Monday 29 August 2016

" तेरे लिए खुद ही तेरा नजराना हुआ फिरता हूँ "

" दीवानगी बताऊँ क्या मस्ताना हुआ फिरता हूँ
न हो मुलाक़ात उनसे दीवाना हुआ फिरता हूँ ||

बेख्याली है कि बारिश में भीगता फिरता हूँ
बरसते है बादल जब मस्ताना हुआ फिरता हूँ ||

ख़ामोशी सी छा गयी अनजाना हुआ फिरता हूँ
लगने लगा है खुद से ही बेगाना हुआ फिरता हूँ||

लिखा न जा सके वो अफसाना हुआ फिरता हूँ
फितरत से आजकल शायराना हुआ फिरता हूँ ||

ए जिन्दगी तू कहीं फिर से आकर मिल जा ,,
तेरे लिए खुद ही तेरा नजराना हुआ फिरता हूँ ||"
------- विजयलक्ष्मी

..
" अमीर दौलत जोड़ते ,गरीब ढोता लाश ,
विलसित नेता जी हुए, कौन करे प्रकाश ||
चीख-पुकार मची हुई,बाढ़ से परेशान ,
कहो पार कैसे बसे, मच्छर भी हैवान ||
जलथल सारा एक हुआ ,एक दिखे आकाश,
श्मशान तक गायब हैं, सडती मिलती लाश ||
बढ़ी बाढ़ को देखकर,जनता करे पुकार ,
नेता लालू कह रहे, हो गंगा सत्कार ||
बाढ़ राहत योजनाये ,चढ़ी बहुत परवान ,
जनता भूखी मर रही,रोता मिला किसान || "  ——– विजयलक्ष्मी

Wednesday 24 August 2016

25th ...अगस्त " तेरी नजरों ने कुछ ऐसे छुआ था मुझको "

श्री कृष्ण-जन्माष्टमी की बधाई ,,
जपे राधा जपे मीरा ,,दिवानी वो कन्हैया की ,,
कभी यमुना किनारे पर कभी डारन बसैया भी ,,
कभी गोपी रिझाये वो, कभी ममता सताये वो ,,

गजब धेनू चरैया वो ,,वही मुरूली बजैया भी ||
---- विजयलक्ष्मी



काश ,
तनुज दनुज न होते ,
माँ के यूँ आंसू न बहते ...
जो बुढा गयी लहू पिलाकर जतन से,
उसकी खातिर आश्रम न होते,
पिता ने तो कभी डाटा भी होगा..
सच कहना ,,माँ ने कब ममता गिनाई
खेत गाँव घर बेच शहर में रहता सपूत
माँ के अहसास समझता गर..न गंगाजल काला होता
न यमुना बदबू फैलाती ,,
गाँव के तालाब में भी अब मछलियाँ नहीं तैरती ,
कूड़े के ढेर सी मानसिकता...माँ को तो मुकदमा करना चाहिए ,
कीमत वसूलनी चाहिए...सन्तान के स्वार्थ से,
तनुज दनुज न होते
माँ के यूँ आंसू न बहते ...
जो बुढा गयी लहू पिलाकर जतन से,
उसकी खातिर आश्रम न होते,
----- विजयलक्ष्मी




नहीं चाहिए तुम्हारी झूठी सांत्वना 
नहीं चाहिए तुम्हारे धन की गठरी 
नहीं चाहिए तुम्हारी सियासत 
न तुम्हारी कमाई अपनी विरासत 
तुम्हे जो चहिये ले जाओ ..बहुत प्रेम है निस्वार्थ भाव लिए 
मैं नदी हूँ ...बहती हूँ किनारों की मर्यादा में
मैं तडपकर भी अपने जल को गरमाती नहीं हूँ
मैं किसी को प्यासा कब रहने देती हूँ
जब जिसने चाह स्नान किया दिखावे का तप और दान किया
स्वार्थ पूर्ति हित झगड़े किये तलवार निकाली
देश की सीमाओं की तर्ज पर धर्म की सीमाओं में बाँध दिया
तट से बंधीं मैं सरहद की तर्ज पर धर्म की सीमाओं में बाँध दिया
मुझे खूंटे से बाँधने की चाहत लिए तुम ..नाव लिए उतर पड़े
हर बार मेरे मुहाने आकर नहर नहर कर मेरे टुकड़े किये
शव भी जलाये तुमने ...घरौंदे भी मिटाए
मैं चुप थी हंसती रही ...तुम्हारी ख़ुशी की खातिर
चलती रही खामोश हर दर्द को खुद में समेटकर
तुमने स्नान ही किया होता तो अच्छा होता ,, लेकिन
तुमने मुझमे छोड़ा ...तन का मैंल ...मन का छोड़ते तो अच्छा होता
तुमने जोड़ा लालच अगले जन्म का ..इस जन्म को पवित्रता से जोड़ते तो अच्छा होता
तुमने छोड़े तन के मैले कपड़े तट पर मेंरे ..
तुम मन को शुद्ध करते मुझमे नहाकर तो अच्छा होता
मैं इंतजार में रही ...तुम समझोगे कभी तो ..
तुम चुप रहे महसूस करके भी ..मैं भी खामोश बहती थी
पूछोगे कभी हाल ...दर्द को समझोगे मेरे
झांक सकोगे रूह में ,,बाँट सकोगे स्नेह को ,,
लेकिन नहीं ..तुम अपनी धुन में.. अपने विचार ..अपनी मनमानी
जानते हो ये सत्य भी मरने के बाद नहीं लौटूंगी कभी ..
क्या इसीलिए जतन से मार रहे हो मुझे !
कर रहे हो मुझे गधला ..भर रहे हो अनाचार की परिभाषा
खत्म कर रहे हो जिन्दगी की आशा
जिन्दा रहने के मेरे प्रयास असफल कर रहे हो तुम
याद रखना ..हर गंदगी मेरी आयु कम कर रही है वक्त से पहले
मैं गंगा हूँ ...गंगा ही रहूंगी अंतिम साँस तक
तुम दनुज हो जाओ तो... तुम जानो 
-------- विजयलक्ष्मी


