यूँ न होता तो 
कीमत बहुत भारी है 
काम सरकारी है 
कैसी माया धारी है 
देश की लाचारी है 
नीतिगत बिमारी है 
सामाजिक दुविधा है 
एक और सफर की सुविधा है 
जोधाबाई का घर देखा है 
अकबर के पतन की रेखा है
वतन की अपनी लक्ष्मण रेखा है
वक्त पास है
लम्हा लम्हा उदास है
लगता है चक्र पैरों में लग गया है अपने भी
रूह और देह जुदा भी साथ भी
.- विजयलक्ष्मी 

तुझमे अब कुछ रहा नहीं

चल उसी डगर ये तेरी राह नहीं ,
भूल से आ गया था मुसाफिर ,तू उसकी राह नहीं .
जब याद आएगा बसेरा गुजरी उम्र का 
कह जायेगा देख लेना अब कोई चाह नहीं .
तू जुगनू नहीं दीप नहीं क्या मुकाबिल आफ़ताब के 
रंग औ खुशबू हुयी पुरानी कुछ नया यहाँ नहीं 
तेरे रंग सूख गये ...दरारे हुयी ख्वाब में 
जिन्दगी से रुखसती मुबारक ...तुझमे अब कुछ रहा नहीं
.- विजयलक्ष्मी 

Tuesday 16 July 2013

किसी को फांके ही फाके नसीब में

बिकाऊ मिडिया की मंदी में कीमत सरकारी खबर अधूरी ....सच झूठ के प्रतिशत भी गडबडाए हैं ...कोई खा रहा है मलाई किसी को फांके ही फाके नसीब में .- विजयलक्ष्मी

एक और मजाक ....!!

अख़बार ये बोला ..सरकारी पिटारा खोला 
लापता लोगों को मृत नहीं मानती सरकार 
जिन्दा जिंदगियों अगले महीने मिलेगा सस्ता सरकारी गल्ले का माल 
नौकरी के नाम पर किया युवतियों की जिन्दगी को हलाल 
ये कम न तेरा न मेरा ...फिर भी ठगी करे है बसेरा 
सी बी आई और आई बी में हुयी जंग ..
सरकारी तकरार में देश की सुरक्षा पड़ी खतरे में 
देश में राहुकाल समय की पीठ पर होने को है सवार 
क्यूंकि ...गद्दी की दास्ताँ लिखी जा रही है नाम ए राहुल काल
सरकार की नीतियों के तहत डेड महीने में पैट्रोल चढ़ा है चौथी बार
तार ...खबर का माध्यम हुआ इतिहास ..
आम जनता करती है बकवास ..
देखते नहीं हो रहा है भारत निर्माण ..
जाते जाते कुछ शंशय ....न जाने हल हो पाएंगे कब .
क्या मलबा उठ्वाएगी केदारनाथ का ...शिनाख्त के लिए ?.-
इस महीने भूखे रहकर भी जिन्दा ही रहेंगे......
कोई गारंटी है या .....सरकार ने वक्त पर विजय हासिल कर डाली ...?
क्यूँ मरते है दुनिया में प्रदुषण से लगभग छब्बीस लाख लोग
सुना है अमेरिका के सांसद .....हमारे चंदा मामा पर भी पार्क बनाने की सोच रहे हैं ..
जरा सम्भलकर ....
मिडिया बिका हुआ है ...खबरों का सच झूठ पकड़ना मुश्किल
मगर लिखता है सरकारी मण्डी में बिकी हुयी कलम से
कहता है खबर शतप्रतिशत सच्ची है
एक और मजाक ....!
!.- विजयलक्ष्मी

Monday 15 July 2013

ये रंग कौनसा बिखरा है नहीं जानते हम यूँ तो



"एक सच कहूं तुमसे नहीं कह सकी आज तक 
ये मुहब्बत किसी दिन मेरी जान लेकर ही मानेगी ,

