Friday 28 February 2014

".सोचना तो पड़ेगा ही आखिर .."

हलक से हलाक तक पहुंच रही है जनता ..और नेता ...फर्श से अर्श पर ,,देश का अन्नदाता ..किसान भूखो मरने के कगार पर और... खाद्य योजना हवा में उड़ रही हैं ...घरेलू उद्योग के सियापे पड़े हैं और टेलीविजन पर निर्माण की नौटंकी ..सातवे आसमान पर ..वाह रे हिन्दुस्तान ..तेरी किस्मत ..जिसकी औलादे ही माँ को नोचकर खाने के बाद बेच कर भी खाना चाहती हो ..मेड ही खेत खा रही हो तो ....और जमीं बदली न जा सके तो माली बदल देना ही उचित है .क्यूंकि आजादी के सातवे दशक में भी सबसे अधिक सत्ता पर काबिज लोग आज भी विकास का सिर्फ सपना ही दिखा रहे हैं ...किसान की हत्या का जिम्मेदार कौन है आखिर ...ये योजनाये बनाता कौन है भला ..चुनाव के वक्त कर्मचारियों को डी ए ,टी ए बढ़ाकर खुश कर देते हैं ..और फिर पांच साल तक लूट मचाते हैं ,,,सैकड़ो के लाखों नहीं करोड़ो हो गये और गरीब और भी गरीब ...ये गरीबी हटायेंगे या गरीब को ..सोचना तो पड़ेगा ही आखिर --एक नागरिक ( विजयलक्ष्मी )

"नदी बन अथक अनघड से ही चलते रहे हैं खुद में"

दीपक तले अँधेरा ही होता है मालूम है न ,

रोशन चरागात है वही जो जलते रहे हैं खुद में .



तूफानों का क्या है जो उनका काम है करेंगे 


मिटकर बनना है हौसले से चलते रहे हैं खुद में 



टूटकर गिरे वृक्ष तो कोयले से हीरा ही बनेगे 


लिए इक जिन्दगी बीज बन पलते रहे हैं खुद में 



दह्ककर महकना मुहर सीख रहे हैं आज भी 


सूरज न सही जुगनू से बन जलते रहे हैं खुद में



समन्दर तो अथाह है अथक है विश्रामगाह भी 


नदी बन अथक अनघड से ही चलते रहे हैं खुद में .-- विजयलक्ष्मी

" खो गया भस्मीभूत होकर राख में "

प्रेम गीत ,..
श्मशान में भला कौन गाता है ,
क्या करे हम मरघट भी भाता है 
सो जाते है कुछ लोग चीख चीख कर ..
चिर निंद्रा में विलीन होने की चाह जाग रही है 
नयन गीले भी मत करना ..
जिनका फातिहा पढ़ा जा चुका हो ..उनपर रोया नहीं जाता 
वक्त मरहम रख देगा ..
उन जख्मों पर जो वक्त के माथे पर खुरचे थे नाखूनों ने 
ओस मर ही जाती है सूरज की तपिश में 
दावानल कुछ नहीं छोडती अपने पीछे ...अधजले ठूंठो के आलावा 
और सुनामी तो किनारों को भी बहा ले जाती है अपने साथ 
उसके बाद का वीराना ठहर गया हैं मुझमे 
जलने पर पुन: अंकुरण नहीं फूटता ,
नई पौध ही रोपी जाती है जरूरत के अनुसार ..
जंगल जो बेतरतीब सा था ..अलमस्त सा ..
खो गया भस्मीभूत होकर राख में 
उपर से बरसात ...चिंगारी की आस भी खत्म .-- विजयलक्ष्मी 

Thursday 27 February 2014

ॐ नम: शिवाय ..ॐ नम: शिवाय

शिवरात्रि के पावन अवसर पर प्रभु को एक भजन की भेंट.. 