शब्दों को रहने दो ,
शब्दों में कुछ नहीं,
छल कर सकते हैं
गर जीना है जिन्दगी की तरह ,
अहसास को जियो जिन्दगी की तरह .
------ विजयलक्ष्मी



जिसकी नजर में है उसीसे नजर छिपाए भी तो भला कैसे,
झूठ है सच गुनाह या पाकीजगी बताये भी तो भला कैसे ,
------------ विजयलक्ष्मी




उफ्फ ! ये बिजली के बिल और नेट के किस्से ,
तन्हाई की बात और अँधेरे के किस्से ,
मुई, जब देखो चली जाती है छोडकर ,
समझती नहीं ,कितनी जिंदगी ,..
जिंदगी और मौत के बीच लटक जाती है 
अस्पतालों में ,स्कूलों में ,मेट्रो स्टेशन पर ..
रेलवे स्टेशन पर ....कभी कभी तो जंगल के बीच वीराने में ...
और बिल के तो क्या कहने ...
बिजली जले न जले देना जरूरी है ,.
कहो न कोई सरकार से कभी तो माफीनामा किया करे ...
राहत राशन पर ही है .., बिना राशन वालों को भी दिया करे ..
हमारी सुनती कहाँ है ..
लगता है धरना देना पडेगा
अन्ना की तरह या बाबा की तरह ..
कल की बात लो ...पूरे पांच घंटे सर्वर गायब ..
स्वतंत्रता का जश्न और ....उसपे सब गायब ...
गजब ...किस्से कहानी ,फिर मेंहमानों की लम्बी लिस्ट ...
और जिंदगी की कहानी का ट्विस्ट ...
पर वो भी अच्छा है ...कभी कभी होना चाहिए ..
पता लगता है , हम कहाँ है ...
जिन्दा है या मर गए है ,
इसके लिए तो शुक्रिया कहना ही होगा..
अभी हम जी रहे है...सांसे है बकाया कहीं कहीं पर. 
-------- विजयलक्ष्मी


.
रखकर तस्वीर गुनगुना लो न हसीन यादो को ,
गुल बन खिल उठोगे जीकर उन अहसासों को 
------ विजयलक्ष्मी


.
चंद चांदी के सिक्कों में आजकल ईमान बिक रहा है ,
हमे दरकार वफा की रहे भला क्यूँ जब प्यार बिक रहा है.


आकर हर लम्हा मेरा इम्तेहान सा लेते है क्यूँ जहां वाले
बहुत रुसवा हुए ,बेमोल बिक गये थे अब दाम लग रहा है


हमने तो नहीं माँगा था खुदा से ईमान से अलग कुछ भी 
है किसका जमीर जिन्दा ईमान भी कोने में सिसक रहा है


गुनाह कर बैठे है लगने लगा हमको भी इस मुकाम पर 
न रहमत न तमन्ना ए जिन्दगी लूटलो ये जहां लुट रहा है .


दरयाफ्त नहीं ए जिन्दगी हमे तमन्नाओ को मार डालेंगे 
खुशियों के मेले मुबारक,देखो एक ख्वाब फांसी लटक रहा है.

------ विजयलक्ष्मी

.
देह नौचती आँखों से खरौंची गयी आत्मा लिए 
चलती हूँ जिन्दगी की बीहड़ गली में 
नंगे पांव तीक्ष्ण धुप से जलती ताम्बई देह लिए 
कर्म पथ पर चलती जा रही हूँ ..
नयन पट पर ख्वाब सजाऊँ भी गर ,,किसके लिए 
दर्द के संग भी मुस्कुराये जा रही हूँ .
हमे मेहनत से डर नहीं लगता साहिब
डर होता है ...मान का और इल्जाम का 
--------- विजयलक्ष्मी


ईमान पर टिकी हो दुश्मनी दोस्ती पर भी भारी होती है ,
दिलों में झांकते नहीं कहते है दुश्मनी अच्छी नहीं होती हैं.
------- विजयलक्ष्मी

.
जो बिक जाये वो प्यार नहीं जो मिट जाये इकरार नहीं ,
मौत का परचम लहराए,जो रूह के घरौंदे का इसरार नहीं.
------- विजयलक्ष्मी

.
काश ,झगड़ा नल और पानी का ही होता ,
ईमान और जान का नहीं ...
जिसे देना हो सरकार दे दे उसे वैसे भी बिकाऊँ सरकार का कोई कर भी क्या सकता है 
राशन क्या सिंदूर भी बाँट दे तो भी क्या फर्क पड़ता है 
उन्हें तो मौज और घोटालों की दरकार है 
यहाँ वैसे भी भगत को आज तक शहीद घोषत न किया
आतंकियों के लिए जेल में बिरयानी की पूर्ती होती है
और फिर सरकार आतंकवाद को लेकर दिखावे के लिए रोती है ,,,
क्यूँ आते हो लौट कर और आवाज लगते हो उस छोर से
जिसे छीनकर और फिर उसपर दिखाकर खाने की आदत हो उसीके नाम पर अख़बार भी छाप लो
हमे भूख से मर जाने दो ..या राशन की लम्बी लाइन में गश खाकर गिर जाने दो
हमे अख़बार की खबर नहीं सच की राह पर शहादत का शौंक चर्राया है
पानी ...देदो नल को कहो बहे खूब जिसे दरकार हो उस तरफ ..
हमे नहीं पीना उस दरिया को जहाँ खारापन आ चुका हो
मरना ही लिखा है तो ईमान से तो मरे कम से कम ..
सनद रहेगा हर जलती मोमबत्ती की तरह ..
एक स्मारक बना लेना किसी कोने मे पूण्य तिथि मनाने के लिए
कलेंडर चस्पा देना लिखकर जन्मदिवस ..
साल में दो दिन बहुत होंगे ..माल्यार्पण के लिए हमारे
जनता तो इतने पर भी खुश है बहुत खुश .
लगाओ बोली और खरीद लो बिकाऊ माल को
वैसे भी पैसा गिर रहा है आजकल नेताओ के गिरते ईमान की तरह 
------ विजयलक्ष्मी