बंद लबों के भीतर का सच तुमने न सुना गर 
मर गयी वो किसी गम में दुनिया इतना ही जानेगी ,
तेरे शहर से रिश्ता पुराना था यूँ तो अपना भी 
तुम मिलकर भी ये राज न खोलो तो किसे जानेगी ,
ये रंग कौनसा बिखरा है नहीं जानते हम यूँ तो 
इन्तजार ए मौत या दुआ किस रंग से बता मानेगी"
,- विजयलक्ष्मी 

शब्द ए शिनाख्त तौबा मेरी कब्र पर महक क्यूँ

सजा दें एक ख्वाब आँखों में तेरी भी अपना सा 
आ दामन की छाया से गम ढक दूं तेरे वरना पहरा क्यूँ .

बिखरी तासीर ए तस्वीर तसव्वुर सी बेतरतीबी से 
ठहर कर संवार जरा तकदीर ए तस्वीर वरना ठहरा क्यूँ .

लहर कर लहरे लहरे सी लहर उठती है सफर पर 
वादी ए खुशबू ए गुल पुरवाई की कसम वरना सहरा क्यूँ .

शिनाख्त वक्त की कर लेते गर नामुराद रुक जाता 
वक्त को बाँधने का हुनर कहाँ से पूछते गम वरना ठहरा क्यूँ .

शब्द ए शिनाख्त तौबा मेरी कब्र पर महक क्यूँ
चला जब महफ़िल से इन्तजार ए जहर है वरना ठहरा क्य

मुकम्मल मालूमात किसे है नहीं मालूम हमे भी
रही देहलीज पे दीप सी रौशनी की दरकार वरना ठहरा क्यूँ .

वही ख्वाब मुख्तसर सा पलकों पे थमकर गुजरा
ख्वाबों का सफीना मौत का मंजर सा वक्त वरना ठहरा क्यूँ .

सब सामने है खुली किताब सा आखों में ठहरा यहीं
कमी कुछ रही होगी हमारी आँखमिचौली सा वरना ठहरा क्यूँ
.- विजयलक्ष्मी 

....अपना भविष्य ..दांव पर

देश जल रहा है
भूख बिखरी है सडकों पर 
पानी को मोहताज है सब लोग 
कोई देह को चीर रहा है निगाहों से 
किसी को रतौंधी का प्रकोप हुआ है 
वो खफा है यहाँ सबसे 
कुछ ईमान बिक रहे थे एक दूकान पर 
सबसे महंगा बिका नेता का ईमान 
और कोडी में बिक गया इंसान 
मोल लगता कैसे ..जनता सस्ती है ..
बिकती है
पिटती है
मरती है
खपती है
इलैक्शन में फिर..... पचास रूपये एक साडी और बोतल में रख देती है
....अपना भविष्य ..दांव पर
जीवन का विशवास
सारी आस
और ..खुद को भी
.- विजयलक्ष्मी 

काव्यांजली ...है श्रद्धांजली नहीं थी वो .