ॐ नम: शिवाय ..ॐ नम: शिवाय
ॐ नम: शिवाय ...ॐ नम: शिवाय 
गरल पिया और सरल किया 
मानव का उत्थान किया
ओ डमरू वाले शंकर शम्भू
तुमने जीवन का कल्याण किया
ॐ नम: शिवाय ..ॐ नम: शिवाय
ॐ नम: शिवाय ...ॐ नम: शिवाय

तुमने तारे अधम ,अज्ञानी
आँखे तुझको न पहचानी
विष पीकर खुद ही तुमने
दुनिया को अमृत कर डाला
ॐ नम: शिवाय ..ॐ नम: शिवाय
ॐ नम: शिवाय ...ॐ नम: शिवाय

बिन तान तमूरा तांडव नृत्य रचा
बिन नाद ज्ञान का व्याकरण रचा
सन्यासी होकर भी शम्भू
गृहस्थ भी खूब निभा डाला
ॐ नम: शिवाय ...ॐ नम: शिवाय
ॐ नम: शिवाय ...ॐ नम: शिवाय.-- विजयलक्ष्मी

Wednesday 26 February 2014

" तुम ..सिर्फ तुम ही हो "

तुम नहीं हो महज एक शrब्द 

तुम नहीं हो महज एक नाम नाम 


तुम नहीं हो मात्र एक अहसास 


तुम नहीं हो केवल साँस ही 


तुम नहीं हो महज महकता सा ख्वाब भी 


जिन्दगी का अजाब तो बिलकुल भी नहीं हो 


तुम मात्र पूजा भी नहीं हो 


तुम नहीं हो सजा भी नही क़ज़ा भी नहीं 


तुम नहीं हो केवल दीवानगी मेरी 


क्या समझा ईमान ही हो बस 


क्या तुम जमीर के पास से भी नहीं गुजरे 


आकाश तो खुद शून्य है तुम वो भी नहीं 


बयार ,बहार, बसंत ,मलय चमन ,फूल , कांटे...या ...


भंवरे या केवल तितली कहना पूरा नहीं है तुम्हे 


सब में तुम्हारा ही अंश हैं 


प्रेम प्रीत की कहानी में 


जीवन की रवानी में 


अहसास रूहानी में 


तुम ..सिर्फ तुम ही हो 


देह से दूर 


मन्दिर की घंटियों सा बजता राग 


मेरी उपासना ..


जहाँ मैं हूँ ..मैं ही नहीं हूँ "हम है "


"अनंत सा आत्मा तक फैला है विस्तार .. तुम्हारा "- विजयलक्ष्मी

Sunday 23 February 2014

" खींचो कमान इस तरह आकाश तक टंकार हो "

"खींचो कमान इस तरह आकाश तक टंकार हो ,
दृष्टि आँख ही पर रहे जब मछली का शिकार हो 
प्रचंड ज्वाला कापती है ज्यूँ ठण्ड का शुमार हो
आंख चौखट पर लगी ज्यूँ युगों से इन्तजार हो 
चीर वक्त ,मौन मुखरित ज्यूँ दर्द का ही सार हो 
क्यूँ न आकाश से धरा लौ स्वर वितान तान दो
मौत से मुखरित हुए हैं जिन्दगी को निशान दो 
चीखती पुकार का वक्त की छाती पर आह्वान हो
जिस रस्ते कदम पड़ चले युगों युगों प्रमाण हो 
माधुर्य सरस वासन्ती ढंग सत्य-पथी जहान हो " .-- विजयलक्ष्मी

"चुनाव के समय लोकलुभावन वादे "

ये विज्ञापन थोडा सच ज्यादा झूठ ,
रो रहा है भारत देश पकड़ कर मूठ .

मक्कारी से ही जनता को रिझाएंगे 
जनता समझी मुर्ख रहे देश को लूट.

लिखे शब्दों के पत्थर से नई क्रांति 
झूठा पर्दाफाश, लिए कलम की मूठ . 