दुनिया का हर रंग भाता है उन्हें, मेरे सिवा 
दुनिया खूबसूरत लगती है बहुत होकर मुझसे जुदा 
------- विजयलक्ष्मी


ख़ामोशी जब चीखती है खामोश जुबाँ में ..
सच मानो.. शोर के भी होश उड़ जाते हैं 
------ विजयलक्ष्मी


माना गुल गुलिस्ताँ में महकते है बसंत आने पर एक सच ये भी है कागज के फूल मुरझाएंगे नहीं 
------- विजयलक्ष्मी

नन्दन पढ़ी है कभी अपने ..आज बहुत याद आई वो किताब बचपन में बहुत पढ़ी है और एक चम्पक भी जिसमे जितनी भी कहानी होती थी चम्पक वन की ही हुआ करती थी ...जिसमे शेर शेरनी , गीदड़ सियार बन्दर लंगूर गधे खच्चर ऊंट आड़ी की कहानी ही बहुतायत से लिखी होती थी ..कभी कभी चोरी से भी पढ़ लेते थे ..उसी बचपन की तरफ ले चलती हूँ और सुनाती हूँ एक कलयुगी जंगल की कहानी ...हो सकता है कुछ अजीब सी लगे क्यूंकि कहानी लिखने की आदत नहीं है सिर्फ एक प्रयासभर है ये ..
एक घना जंगल था जिसमे एक शेर रहता था ,निरंकुश शासन था उसका |उससे सभी बचकर चलते और सभी उसके सामने सर झुकाते थे ...मजाल कोई कान भी फड़का दे भला ..एक राजा का जैसा खौफ होना चाहिए था ठीक वैसा ही था
उसी जंगल में एक शेरनी भी रहती थी |थी तो वह भी शेरनी ही तो उसके जलवे कम कैसे होते भला ...सम्भवतया उसमे शेरनी वाले यथोचित सभी गुण मौजूद थे .. और इन्ही गुणों के कारण उस पर एक दिन शेर की नजर पड़ गयी ...सीधे बात कैसे करे आखिर शेरनी जो ठहरी ...न जाने कब किस बात पर बिगड़ जाये ...बहुत सोच समझकर एक जाल फैलाया ..और राजा कहे भी तो कैसे .... या कहूं .... दिल से हारे तो सब हारे वाली बात चरितार्थ हुयी ..|
वही एक मादा सियार भी रहा करती थी ..सच कहूं तो रहती तो वो शेर के जंगल में ही थी लेकिन कभी उसकी हिम्मत न हुयी थी शेर से आँख मिलाने की ..जब से शेर को शेरनी भायी और ये भनक उस सियारिन को लगी वो तुडफुडाने लगी ...उधर शेरनी ने अनेक बार पूछा लेकिन शेर तो अपनी धुन में था जैसे उसे कुछ समझ नहीं आया था उसे तो शेरनी की दरकार हुयी तो बस हुयी ...धीरे धीरे शेरनी को बात समझ आई और वो शेर को बहुत प्यार करने लगी ...सम्भवतया खुद से भी ज्यादा इसी बीच शेर के भेजे विवाह सम्बन्ध को स्वीकार कर दोनों ने विवाह भी कर लिया ...और मानव जाति की तर्ज पर करवाचौथ का व्रत भी रखा ...और ख़ुशी से रहने लगे ..लेकिन विधना का लेखा कहूं या शेरनी का अँधा विश्वास ...या फिर सियारनी की चाल ..उसने शेर पर डोरे डालने शुरू कर दिए क्युंकी उसे शेर के भीतर उठते मुहब्बत के जज्बात नजर आने लगे ...अब शुरू हुयी उसकी बेंतेहा मुहब्बत दिखाने की कवायत शुरू ...शुरूआती दौर में कुछ अजीब सा जानकर शेरनी ने शेर को आगह भी किया ...किन्तु शेर ने ये कहकर टाल दिया शेर शेरनी से ही प्रेम करता है चुहिया के च्यवनप्राश खाने से वो शेरनी नहीं बन जाएगी ...वंशबेल तो शेरनी से ही बढनी है ...,उस सियारिन ने खुद को अलग अलग रंगों में रंगना शुरू किया और शेर के सामने जाकर प्रणय नृत्य किया ...अब प्रेम का आनन्द चख चुका शेर ये भूलने लगा की वो शेर है और उसके सामने ये प्रणय नृत्य करने वाली कौन है
सियारनी ने शेरनी से दोस्ती की उनकी संगत करने लगी और धीरे उनके घर में सेंध लगाने में आखिरकार कामयाब हो ही गयी ...वो बस एक ही काम करती है आजकल शेर को रिझाने का और शेर उसपर रीझने का ...किन्तु क्या ये सम्भव है ...शेर और सियारनी लगता तो कुछ ऐसा ही है जिसे शेर ने कभी चुहिया कहकर समझाया था उसने शेरनी को हरकते दिखानी शरू की और शेर को मोहजाल में .............|अब उसे शेरनी से कैसी दरकार मतलब के लिए बढ़ाई गयी दोस्ती अब दुश्मनी में तब्दील हो गयी अब दोस्त नहीं दुश्मन समझती है शेरनी को और एक लंगूर को कहा जाओ शेरनी पर नजर रखो ..उस लंगूर ने भी उसका कहना माना और अक्सर शेरनी के घर आने लगा ..आता तो चोरी से ही था किन्तु पैरों के निशान छोड़ता था शिनाख्त के लिए |
उस सियारिन को चटाया गया च्यवनप्राश ही उसे उकसाने लगा और एक दिन वह सच में शेरनी के रंग में रंग कर शेर के सम्मुख आ खड़ी हुयी ..शेनी के समझाने का असर अब क्यूँ और किस पर ..अब तो शेर को सियारनी इतनी अच्छी लगने लगी कि शेरनी को समझाने लगा उसे भी अपने घर में ले आये ...शेरनी तो शेरनी है जौहर कर सकती है सदमे में मर सकती है ....वाह तो रखैल बन कर भी रहने को तैयार है ..यदि ये भ्रमजाल है ....तो ऐसा व्यवहार क्यूँ किया सियारनी ने ... अगर सच है तो .. वो उस सियारनी के साथ चला जाये ....छोड़ दे उसे उसके हाल पर ...यद्यपि उसे मालूम है शेरनी उसके बिना मर जाएगी ...फिर भी उस सियारनी का फैलाया जाल मजबूत हुआ ...आज तक भी शेर उसे कहता है हिस्सेदारी को ...लेकिन शेरनी किसी के द्वारा मारा हुआ शिकार नहीं करती ..यद्यपि सियारनी ...शेरनी के मारे हुए शिकार पर ही जिन्दा रहती है और आज उसी के घर में बैठी है ....शेर भी शायद अब शेर नहीं रहा ...न जाने क्यूँ लगता है वो भी अब सियार होता जा रहा है शायद ....|सबकुछ बदल रहा है ...और जिन्दगी मौत की तरफ चल रही है शेरनी की ....शायद उसके बाद ही सम्भव हो सकेगा सियारनी और उस शेर का सम्पूर्ण मिलन ...कलयुग है ...किन्तु क्या ऐसा सम्भव है ...अगर वो सियारनी नहीं शेरनी है तो उसने पीछे से वार क्यूँ किये ...सामने आने से कतराती रही और पीठ पर छुरा क्यूँ घोपा ....क्यूँ लाग लपेट की बाते की ....बहुत सारे क्यूँ छिपे हैं और कलयुग की बेला चल रही है न जाने क्या हो जाये ..!.काश ....सबकुछ भ्रम ही हो शेरनी का और शेर फिर शेरनी के साथ जी सके पूरी एक खुशहाल जिन्दगी ...
क्यूँ दहकता है कोई किसी और के सूरज से भला ,
क्यूँ नहीं बनाता अपना अपना सूरज अलग से भला ,
क्यूँ छुरा लिए फिरते है दोस्त ही दोस्त की खातिर यहाँ
पीठपर क्यूँ ,नहीं भौकते उसे सीने पर करके वार भला
सच ही सुना अब ईमान बिक गया है इंसान का शायद
सोचते है अब ,कैसे बेचेंगे हम भी अपना जमीर भला . - विजयलक्ष्मी
अंत समझ नहीं आ रहा कैसे करूं इस कहानी का आप मदद करेंगे हमारी ...सतयुग आएगा या नहीं ....?