सब आजाद हैं यहां ,
सबकी आजादी का अपना अलग सा रंग है 
याद किसी की अहसास किसी का 
शब्दों की माला खो रही है ....क्या सचमुच ही ..
शब्दों का सिंदूरी हुआ रंग बदलता हुआ तो नहीं देखा था ...
बदल जाये इन्तजार का रंग मालुम नहीं था ...
देहलीज का दीप ....मेरे आंगन में नहीं जलता यूँ भी 
हर आंगन का सूनापन दीखता है ...
मेरे भीतर एक दीप सा जिसमे बाती सा मन जलता है ...शब्दों को आग में जलाकर 
भ्रम नहीं हो सकता ...संसार है मेरा सा ...
कफन की तलाश थी नहीं मिला ..और जनाजा भी नहीं उठने दिया तुमने
शब्दों की चिता ही जला देते मेरे चहू और ...
.....तुम ..हाँ ! तुम ...नहीं कर सके ये भी
अब जलना भी मुझे ही है ...खुद को बनानी थी खुद की चिता ....
नदी सा बहकर भी लहरों में डूबा मौत नहीं आई ..
आंसू लौटते कब है ठहरते है बस ..पसरते हैं सरहद पर
तुम्हे न पाना था न पाया ..
भला हुआ अधुरे से टूटकर ....बिखर रहे हैं ..
टुकड़े जोडकर पूरा होने का अटूट क्रम...
हमेशा सा ...वही एक शब्द ...क्रमशः...
और आगे बढ़ जाना तुम्हारा ..
बहुत खुश होगे तुम ..मुस्कुराओ ..मद्धम मद्धम ..अब ..
हर बार सिमटने की कोशिश में बिखरते हुए देख ..
मुकम्मल होने की चाह ......?
एक आवाज ...तुम्हारी सी सुनती है
बाकी ...सन्नाटा है मुझमे ...मैं कहाँ हूँ खुद ..
उड़ना चाहकर भी ...नहीं उडाता,
पंख लगा देता है किसी को भी ..
एक अँधेरे से रास्ते पर ...कदम बढ़ते से है ..मेरे
मालूम है ...यूँ तो ..तुम नहीं हो
बस रिसता है जो मुझमे एक रिश्ता ..
काव्यांजली ...है श्रद्धांजली नहीं थी वो .
तुमने ही नहीं चाह मुझतक आना ..या मुझे बुलाना
खुदा बनाना ..मानना..और खुदा होना
बहुत बार देखे है लोकलुभावन से इश्तेहार
नमी देखी होती ...चस्पा हुयी
बहती है मुझमे जो ...कदम उठते ही नहीं
सादगी तुम्हे भाति कब है हमारी ..
बाकी भाता है हर मंजर ..हम दिखाई नहीं देते
यथा ...गायब हो ..अंतर्ध्यान हुए से हम ..
कभी आवाज तो देते हमे ...
मन के थाल में रखे दीप की रौशनी में केसर रोली से तिलक कर देते हम
.- विजयलक्ष्मी 
मौत का पैगाम आ जाता मेरी काश ,
रूह तकसीन पा जाती मुकम्मल न हुयी जो नामुराद सी
.- विजयलक्ष्मी 

बयाँबाजी वाले धुरंधर बहुत मिले

नयन में जलते दीप सा जुगनू ..
उनवान वतनपरस्ती पलकों पे ठहरा क्यूँ 

ख्वाब देखना मना है आँखों को ..
पल मुश्किलात बोता है पलकों पे पहरा क्यूँ 

बरस, अब यूँ न सूख कर गुजर 
वजह न पूछ मुश्किलात पलकों पे सहरा क्यूँ 

नदी सा बहकर गुजर जा पत्थरों से 
क्या गहराई समन्दर..... पलकों पे गहरा क्यूँ

बयाँबाजी वाले धुरंधर बहुत मिले
बरस जाये गरजकर अँधेरा पलको पे गहरा क्यूँ
.- विजयलक्ष्मी 

काँटों से छलनी सीना है पर ...

सोच रहे हैं ...क्यूँ न आज शब्दों को बुन लूं ,
कुछ उधड़े से कुछ अधूरे से है धागे ,
कुछ रफू करने की फिराक में हूँ 
शब्दों की शब्दों पर ......
पहले ख्वाब बुना हमने ,दिल पर बीते अहसासों का |
अब कत्ल हुए शब्दों को लेकर ,
चीखों और रुदन से भीगे धागों का ....
लथपथ राह नजरों के आगे ढूंढ रही है रैन बसेरे 
हैं रात अमावस के धागे ,पूनम के ग्रहण लगे चंदेरे हैं |
दल बदलू दिल के कोने में कुछ तलवार चली थी खाली .
कुछ कटार सीने में घोपी, कुछ मन दर्पण पे कालिख सी
पाँव पसारे हाथ बाँध सपनों में कांटे सींच दिए ,
जाने क्यूँ फिर तुमने आकर ,
हाथों से सपने खींच लिए .......अब खून की होली है
माथे चढ़ती इंसानी रोली है |
आंसूं सूखे डर के कनारों पे पलकों की
आवाज दबी है रुदन की बौछारों में .....
काँटों से छलनी सीना है पर ...
फिर भी मुझको तो जीना है |
आशा के धागों को लेकर
वक्त की पांखों पर तलवार की धार पर ..
बुनना था ये स्वेटर -----------
अमीत जाने कब पूरा होगा .....?
जाने कब पूरा होगा ,,,,,,,,
,,विजयलक्ष्मी