विकास दर ऋणात्मक करता प्रमाण 
सत्य के खंजर से खत्म करो झूठ

चुनाव के समय लोकलुभावन वादे
होंगे पूरे वक्त पर सबसे बड़ा झूठ - विजयलक्ष्मी

..कोई लिखे या न लिखे इतिहास में

हमारी स्वतन्त्रता के बाद पैदा हुए देश ..विकास के मामले में हमसे आगे क्यूँ ?
...जिस दल ने अधिक गद्दी सम्भाली उसके नेता उतने ही ज्यादा अमीर क्यूँ हैं?
...चुनावी टिकट का आधार है क्या...चुनावी जंग का खुलासा होता नहीं क्यूँ ?
.सेवा ही करनी है मंत्री पद का लालच क्यूँ ?
..अच्छा पद बुरा पद का रोना होता है क्यूँ ?
..राष्ट्रिय सेवा में नेता इमानदारी के स्वयम्भू प्रायोजक है क्यूँ ?...
ऐसे बहुत सारे क्यूँ से भरा हुआ है आज के वोटर का जेहन ..दलों को नागरिक की जरूरत नहीं क्यूँ ..वोटर भाता है क्यूँ ?...लचर शिक्षा ,,मानक गायब ,,भाई भतीजावाद ,,बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपया ...
यही सत्य रह गया सबके पास ..जेब में पैसा है तो लोग वैश्या को भी सलाम ठोक दे
भूखी गरीब माँ भी नहीं भाती.."..परसु परसा ..परसराम " वाली बात चरितार्थ होती है ",,ईमान ..जमीर.. सत्य सब दिखावे के लिए रह गये हैं अरे भाई आप लोगो को पैसा खाना है खाओ ..मगर कुछ तो उस देश को उसके नागरिको की भी हिस्सेदारी बनती ही होगी ......टैक्स हम भरे तनख्वाह विधायको की बढती है ..बिना किसी विरोध के ...ये विरोध उस दिन कही खो जाता है या कुम्भकर्णी नींद सो जाता है ....वोट से पहले सोचना होगा ...भावनाओं में बहकर नहीं वोट सम्भलकर देना होना ......अन्यथा
देश को गर्त में पहुंचाने में हमारा और आपका नाम भी दर्ज होगा ..कोई लिखे या न लिखे इतिहास में .--- एक नागरिक (विजयलक्ष्मी )

Saturday 22 February 2014

अहले वतन के नाम हम रुबाइयाँ गाते है

अहले वतन के नाम हम रुबाइयाँ गाते है,
छोड़ दी पतवार कब की बस डूबते जाते हैं 

अब खौफ नहीं चाहे तैर मरे या डूब मरे 
तुम वजूद ढूंढो अपना, हम भूलते जाते हैं.-- विजयलक्ष्मी



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हम अहसास बुनना सीख रहे है भीतर अपने ,
जिनमे कांटे भी लगते हो जैसे शीतल सपने .-- विजयलक्ष्मी



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हमे इन्कलाब करना नहीं आता ,

हमे इन्कलाब करना नहीं आता ,
आन्दोलन की जरूरत बकाया नहीं  
क्रांति की चिंगारी पर आतंकवाद लिखा
कौन बकाया राजा था गरीब को जिसने सताया नहीं
हवस जिसको समझा शायद प्यास थी
तार पर सुखाते हैं प्यास समन्दर को बहकाया नहीं
जब अवसाद पनपता है भस्म करता है अपने को
लीला राम ने की मगर सीता को भी बचाया नहीं
करतब सियासी खूब हुए
कृष्ण ने छोड़ा मीरा ने तार जोड़ा राधा ने भी जताया नहीं .-  विजयलक्ष्मी  

" मिट गये वो सरफरोश सबकुछ लगा दांव पर "

सियासती खेल में मेरा वतन लगा दांव पर ,
काले गहरे घने बादल दीखते थे मेरे गाँव पर

वोट बिकते रहे चंद सिक्के ,साड़ी औ शराब में 
जहनियत खरीदी,जिसका कुछ नहीं था दांव पर.