तेरी नजरों ने कुछ ऐसे छुआ था मुझको
वो अहसास ए छुअन आज भी बाकी है
तेरे चेहरे को जब जब देखा हमने
आईना ए दिल झलक आज भी बाकी है
दूर रहकर भी प्यार किये जाते है तुम्हे
तुमसे जुदा होने की कसक आज भी बाकी है
तेरा अहसास समाया है कुछ ऐसे मुझमे
दरके हुए दिल में ललक आज भी बाक़ी है
तुम्हारी मिलने की दुआ से अनजान हूँ
आँखों में दीदार ए हसरत आज भी बाकी है-
------- विजयलक्ष्मी

Tuesday 23 August 2016

23 अगस्त ....|| "प्रेम वासना होती है तो मीरा पागल थी सच है ,"

10.
क्यूँ समस्या बनी रहे और आंच जलती रहे
राजनीतिक रोटियां अच्छी सिकती रहे ?
इस राजनैतिक रोटियों के जमावड़े में कहो
वतन की जमी टुकडो में क्यूँकर बंटती रहे ||

सिसको ...सिसकना पड़े चाहे जिसको ..
ये धरती किसी स्वार्थी की बपौती नहीं है
देश के लिए करे और स्वावलम्बी बने ,,
खैरात मिले क्यूँकर मंजूर पनौती नहीं है ||
------ विजयलक्ष्मी




सहर को सलाम कर ली जाये ,
रौशनी कि किरण धरा को छू रही है ,
महकते गुलों से नयनाभिराम दृश्यों को देख ....
जिंदगी को समय की चाल के साथ चलने दे ..
न मिला उसमें तृष्णा को ,न बैरभाव को ..