फिर न कहना , आगाज ए कयामत

न पूछ मुझसे यूँ बार बार कयामत हों जायेगी ,
सोच ले इक बार फिर ये जिंदगी किधर जायेगी .
सोच ले..... 

यहाँ बहुत है जो तस्वीर के दीवाने हुए फिरते हैं ,
रुखसत जो खुशी हुयी, बारात ए गम किधर जायेगी.
सोच ले ....

डूब जायेगा सफीना भी जब कभी ,ए जिंदगी बता ,
टूटी पतवार लिए ,कि टकराकर तू भी किधर जायेगी .
सोच ले ....

मान जा कहना मेरा आज भी वक्त अभी काफी है ,
उतरी जो आसमाँ से सितारों की कसम सिहर जायेगी .
सोच ले ....

फिर न कहना , आगाज ए कयामत , यूँ मालूम न था,
लौटना मुश्किल न हों, कहीं मौत ए कब्र संवर जायेगी.
सोच ले .....
- विजयलक्ष्मी

Sunday 14 July 2013

ईमान सा जिन्दा रहने दे कहीं मुझको भी

हरे होते से वृक्ष काटकर सुखा रहा था ,,
दरकार थी बीज बोकर वृक्ष उगने की हमे भी 
गमले में पानी ओर खाद मेरे हिस्से था 
प्यास तो बादलों को लगती होगी सोचा ही नहीं 
चलो समन्दर भी बन जाऊं तुम्हारी खातिर 
खारापन शायद मुझमे पनपने लगा है आजकल 
वतन बन महकने की चाह में ...बमों से आग बरसती है 
घायल हूँ ...जख्मी हूँ ..नासूर बनने की कगार पर 
धर्म की राह में कर्मरेख पर आग ही आग दिखती है हर कहीं 
रमजान तौबा का मौका हुआ करता है सुना था
मुकम्मल सी मुख्तलिफ तलाश को ताकीद सी करती एक याद
गुमशुदा सी हुयी रंग ए बहारां की खुशबू ..लहू की नदिया सी
लाल लहू से रंगीन होती जमीन इंसानी जिस्मानी हिना के जैसी
ईमान तेरा मुकम्मल कहाँ है खुद में झाँक ले
मुझमे जलती है एक आग ...एक चिंगारी ..लपटों से बचकर रहना तुम
मेरे जनाजे पर भी ...आंसू न निकले ..हिचकियों से लबरेज याद की आंधी
उड़ जाये हर दरख्त औ दीवार किसी दिन गर
गिर गया पर्दा हया का किसी दिन गर
उठ गयी नजरे जानिब ए हुजुर गर
मरकर भी जी उठा मन फिर से गर
उदासी का रंग है ...अफ़सोस के बादल नहीं बरसे कभी
इन्सान मरते है कीड़ों मकौड़ो से ..कुत्तों को नसीब है मर्सिये फातिया
जन्नत ए दरकार ए दरकार वफादारी में हुस्न ओ जमाल सा नहीं ...बैगैरत हुए जज्बे
धरती का बोझ बढ़ रहा है अब तो हमसे भी
चल कुछ आसाँ हो जाये बोझ का उठाना गर ..
मन्दिर के घंटे से नब्ज के धारे धमक उठते है भीतर भीतर
उंगलिओं से उकेरी शाहदत पर एक नाम मेरा भी लिख दो
इंसाफ ...नाम है मेरा ..
हर गाँव कस्बा हिस्सा है मेरा
ईमान सा जिन्दा रहने दे कहीं मुझको भी .
.- विजयलक्ष्मी