चाक गिरेबाँ घूमते थे कौई नहीं सुनता जहां 
ईमान से जिसकी सुनी,उसीने लगाया दांव पर 

हर कोई बाजार में खड़ा है गोरा तन काला मन 
गा रहा था गीत खुद के खेला हो जैसे जान पर

कोई पुश्तों को रो रहा मांगता कीमत उनकी
खुद कुछ किया नहीं बताता है सब ईमान पर

कुछ टपके आसमां से लटके मिले खजूर पर
मिट गये वो सरफरोश सबकुछ लगा दांव पर .- विजयलक्ष्मी

Friday 21 February 2014

" ब्याज बैंक का ,फांसी खाई, बीबी मरी ससुराल में "


कुछ फ़ाइले गुम है या उलझी दफ्तरी जाल में 


जैसे उलझी जमींन अपनी राजतन्त्र के जाल में 




चकबंदी हुयी खेत की कितने बीते साल में 



पेड़ नीम का खड़ा हुआ है सरपंची चौपाल में 




खेत खरीदे थो जो हमने खून पसीने के पैसो से


 
पट्टा दिया पटवारी ने खेत बोओ अब ताल में 




पानी की थी लम्बी कतारे सुना था नल खूब लगे 



बूँद न निकली उनमे से सुखा पड़ा इस साल में 




बीज उधारी खाद तुम्हारी बैल किराए आन लिए 



ब्याज बैंक का ,फांसी खाई, बीबी मरी ससुराल में .

-- विजयलक्ष्मी


Thursday 20 February 2014

" समेटते है सामाँ ए मुहब्बत जब भी दीवाने से हुए हम "

समेटते है सामाँ ए मुहब्बत जब भी दीवाने से हुए हम ,

क्यूँ खींचकर दामन गिरा जाते हो अपने हाथो से सारा ,


छोड़ भी न सके जमीं पर झुककर खुद ही बटोरते भी हो 


बहाना करते हो झगड़े का क्यूँ भला झूठ बोलते हो खुदारा 


मनाना तुम्हारा छूकर गया जैसे हवा का नया झौका कोई 


क्यूँ, कभी तेवर दिखाना कभी मुस्कुराना पास आकर यारा


पूछूं इक बात बता सकोगे क्या ...नाराजगी क्यूँ है हमसे 


हाँ , मालूम है हमे ,नहीं कोई और तुमको हमसा प्यारा ..-- विजयलक्ष्मी 




" बताना जरा ..इन्कलाब इबादत नहीं है क्या ,"

बताना जरा ..इन्कलाब इबादत नहीं है क्या ,
वतन के नाम पर अब शहादत नहीं है क्या 


वक्त को देखकर बदल गया मौसम का मिजाज 
हार जीत में अब वोटरों को दुकान नहीं है क्या .-- विजयलक्ष्मी


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चांदनी बिखरी चाँद खो गया .. बकाया बचा क्या है ,
जलते रहो यूँही ,,इससे बेहतर सूरज की सजा क्या है 


एक पत्थर और उछाल दो गगन का रंग बदल जायेगा 
उड़ता हुआ कोई और परिंदा जमी पर आ जायेगा .-- विजयलक्ष्मी



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पंख गिरवी है मगर हौसले जिन्दा 
ये अलग सी बात है इंसान सब मुर्दा 


चीखता है पसरकर मौन जंगल में 
लहू देखकर मेरा कंधे झुक गये कैसे.-- विजयलक्ष्मी


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उफ़ ये मुहब्बत बड़ी अजीब सी शै है ,
आँख में आंसू देकर मुस्कुराती बहुत है .


जब मुस्कुराते है होठ,.. बाखुदा यारा 
सितम तो देखो आँख को रुलाती बहुत है .- विजयलक्ष्मी



" लो आवाज आई ....फिर पुकारा गया हूँ "