सम्भल चल सफर यूँ ही कटेगा छाँव में ..
प्रकृति को छूने चाह न रख ...निहार और खुशियाँ मना ,
नाजुक होते है रेशम से भाव बहने दे बस ...
उनको चलने दे यूँ ही इस छोर अनजान सा ...
डर है न टूट जाये घरौंदा कोई गर तुफान आ गया ..
सोच क्या वो मंजर क्या होगा ,...सहन कर सकेगा क्या ..
जीवन की राह पर सब हाथ में नहीं ...मगर साथ में तो है .
.------------विजयलक्ष्मी

2.
मुझ पर न सही खुद पर भरोसा कर ,
जिंदगी को साथ में ही देखा कर ..
मुश्किल है मिलना सब कुछ जहाँ में ,
जो मिला है उसमे ही रौशनी को भी देखा कर,
बता क्या आ जाये निकलकर बाहर बात फिर ...सोच ??

तमाशा होंगे और जमाने का रंग देखना ..
देखना उड़ता धुआँ और कलिखों का रंग देखना ..
उड़ते गुबार और जालिमों का ढंग देखना ..
बयाँ बजी का निराला ही ढंग देखना ..
बता बोल दूँ ...सोचता क्या है बोल अब ..
चल थोडा सोच कर ही बोलना ..
जो बोलते नहीं ....अभी ...अखबार छाप डालेंगे ..
हर बात का अपना अलग मतलब निकालेगे ..
शांत मना होकर चलो ..रे मन ..
दुनिया इसी का नाम है ...रे मन .
.--------- विजयलक्ष्मी

3.
न्याय मंदिर का देवता ,सुना है बिक चुका है ,
और परेशां हाल है अब उसका पुजारी ..
किसने खरीदा है ,
मालूम तो कर लो ..खबर सच है क्या ?- विजयलक्ष्मी

4.
शुक्रिया दोस्त और दोस्ती पर भरोसा..
हम तो समझे थे भरोसा उठ चुका है ,

बसने से पहले ही बस्ती के गाँव लुट चुका है 
इतना तो बहुत है की जिंदगी बाकी है ..

.दोस्त और दोस्ती भी तेरी अपनी ही है ..----------विजयलक्ष्मी


5.
तपती धरा पर कदम जो चल चुका हों ...
जानता है हर हकीकत को अंदर तलक ..
क्या हुआ गर आज महलों की बारी है ..
हर इंसान कुछ जगहों पर यूँ भी भिखारी है ..
मापता जिंदगी भर कदमों से दूरी ..
कहाँ तलक पहुंचा क्या माप दी धरती पूरी ,
रंग बीजों में छिपा उसके ही भीतर ...
सहरा में ही खिलेगा या खिल सकेगा गमले की रेत पर ..
बोनसाई हों गए मनुज अब ..
इसलिए रंगत लिए खिलते मिलंगे गमले सी देह पर
.----------.विजयलक्ष्मी


6.
धरा कम लगने लगेगी इंसानी विस्फोट से 
सोच पौधों की कमी कैसे पूरी होगी जनसंख्यां की चोट से 
जब जमी बाकी न होगी ,दुनिया अधूरी सी लगेगी ..
साँस की मजबूरियाँ कैसे बता पूरी होंगी ..
सभ्यता की दौड में खुद को इतना बेबस न कर ..
तीलियों में आग कितनी ,आकार से शख्शियत की माप न कर ..
सोच धरती की साँस पूरी गमलें ही तो कर सकेंगे ..
गुण तो सारे वृक्ष के ही ,,,,आकार कैसे धर सकेंगे
नीम का दरख्त भी खोने लगा ...बरगद तो बरगद है ,
बोनसाई से उनके बीज को तो बचा ..
काट डाले है धरा से वृक्ष कितने मानवों ने ,
शर्म आती कहने में इंसान , कर्म उनके दानवों से ,
क्या करे अब तुम ही कहो ,वक्त वक्त की बात है ...
कभी जिंदगी है चाँदनी सी औ कभी काली रात सी सौगात है
.-- विजयलक्ष्मी


7.
"wo katl ki raat mere,
neend aankhon ko chhoo bhi na saki,
laut gayi pawan bhi chhookar badan ko,
pasar gaya sannata........
bheetar bahar har taraf,door talak,
jhini si chadar faili thi,
yahi dekhna hai kitni majboot hai dor?
dono chhoron ko bandh kar baithi hai jo,
jeevan ,sans,ahsaas sabhi kuchh daanv par hai.
waqtn hi jawab de payega,
main zinda hoon abhi talak ya.........
maut ki lambi bahen pasar chuki hai meri taraf?
ya prem ki majboot dor mujhe bacha le jayegi.............
apne sath aur..........
wazood kayam rahega mera........
aur main duniya dekhoongi........
kya kokh se nikal kar??????????
[WBM]
YE MAJAAK NAHI HAI AAJ BHI HAQIKAT HAI
.... SOCHYEGA JAROOR........

8.
अभिव्यक्ति क्या दर्द ए दिल है ..
काश छंद को आता दर्द को बांधना ..
श्रेष्ठ होता वही जो दिल में उतर जाए...
काश शिकायतों से काम हों जाता ..
अल्फाज मगर कम थे ,
अपनापन दरों पर लावारिस सा खड़ा मिला ...
है पानी की दरकार ....
प्यास तो खुद भी है उसमे .....
घूंट घूंट की खतिर हुए है सब बेजार .
तृष्णा है सब ,ख्वाहिशें दर्द का सबब ..
आत्मिक संतुष्टि की दरकार रही मुझे ..
देह डुबा देगी नेह उतरेगा ,जाना है उस छोर ..
छोड़ कर सब न बहक ,
सत्य की खुशबू सा यूँ महक ...
अम्बर सा एक दिन तेरा अपना वजूद होगा
.------ - विजयलक्ष्मी

9.........(23/8/14 )
प्रेम वासना होती है तो मीरा पागल थी सच है ,
क्यूँ प्रेम की देवी बताकर बरगलाते हो औरत को
अचानक लगने मुझे मंजिल खो गयी मेरी ओझल आँखों से है 
कदम लडखडाये क्यूँ ,इस मोड़ पर आये क्यूँ ..
देह का ये छोर मुझे छोड़ता क्यूँ नहीं ..