हिज्जे हिज्जे टुकड़े ..टुकड़े भी टुकड़े टुकड़े

कभी खुद में गुजार मुझे उसी तरह ..
गुजरता है चीरकर दर्द ए लहर ए लहू सुनामी जिस तरह 
उबरता है ज्वार सा बह जाता उफनकर तूफानी जिस तरह 
गुबार मौत का धुंध व्याकरण की आचरण पर जिस तरह 
पर्दा ए वफा के भीतर टूटके गिरते हैं हर वक्त जिस तरह 
ठहरा सा पत्थर तराशने की दरकार ए इन्तजार जिस तरह 
सहर को सूरज चांदनी जिन्दगी का तसव्वुर चाँद संग उस तरह 
चीरते हुए टुकड़े देखे है कटे वृक्ष के हिज्जे हुए उस तरह 
चीख समाई है आत्मा में अंतहीना सी उस तरह
मिसाल क्या दूं क्या बिसारूँ ...
हिज्जे हिज्जे टुकड़े ..टुकड़े भी टुकड़े टुकड़े
क्या अणु...क्या परमाणु ..
कुछ है मगर क्या ...मुश्किल हुयी शब्द बयानी
बस अब बहुत हुआ ...ए जिन्दगी कहाँ पुकारूँ तुझे
ए मौत समा ले आगोश में ..
जुगत समझ में नहीं आती अब
मुझमे मैं ही नहीं ...कोई चीख नहीं समाती अब
लिपट जाती है छटपटाहट आत्मा में जिस तरह ..
न आवाज न साज...बस मद्धम सा टपकता एक अहसास
अनवरत ....अनवरत ...बस अनवरत ..
अब तक भी नहीं कह सके शायद ..जिस तरह ..हाँ उसी तरह
.- विजयलक्ष्मी 

सत्य मरता नहीं है ये सनद रखना ताउम्र

इस बार नहीं टूटेंगे ..
बहुत टूट चुके हम 
बहुत हुआ टूटना हमारा तुम्हे भाता है टूटना हमारा 
टूटकर बिखरना बार बार ..
मेरे हौसले को तोडकर बहुत सकूं पाते हो 
पंख कतरना मेरे हर बार हर रास्ते पर 
सीमाए बना देना हर किसी मोड़ पर 
लक्ष्मण रेखाओ में लपेटना ...टुकड़ों को मेरे 
हर टुकड़े को दूसरी दिशा में फेंक देना ..जरासंध की तरह 
पर ध्यान रहे तुम भीम नहीं हो ..
कृष्ण यूँ तो मिलते नहीं
...लेकिन इस रस्ते पर हर कोई स्वयम को कृष्ण से कम नहीं समझता
मगर हौसलों को तोड़ कर मुझे तोडना ...ये ख्वाब ही रहेगा ..
मौत का डर खत्म होने के बाद शेष क्या रहा
तुम्हारा हर प्रयास विफल ही होगा ..
दर्द अपनी सीमायें तोड़कर बहता है ...अब
कब गुजरेगा उस पथ से वक्त बतायेगा
काँटों को हमने चुन लिया है दामन में अपने
चुभने दो ...अब चैन बेचैन नहीं होता चुभन से
शबनमी से कुछ मोती बिखरते हैं लुडक कर .
अब गोलिया सरहद पर नहीं चलती ..
आग उगलते गोले फूटते हैं छाती पर ..छलनी करते से
सत्य मरता नहीं है ये सनद रखना ताउम्र ...तुम भी
..- विजयलक्ष्मी