तिमिर का आह्वान है प्रभा  

तृषा तृषित हो मारीचिका 


अम्बर न धरती को बादल दिया 


क्षितिज पर अम्बर से मिलती धरा 


स्वीकार कब नियन्त्रण स्वतंत्रता 


अस्वीकार कब निमन्त्रण किसी का

 
स्नेह की बाती जलती है यहाँ 


बुरा हो किसी का व्यर्थ नहीं चाह


बंद दरों के भीतर से बुलाया गया हूँ 


दर्द की पीड़ा की सतह तक लाया गया हूँ 


इन्सान ही था शायद बताया गया हूँ 


अज्ञान की मचान से उठाया गया हूँ 


ईमान बिकता जहां दूकान पर लाया गया हूँ 


बस गुंजाता हूँ मुखर प्रेम मौन होकर 


पाने की कोशिश कर रहा हूँ खुद को खोकर 


लाया गया राह तेरी बेहोश होकर 


स्त्रैण कलंक का टीका बनाया गया हूँ 


इसीलिए पर्दे के भीतर बैठाया गया हूँ 


हूँ मुखर लेकिन आज भी 


सजाता है सर पे दिखावे को ताज आज भी 


लो आवाज आई ....फिर पुकारा गया हूँ 


इक नई दुनिया का नाम लेकर उचारा गया हूँ .-- विजयलक्ष्मी 

" दोष नजरों का बेचारा दिल बेमौत मारा जाता है "

"........क्युकि इश्क भी तो इश्वर से किया है ना !!.

.पूर्ण सार है जीवन का ,  और ...

इश्क ने इंसान को खुदा बना दिया ,


औ खुदा को इश्क में इंसा बना दिया 
.- विजयलक्ष्मी 


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उफ़ ये मुहब्बत बड़ी अजीब सी शै है ,
आँख में आंसू देकर मुस्कुराती बहुत है .
जब मुस्कुराते है होठ,.. बाखुदा यारा 
सितम तो देखो आँख को रुलाती बहुत है .- विजयलक्ष्मी



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दिल पे खुद से ज्यादा यकीं हुआ था ,

इसी से खुद को हारकर दिल को जीता दिया .- विजयलक्ष्मी



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दोष नजरों का बेचारा दिल बेमौत मारा जाता है 
होश खोता है दिल और आंसू आँख में समाता है 

लज्जत ए ईमान खामोश लुटता है दीवानगी में 
बेहोश मंजर यूँ विरानगी नजर में आँख रुलाता है ..- विजयलक्ष्मी


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" अकेले आत्महत्या का निर्णय "

एक ब्लॉग पढ़ा उसपर एक रचना और रचना को रवानी देती एक कहानी ...समझ नहीं आ रहा उसकी बुराई लिखूं या अच्छाई ...सम्भव है कोई और भी विशेष परिस्थतियों में आत्महत्या कर लेता लेकिन ...कुछ है कि गले नहीं उतर रहा ..या तो मेरा लेखन और मेरे अहसास उसे कमतर पा रहे है या मुझे आत्महत्या समाधान नहीं लगता ...क्यूँ अपनी जिम्मेदारी छोडकर मरना ...यदि मरना है तो उन जिम्मेदारियों को लेकर मरना चाहिए ...जिन्दा छोड़ना है तो स्पष्ट कहकर ...घर से भेजकर अकेले आत्महत्या का निर्णय ....अन्य सदस्यों को मौत से बदतर जिन्दगी देकर उनके साथ भी दगा करना है और मौत और जिन्दगी से भी ...अनायास ही कलम ने कुछ पंक्तियाँ लिख डाली आप सबसे साझा कर रही हूँ ...(पत्नी और एक बच्चा ...उसके मा के घर भेज खुद आजाद हुआ लटकने को ...कायरता या समाधान !! )....एक बार धनवान होने पर हम छोटे काम को क्यूँ नहीं स्वीकारकर पाते ...ये अहंकार है या जमीर ?

मौत ही बुलानी थी गर सबको ही मार डालता
बोझ जिन्दगी का अपनी किसी और पर न डालता

डरपोक कायर ही रहा भूल गया था गर जूझना
सोचा नहीं कैसे यतीम जीवन पालेंगे अपना

कैसा था इंसान वक्त की आँखों में आंख मिलाता
बैठ वक्त की छाती पर फिर आगे कदम बढ़ाता

माना सगरी बात है सच्ची झूठ नहीं है कुछ भी
फिर भी मन नहीं मान रहा है बात बहुत है कडवी

खुद को मारने वाला खुद नहीं मरता अकेला कभी
देता है मौत से बढकर जीवन जिन्दा जितने सभी