हे श्याम ..तू भी कुछ बोलता नहीं .
मीरा बदनाम सही थी ..जहर के प्याले की सच्चाई झूठी हुई कैसे
नागपाश को पहना था तो मीरा बची कैसे ,
कोई तो राज होगा इसमें भी ..
ये भेद किसको मालूम था कोई तो था एसा जिसे मालुम हर सच था
मदद कोई तो करता था ..छुप छुप मीरा पर मरता था ..
जिन्दा रहे मीरा हर उपाय करता था .
मीरा न हो घर में किसी के इसीलिए इंसान आज भी डरता है ,
इसीलिए अध्यात्म किताबो मेंरखकर .. देह से प्यार करता हैं .
हम गलत साबित हुए ...चलो फिर रुखसती पक्की ..
तुम देह के पुजारी हो ..हमे कब्र लगती है रूह की अपनी
तुम्हारी आवाज तुम्हारे शब्द ललकारते रहे मुझको
रूह खिचती थी मुझको मुझसे जुदा करके
तुम न समझोगे प्रेम की परिभाषा .

.फिर क्यूँ रौशनी तरंगित करती रही मुझको --------- विजयलक्ष्मी





Friday 19 August 2016

" क्यूँकर भुला दिया तूने ;;;जीवन-डगर और देश को,

अरे ओ पाकिस्तान तेरा इलाज है नेक ,,
हम भारतीयों का इरादा भी है नेक 
सुन ले खोलकर कान तुझको न होगा भान
काश्मीर है अंग हमारा देश है हिन्दुस्तान .||
अपने चमचो करछो को कहदे ..चुप होकर बैठ रहे ..
न हो जो जेब में धरा उसको भी हम ऐंठ ले
अब सन सैंतालिस वाली बात नहीं ...
काश्मीर को भूलकर अपनी जान बचा ..
रखना ध्यान ये है तेरे अस्तित्व का फरमान ||
याद रख जुबा पर लगा लगाम
ये देश भगतसिंह सुभाषचंद्र आजाद का है
यहाँ राम पूजे जाते हैं ... काली का खप्पर खाली है
गीता कृष्ण पढाते हैं ,, यहाँ सैनिक खुद ही बन जाते हैं
कोई लालच काम नहीं करता ,,देशभक्ति का रंग नहीं उतरता
" चुप " न हो इरादा बदल जाए और " पाक - साफ़ ,"",
दुनिया रह जाएगी हैरान ||
----- विजयलक्ष्मी




" क्यूँकर भुला दिया तूने ;;;जीवन-डगर और देश को,
कैसे दिखायेगा बता उजाले भरे रास्ते फिर देश को ||


तू तो सपूत था मगर कपूत क्यूँकर बन गया ...
बता लीलता है आपही क्यूँ इस इंसानियत के देश को ||


स्वार्थ का चश्मा कुछयूँ चढा मिला जिन्दगी को लीलता,
क्या देश क्या देशवासी जो लीलता सांस्कृतिक वेश को ||


मर्यादाएं सारी भूल गया क्यूँकर बता आज का ये आदमी,
आदमीयत कत्ल करता फिर रहा कत्ल संग दरवेश को ||


अहंकार अपनी समझदारी का हुआ है कुछ इसतरह से
लहू देखकर खुशियाँ मनाता सजा रहा हैवानी दरपेश को||


दौर बदलेगा कभी जब,,,फिर बरबादियों का मातम होगा
जिन्दा हो महकेगी जिन्दगी ,छोड़ दरिंदगी के वेश को ||


बंदूक और ये पत्थरबाजियां लहुलुहान है मेरी माँ भारती
कैसे चैन पाऊँ भला मैं ---2 कैसे सुधारूं देश को ||


माथे पे बाँधी पट्टियाँ लहू धार कैसी बह उठी
माँ बहने मेरी लाज की गठरी लपेटे रो रही हैवानियत के वेश को ||


तू सपूत होता था कभी तूने मात किये है जानवर
तुझे युग पुरुष जाना था जिसने कलंकित किया उस देश को ||"
------- विजयलक्ष्मी

Sunday 14 August 2016

जय माँ भारती ,,

जय माँ भारती ,,
दुश्मन को ललकारती
है सपूत शेर उसके
स्वयम प्रभा पुकारती ||



जयहिंद !!
मेरे हर गम से बड़ी ख़ुशी वतन की है ,
देकर शीश अपने पाई रंगीनियाँ चमन की है
मिटाकर भी खुद को तिरंगे आन प्यारी है 

ये कहानी नहीं आवाज अंतर्मन की है ||
----विजयलक्ष्मी



जयहिंद ,,जय हिन्द की सेना !!
भारतीय सेना के जवान देश की सरहद पर तैनात होकर दिन-रात दुश्मनों से उसकी रखवाली करते हैं तब जाकर देश की करोड़ों जनता अपने घरों में सुकून से सोती है.
हमारी सेना का हर जवान देश के नाम मर मिटने का जज्बा रखता है और देश की तरफ आंख उठाकर देखनेवाले दुश्मनों का नामों निशां तक मिटा देता है.
पूरा देश आज़ आज़ादी के जश्न में डूबा हुआ है ऐसे में आज हम आपको बताते हैं भारतीय सेना के अनमोल वचन, जो हर हिंदुस्तानी के दिल में जोश भर देने के काफी है.