कोई चीख नहीं समाती अब

कभी खुद में गुजार मुझे उसी तरह ..
गुजरता है चीरकर दर्द ए लहर ए लहू सुनामी जिस तरह 
उबरता है ज्वार सा बह जाता उफनकर तूफानी जिस तरह 
गुबार मौत का धुंध व्याकरण की आचरण पर जिस तरह 
पर्दा ए वफा के भीतर टूटके गिरते हैं हर वक्त जिस तरह 
ठहरा सा पत्थर तराशने की दरकार ए इन्तजार जिस तरह 
सहर को सूरज चांदनी जिन्दगी का तसव्वुर चाँद संग उस तरह 
चीरते हुए टुकड़े देखे है कटे वृक्ष के हिज्जे हुए उस तरह 
चीख समाई है आत्मा में अंतहीना सी उस तरह
मिसाल क्या दूं क्या बिसारूँ ...
हिज्जे हिज्जे टुकड़े ..टुकड़े भी टुकड़े टुकड़े
क्या अणु...क्या परमाणु ..
कुछ है मगर क्या ...मुश्किल हुयी शब्द बयानी
बस अब बहुत हुआ ...ए जिन्दगी कहाँ पुकारूँ तुझे
ए मौत समा ले आगोश में ..
जुगत समझ में नहीं आती अब
मुझमे मैं ही नहीं ...कोई चीख नहीं समाती अब
लिपट जाती है छटपटाहट आत्मा में जिस तरह ..
न आवाज न साज...बस मद्धम सा टपकता एक अहसास
अनवरत ....अनवरत ...बस अनवरत ..
अब भी नहीं कह सके शायद ..जिस तरह ..हाँ उसी तरह
.- विजयलक्ष्मी 

Sunday 7 July 2013

फिर बिखर जाते है

समेट लेते हैं 
बिखरे से अहसास 
किन्तु 
फिर बिखर जाते है 
खुद भी 
समेटते समेटते अक्सर ही 
इन्तजार ...
कितना लम्बा 
नहीं मालूम 
लेकिन ..
मेरे हिस्से में
यही है ..
कभी प्रश्न बनकर ,
परीक्षा सरीखा
कभी समीक्षा की मीमांसा सी
कभी क्षणिक सा,
कभी उम्रभर ..
उन्ही पलों में रुक
....
समय बेल
पुष्पित है
अजब से पुष्पों से
काँटों से उभरकर ..
खराशों पर
चिन्हित
खून के धब्बे
है यहाँ
....
हत्यारा तू
भगवान क्यूँ
और
मरने के बाद भी
बेचैन
मन...?
सूरज को पुकारो..
!!- विजयलक्ष्मी 

जन्मा भी यही खाया भी यही

वन्देमातरम की आवाज सुनकर क्यूँ कान बंद और जुबाँ चिपक जाती है तालू से 
एक बार दिलसे बुलंदी पर लेजाकर बेबाक होकर बोल तो सही 
खौफ न रहेगा मादरे वतन के नाम से सुकून मिलेगा दिल को 
शर्त यही है एक ही ... नमक खाया है तो हलाली करके देख तो सही
जन्मा भी यही खाया भी यही ..गया क्यूँ नहीं बता तो जरा 
एक बार दिल से आरजू ए वतन में कलमा ए वतन जोड़ तो सही 
मस्जिद भी वही मन्दिर भी बने रस्म ए रवायत भाई सी 
चल मान लेंगे अपने दिल से बीज नफरत के बाहर छोड़ तो सही 
सींच रिश्ते को लहू देकर तू लहू लेकर सींचने पर आमादा 
बम बंदूक लेकर डराता है किसे ...तू बचेगा भी तो राज करेगा किसपर सोच तो सही
.- विजयलक्ष्मी 