ये हक दिया किसने उसे क्या खुदा वो हो गया
खुद को मारना कहो गुनहगारी से कैसे जुदा वो हो गया .---विजयलक्ष्मी 

Wednesday 19 February 2014

" भरोसा खो गया गर ,तो मौत गले लगाएगी ",

भरोसा खो गया गर ,तो मौत गले लगाएगी ,
जानते नहीं थे जिन्दगी यूँही निकल जाएगी 

छिपाया नहीं कुछ, गिरेबाँ में ही झाँका अपने 
ठान लिया गर मौत ने तो मारकर ही जाएगी 

दर्द से डर नहीं न मौत पर शिकवा होगा हमे 
नाम पर इल्जाम छलावा तो रूह को रुलाएगी 

सत्य की धुप नहीं झुलसाती झुलसाकर भी 
सूरत ए इल्जाम बेबात ही जान लेकर जाएगी

गलतफहमी बनती है तो दाग मिटने मुश्किल
मरते ही अहसास जिन्दगी रुखसत हो जाएगी .-- विजयलक्ष्मी

Tuesday 18 February 2014

" सत्य का चन्दन प्रेम का दुशाला पहनकर ठगी नहीं करते ,"

सत्य का चन्दन प्रेम का दुशाला पहनकर ठगी नहीं करते ,
वो कोई और ही होंगे जिनके मनो पर मनो मेल भरा होगा 

जिन्दा रहे जिन्दगी का स्वागत करते है ,मौत से नहीं डरते 
ईमान से इम्तेहान देंगे नकल का पर्चा किसी और ने धरा होगा .

राजनीती नहीं आती सादगी भाती बहुत है यही सच है यारा 
यदि भरोसा नहीं हमपर जरूर कुछ तो कभी गुनाह करा होगा 

इबादत ए खौफ नहीं करते मुकम्मल पहचान का इन्तखाब है 
पुरसुकू रहने की कवायद में गलत सदा ही कबूल करा होगा

सुना है झूठ के पांव नहीं होते मगर बोलता है सर पे चढ़कर
ईमान की बात है झूठ पाँव में और सत्य ही सर पर धरा होगा .- विजयलक्ष्मी

" सूरज की प्यास ओस को पीकर भड़कती है "

वक्त का घोडा अंजुरी नहीं देखता ...सूरज की प्यास ओस को पीकर भड़कती है ..ख्याल जिन्दगी को नजर देते हैं और उदासी खिलती है चमन में काँटा बनकर ....शूल का दर्द महकता है सहरा में गुल को तो खिल्र मुरझाना होता है .- विजयलक्ष्मी


......कोई है जो समझाएगा !!

कांग्रेस ने गाँधी का और केजरीवाल ने अन्ना का बखूबी इस्तेमाल किया ...भुगतना ती जनता को ही है ...जो " एक शहर का राज्य " नहीं सम्भाल सका उससे देश सम्भालने की उम्मीद किस बिना पर ...? ......कोई है जो समझाएगा !!.- विजयलक्ष्मी

" बताना तुम ,हवा में खनक ठहरती कब है "

इंतजार ए हालत वक्त बताता कब है 

भीतर की कहानी अख़बार सुनाता कब है 


गुजरती जलधार लहरती है जिस ढंग से 


बरसती बूंदों को सुना लजाती तब है 


गीले पत्ते वृक्ष के झुके नयन लगे जैसे 


घोसलों में पंछी गुनगुनाते जब है 


निशब्द गूंजती स्वरलहरी सुनो तुम भी 


बताना तुम ,हवा में खनक ठहरती कब है .- विजयलक्ष्मी

" गिरेगा आँख से मोती तेरा मेरी पलको पर संवर "