भारतीय सेना के अनमोल वचन –
1 – “मैं तिरंगा फहराकर वापस आऊंगा या फिर तिरंगे में लिपटकर आऊंगा, लेकिन मैं वापस ज़रूर आऊंगा.”– कैप्टन विक्रम बत्रा, परम वीर चक्र.
2 – “जो आपके लिए जीवनभर का असाधारण रोमांच है, वो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी है.” – लेह-लद्दाख राजमार्ग पर साइनबोर्ड (भारतीय सेना).

3 – “यदि अपना शौर्य सिद्ध करने से पूर्व मेरी मृत्यु आ जाए तो ये मेरी कसम है कि मैं मृत्यु को ही मार डालूंगा.”– कैप्टन मनोज कुमार पांडे, परम वीर चक्र, 1/11 गोरखा राइफल्स.
4 – “हमारा झंडा इसलिए नहीं फहराता कि हवा चल रही होती है, ये हर उस जवान की आखिरी सांस से फहराता है जो इसकी रक्षा में अपने प्राणों को न्योछावर कर देता है.”– भारतीय सेना.

5 – “हमें पाने के लिए आपको अवश्य ही अच्छा होना होगा, हमें पकडने के लिए आपको तीव्र होना होगा, किंतु हमें जीतने के लिए आपको अवश्य ही बच्चा होना (धोखा देना) होगा.”– भारतीय सेना
6 – “ईश्वर हमारे दुश्मनों पर दया करें, क्योंकि हम तो करेंगे नहीं.– भारतीय सेना

7 – “हमारा जीना हमारा संयोग है, हमारा प्यार हमारी पसंद है, हमारा मारना हमारा व्यवसाय है.” – ऑफिसर्स ट्रेनिंग एकेडमी, चेन्नई.
8 – “यदि कोई व्यक्ति कहे कि उसे मृत्यु का भय नहीं है तो वह या तो झूठ बोल रहा होगा या फिर वो गोरखा ही होगा.” – फिल्ड मार्शल सैम मानेकशॉ.
9 – “आतंकवादियों को माफ करना ईश्वर का काम है, लेकिन उनकी ईश्वर से मुलाकात करवाना हमारा काम है.” – भारतीय सेना.
10 – “इसका हमें अफसोस है कि अपने देश को देने के लिए हमारे पास केवल एक ही जीवन है.” – ऑफिसर प्रेम रामचंदानी.

ये थे भारतीय सेना के अनमोल वचन – हमे यकीन है कि भारतीय सेना के अनमोल वचन को पढ़कर आपने दिल में देशभक्ति का सैलाब उमड़ पड़ा होगा.
हम भले ही देश की सरहद पर जाकर अपने देश के लिए कुर्बान नहीं हो सकते लेकिन सेना के उन जवानों के हौंसले और ज़ज्बे को तो सलाम कर ही सकते हैं जो हमारे लिए देश की सरहद पर मर मिटने को तैयार हैं.
भारतीय सेना के अनमोल वचन को सलाम!

देश तिरंगे का है या तिरंगा देश का
तिरंगा फहरता है बखानता है आन को ,
तिरंगा फहरता है दर्शाता है शान को 
तिरंगा फहरता है दिखाता है मान को 
तिरंगा वतन की पहचान है ,,
तिरंगा कागज का हो या खादी का तिरंगा है
तिरंगा लालकिले पर फहरे या सरकारी दफ्तर में तिरंगा है
तिरंगा मकान पर ठहरे या दूकान पर तिरंगा है
तिरंगा किसी एक धर्म का नहीं ..तिरंगा छूता किसके मर्म को नहीं
तिरंगे का धर्म राष्ट्रीयता है हमारी
तिरंगे का मर्म कर्मण्यता है हमारी
तिरंगे का कर्म स्वतंत्रता है हमारी
तिरंगे की चाह गगन तक फहराना है हमारी
तिरंगे की राह उत्थान की हमारी
तिरंगे में मैं भी हूँ तुम भी हो ..
तिरंगा जन गण का मन है
तिरंगा राष्ट्रीयता का जीवन है
तिरंगा हमारा अंतर्मन है
तिरंगा वेद है पुराण है तिरंगा ही क़ुरान है
तिरंगा देश की वाणी है ..तिरंगा जन कल्याणी है
तिरंगा कर्मयोग का मर्म है
तिरंगा ही हमारा पहला और अंतिम धर्म है -------- विजयलक्ष्मी


वन्देमातरम ...!!!!!
जयहिंद ...जय हिन्द की सेना !!!
पूजा और पूजा के मन्तव्य बदल गये ,
राहगीरो के गन्तव्य बदल गये ..
देशराग गाने वाले आरती गा रहे हैं 
अंधेरों से डर रौशनी के दलालों के घर जा रहे हैं
सूरज भी अँधेरे में आग का दमन पकड़ने चला
माचिस लेकर हाथ में छान जलाने चला
तारीकियों का खौफ ...उखाड़ देता है राह से कदम
नसीहत देने वाले दलाल ... हाथ थाम चले
जलकर मर जाते तो फख्र होता ..
खंजर चलता सीने पर यूँ पीठ पर तो वार न कर
हमे मौत का खौफ नहीं ,,काफिरी डराती है
तन्हाई रुलाती तो है ..मंजिल से कब बहकाती है
हम तलवार की धार पर चलते रहे वो पीठपर वार करते रहे
हमने समझा था जिसे योद्धा वो राह बदलते रहे
अलख जगाने वाले खुद राह भटकने लगे ||-- विजयलक्ष्मी