सपने तो थे आंख में

सपने तो थे आंख में  
वक्त के बीतने का गम ज्यादा था 
सब बह गये वक्त की धार में 
कश्ती भेजी नहीं तुमने ..
सवार होते भी कैसे ...सब गीले होकर पलकों पे जम गये 
कट गयी नयन में रात सारी ..चाँद सूरज की क्या कहे 
...........कोई तारा बी नहीं था साथ हमारे ...
..........गुजरी कहूं कैसे वो रात जिसकी सुबह नहीं मिली मुझसे 
...शब्द तिरे ...डूबे ..बिफरे ..बिखरे ..फिर खो गये मुझमे ..
तुम्हे न आना था न तुम आये ...मगर ...
इम्तजार न गया ...मेरे पास से उठकर ..
कोई नहीं सोया ...सिवा तुम्हारे ..
हमने पाया ...बिखरे से ख्वाब में लिपटा इम्तजार ..
वो भी तुम्हारे लिए छोड़े जा रहे है ..
जरूरत हो अगर ...रख लेना .
लौटा देना फेकना मत ....उसे ..
इन्तजार को भी इन्तजार रहता है वक्त का जो समझे उसे
उसी इंतजार में है ...
सपने तो थे आंख में
वक्त के बीतने का गम ज्यादा था
सब बह गये वक्त की धार में
कश्ती भेजी नहीं तुमने ..
सवार होते भी कैसे ...सब गीले होकर पलकों पे जम गये
.- विजयलक्ष्मी 

......... मेरे और तुम्हारे दरमियाँ

तुम जिन्दा हो उठे और
मैं ..
जिन्दा होने के लिए तुम्हारा इंतजार किये था 
तुमने आवाज न लगाई और ..
मैं ..
जिन्दा होता तो भला कैसे
.- विजयलक्ष्मी 




काश ये रात यूँही ठहर जाती आँखों में 
तुम नहीं जानते ...इनमे तस्वीर चस्पा है 
और आंसूओ से धुल न जाये कहीं 
वो रंग अपनी रंगत न बदल डाले को भर दिए है वक्त ने...
......... मेरे और तुम्हारे दरमियाँ
.- विजयलक्ष्मी 




रात की स्याही बहुत बढ़ रही है 
याद की नदी में उतरकर पूरी रात खड़े रहे हम 
मगर वक्त रुकता किसके लिए है 
तुम अपनी जरूरत पर घोड़े पर सवार होकर चले गये 
पिंजरे का पंछी ...बैठकर देखता रहा सैयाद की राह 
शिलालेख से तुम धन बरसाते हो और हम खुद को
.- विजयलक्ष्मी 

तुम बेहतर जानते हो मुझसे

आस की डोर नहीं टूटने दी 
मेरे टूटने से क्या फर्क पड़ता है भला 
टूटकर बिखरते रहे हम लम्हा लम्हा 
छनकर बिखरते थे सिमटने की दरकार में..
तुम्हे ....फर्क पड़ता है ! ...अच्छा ..
नहीं मालूम था ...या मालूम था 
इसीलिए बिखरते थे हम रह रह कर ..
तुम बेहतर जानते हो मुझसे ...मुझको भी
.- विजयलक्ष्मी 

चलो छोड़ दो अकेले अब हमे

माँ की ममता मजबूर होती है समाज के सामने 
बेटे का प्यार तो मजबूर नहीं था 
उन्हें पर्दे की इतनी आदत थी की हम बेपर्दा हुए कई बार 
अब तो बेटे का प्यार ज्यादा मजबूर दिखता है हमको ..
चलो छोड़ दो अकेले अब हमे ..बहुत जरूरत है अब
- विजयलक्ष्मी 

सबसे महंगा बिका नेता का ईमान

देश जल रहा है
भूख बिखरी है सडकों पर 
पानी को मोहताज है सब लोग 
कोई देह को चीर रहा है निगाहों से 
किसी को रतौंधी का प्रकोप हुआ है 
वो खफा है यहाँ सबसे 
कुछ ईमान बिक रहे थे एक दूकान पर 
सबसे महंगा बिका नेता का ईमान 
और कोडी में बिक गया इंसान 
मोल लगता कैसे ..जनता सस्ती है ..
बिकती है
पिटती है
मरती है
खपती है
इलैक्शन में फिर पचास रूपये एक साडी और बोतल में रख देती है
अपना भविष्य ..
जीवन का विशवास
सारी आस
और ..खुद को भी
.- विजयलक्ष्मी