कैफियत न पूछ जालिम दिल मचल जायेगा ,
मुद्दत से ठहरा जो वक्त का मंजर बदल जायेगा

न तपिश दे मोम के पुतले को निगाहों की यूँ 
पिघले बर्फ सा तुझमे लहू बन संवर जायेगा 

सर्द सिहरती वक्त की बाती जलती जतन से है 
रुखसती दीदार ए मंजर सहरा में बदल जायेगा 

गिरेगा आँख से मोती तेरा मेरी पलको पर संवर 
तू सीप बना गर स्वाति मोती में बदल जायेगा .-- विजयलक्ष्मी 

"..... तुम्हारा अधिकार है तो "

अगर आईने पर तुम्हारा अधिकार है तो उसमे चमकते अक्स पर मेरा अधिकार है

माना होठ तुम्हारे है अपने अधिकार में मगर मुस्कान पर मेरा अधिकार है 


नजर तुम्हारी तुम्हारे अधिकार में होगी मगर नजर का इन्तजार मेरे अधिकार में है 


दिल तुम्हारा होगा तुम जानो मगर उसकी धडकनों पर मेरा अधिकार है 


देह बिफरती रहे यूँहीकहीं भी पड़ी ..नियंता आत्मा उसकी पर मेरा अधिकार है 


तुम ढूंढो रास्तों को मगर मुझे मालूम है उनकी मंजिल पर मेंरा अधिकार है 


तुम नफरत और नाराजगी जाहिर कर सकते हो दिखावे को,मगर उसकी हदों पर मेरा अधिकार है 


तुम बाँट लो कितना भी मुझको और खुद को ...यहाँ परिवर्तित होता नहीं अधिकार है 


तुम निशानदेही क्यूँ ढूंढते हो मेरी ,क्यूंकि तुम्हारी सोच पर मेरा अधिकार है 


मना कर ..कर दो ..तुम झूठ को सच बना दो ..इसे सत्य बनाने का मेरा अधिकार है 


क्या प्रमाण की जरूरत है ..तो खुद में झांककर देखलो ..जहाँ तुम्हारा नहीं मेरा अधिकार है ..-- विजयलक्ष्मी 

" कॉपीराइट "

" कॉपीराइट "