आतंकवाद और आतंक वादी ..
इन्हें भी जरूरत तो होती होगी शांति शब्दों की 
खुदा अल्लाह यीशु या गुरु या प्रभु रटन की 
इन्हें भी भय तो होता होगा अपनी अगली पीढ़ी के उत्थान का 
अपने गौरव के पतन का 
अपने बच्चों की शिक्षा और सुरक्षा का
पारिवारिक आस्था का
माँ के आंसू और पिता की बाट जोहती आँखों का
क्या इन्हें दर्द नहीं होता
या इनका मजहब ही असलेह और बम हैं
शायद नहीं खौफ पलता है इनके भी मनों में कहीं तो जरूर
खुदा के नजदीक पहुंचने की तलब ..
जन्नत नसीब होने की आरजू में
कितनो के गुनहगार बन जाते है एक स्वार्थ के वशीभूत
कितनो की दुनिया उजाड़ देते हैं
उनकी बद्दुआओ में ..
नफरत में ..
आंसूओ से तरबतर जिन्दगी से उठते गुबार से
भला कैसे बचते होंगे ..
इंसानियत ..जिन्दा होना भी चाहती होगी तो कैसे मारते होंगे
कैसे दफन करते होंगे उन लाशों को जिन्हें बिना खता ही मार दिया
कुछ स्वार्थी मतलबी मजहब विरोधी मुसलसल बेवकूफ अंधे काफिरों के बहकावे में आकर .- विजयलक्ष्मी


रूप बदल गया ...शब्द नहीं बदले ..
हकीकत कुछ ऐसी है ..
जहां असत्य हिंसा और अधर्म का लगता पग पग फेरा ,
बना दिया गया है ऐसा देश ये मेरा ...जय सियासती जय सियासती ...
भ्रष्टाचार घोटालो का जहां दर दर डंका बजता ,
और गरीब का पेट काट कर नेता पेट है भरता ..
बना दिया गया है ऐसा देश ये मेरा ...जय सियासती जय सियासती ...
आपने ही लिखवा दिया कुछ ऐसे शब्दों को ..
यही है आम आदमी का दर्द ...
वन्देमातरम ..!!..
ढूंढिए असली गाने को ..आप भी ?- विजयलक्ष्मी


सत्य को साधन नहीं मुकम्मल राह की तलाश है ,
जिंदगी तूफ़ान सी ,मद्धम सी इक आस है ,
किसने आशा को खो दिया, किसने कहा निराश है ,
पंचांग में बस शब्द है बाकी तो कुछ भी नहीं पास है 
तलवार की धार को मगर अब लहू की प्यास है ,

जिंदगी अब तू जुआ सा हों गयी ,
ताश के पत्तों का घर कोई पत्थर बताकर चल दिया ,
मंजिल की फ़िक्र वो करे जिसे खुद पर नहीं विश्वास है ,
एक दिन की बात क्या दर्द अब तो अनवरत ही साथ है ,
कायरों की बात क्या मैदान ए जंग से भाग खड़े होते है जो ,
उसपे तुर्रा लड़ने की बताते नई ये रीत है ,
इंसानियत तो मर गयी अब जनाजा भी उठाओ ,,,
बेटी को कह दो ...अब जन्म न ले जमीं पर ,
सर उठाकर चलना दूभर हों गया है ,
ये देश अब निरंकुशों का घर हों गया है ,
रास्ते सीधे नहीं हैं ,सेंध लगती चोरी से ,
बस में कुछ नहीं होते जिनके वो अकड़ते सीना जोरी से ,
हमको मगर उस हाल में भी पीठ दिखाना भाता नहीं ,
मौत भी मंजूर है ,लहू के धरे बहे ,,,
झंझावात उठा दें एक ही हुंकार से ,
छोड़ दे दुश्मन मैदान एक ही ललकार से ,
खौफ नहीं अदब है बस ,काँटों से डरते नहीं ,
अपने घर में खुश बहुत है औरों पे कब्जा करते नहीं
.----------.विजयलक्ष्मी


Wednesday 10 August 2016

" हथेली पर लकीरे उखड़ी पड़ी है "

हथेली पर लकीरे उखड़ी पड़ी है 
बरसात गिरने से टूटी हुई सडक जैसी
गीली होकर बहती हैं पथरीले टुकड़ों सी
बंजर कह दूं कैसे ....?
दर्द की पौध पनपकर महका रही है चहुँऔर पवन 
लगता है समय शर्मिंदा होना चाहता है अपनी करनी पर
समन्दर को घमंड था रत्नों के भीतर होने का ,,
मंथन कर दिया ...और लूट लिया ,,राक्षसों के सहयोग ने ,,
नहीं सोचा ..क्या अमृत के हकदार होंगे कभी ...
नदियाँ को तो बहना है ...कभी पथरीले पहाडी रास्ते से
कभी रेतीले बंजर धरती सी पठारी रास्ते
हर एक राह जैसे मंजिल की तलाश में है ..
मगर कुछ मंजिलें ही लापता हैं ...
यही सच है ... जो जिन्दगी को लील जायेगा एकदिन
और खो जाती है पत्थरों और रेत के बीच ..
समन्दर हिस्से में नहीं होता
मिट जाती हैं यूँही घुलकर ..
किसी ब्लेक हॉल में जैसी
------ विजयलक्ष्मी




रियासत की सियासत सीढियों पर बैठ पीढियों को गिन रही ,,
भूल बैठे हैं लोग यहाँ ........ अपनी पीढियां न बनाने वालों को --- विजयलक्ष्मी




छलक पड़े न गम पलकों से तन्हाई ,दूरियां भली ,,
मुहब्बत की बयार रूकती कब है जो इक बार चली

वक्त ही दगा दे तो जिन्दगी भी आँख फेर लेती है
वफा भी तो मौत का दामन थाम तज संसार चली
-------- विजयलक्ष्मी