चोरी करो या भीख मांगो ..बस अपने भगवान के दर से 
इंसान से क्यूँ मागना वो तो खुद भिखारी है उसी दर का .
........इन्सान से लेने पर उपर वाले का कॉपीराइट एक्ट लागू होना चाहिए 
जो संगीन जुर्म है .... 
इसीलिए उसने जितने इंसान बनाये सबके फिंगर-प्रिंट अलग है 
किस्मत अलग रंग-ढंग अलग 
फिर रोने पर कंधा लेना देना भी कॉपीराइट ही है 
क्यूंकि सहारा देना भी उसी का अधिकार क्षेत्र है 
कॉपीराइट में विचार भी है ...आचार भी है
फिर सब एक व्याकरण का प्रयोग क्यूँ करते है
उसी अन्न को एक जैसे तरीके से क्यूँ बोते है
खाद पानी का एक ही फार्मूला क्यूँ प्रयोग होता है
खाना बनाने का एक तरीका क्यूँ है सभी आग क्यूँ जलाते है
प्रकृति को चित्रित क्यूँ करते है
प्रेम या नफरत ...क्या इसपर किसी का कॉपीराइट नहीं है ?
प्रश्न और उनके उत्तर ...लग रहा है न नया नया सा अलग अलग सा ..
हाँ लगना ही चाहिए ...क्यूंकि इसपर कोई कॉपीराइट अभी लागू नहीं हुआ
गुलाब के इतने रंग क्यूँ हैं ...
फूल अलग आकार-प्रकार के होकर एक जैसे रंग के क्यूँ है
हर पत्ती का रंग हरा क्यूँ ..
सब इंसान दो हाथ पैर के पशु चार पैर वाले क्यूँ हैं
कॉपीराइट में घोड़ो के पैर में लोहे की नाल लगाता है इंसान
बैल और झोठे ऊँट को नाथ लगाता है ...ये कॉपीराइट उन्ही के नाम पर है
औरत को नाक में नकेल ...हाथ में चूड़ियों का कॉपीराइट ...
कुछ गलत कहा क्या ...किसी पुरुष को देखा सिंदूर लगाते हुए
सुहाग चिन्ह अपनाते हुए ...जातिगत कॉपीराइट है
सभी आसमान नीले रंग का क्यूँ दर्शाते है
पानी चित्र में आकाश के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करता है उसका रंग लेकर
ओ आसमान तू चुप क्यूँ है ठोक दे मुकदमा उसपर ..और उस इंसान पर जो बनाते है बार तुम्हे रंगों से उतारते है जमी पर ...
चाँद औ सूरज को मुकदमा ठोक देना चाहिए इंसान पर ..
जब चाहे किसी को चाँद सा चेहरा ...और सूरज सा रोशन करार दे देते हैं ..
आशीर्वाद पर तो कॉपीराइट एक्ट बनता भी है ...
नागफनी पर मेरा अधिकार हुआ
कांटें तो स्वत: ही हमारे हुए ...किसी को चुभे तो दर्द पर भी हमारा अधिकार हुआ
फूल सबको भाये
क्यूँ न ऋतुओ से बदलते मिजाज का कॉपीराइट तय हो जाये
क्या पावस ऋतु के पास अधिकार है इन्द्रधनुष के कॉपीराइटका
नहीं न इन्द्रधनुष आकाश में दिखता सतरंगी रंग लिए
प्रेम का कॉपीराइट किसे दिया जाये ..माँ को या पिता को
बहन को या भाई को ..प्रेयसी पत्नी नन्द भौजाई ...रिश्तों की जग हसाई
प्रेम या नफरत ...क्या इसपर किसी का कॉपीराइट नहीं है
है न प्रेम का सिर्फ कृष्ण को ..
नफरत कंस को या शकुनी को ..चलो दोनों की हिस्सेदारी हुयी
पर रावण हिरण्याक्ष होलिका मन्थरा को कैसे छोड़ दिया जाये
राधा को क्यूँ छोड़ गये कृष्ण ..शायद ...कोई और कानून लागू होता होगा
मजाक के रिश्ते का कॉपीराइट जीजा-साली के नाम ..
किस रिश्ते के नाम पर सुप्रभात ...रामराम ,,नमस्ते नमस्कार प्रणाम लिखना होगा
नेताओ के नाम पर झूठ ...सच पर मुलम्मा चढ़ाना ..देश को बेचकर खाना खादी के कपड़े
शिक्षा पर ब्राह्मण का अधिपत्य है ..चाहे सबसे ज्यादा अनपढ़ ही क्यूँ न हो कॉपीराइट है न
फिर इंजीनियर और डॉक्टरों पेशे पर निर्धारित होना चाहिए न कॉपीराइट..
इम्तेहान के पर्चे के जवाब पर लागू है ...पर परेशानी किताब एक ही है न
चलो भगवान ने अक्ल के घोड़ो की दौड़ अलग बनाई है..
बहुत मुश्किल में हूँ ...कशमकश खत्म नहीं होता ..
विचार रुक नहीं रहे वक्त भागा जा रहा है ...वर्ण वही है गिनती के
हर खेत में मिटटी है ...पानी खाद ...फिर वही रोजी रोटी का लफडा ...
भूख का कॉपीराइट किसके पास है ..और.. मेरी रूह की प्यास का हिसाब किस एक्ट में है
हंसी तो खो गयी ....उस पर असवैधानिक होने का आरोप सिद्ध हो चुका है
जो संवैधानिक नहीं मतलब नाजायज ...समाज से परित्यक्त ..तड़ीपार ..
बहुत गलत बोलती हो.. जाओ ,पेटेंट कराओ पहले अपनी हर चीज को
आचार-विचार ,प्रेम -नफरत ,लोक दिखावा ,लोक व्यवहार जिन्दगी और मौत का भी
पेटेंट ..बस बाकी कुछ नहीं सबकुछ हासिल ..
लो हो गया ...तुम्हारा भी पेटेंट ?
क्यूंकि पत्थरों पर लकीरे खींचने की आदत जो ठहरी
मनुष्य सामाजिक प्राणी है ...और हंसना मुस्कुराना अवैधानिक इसलिए जो प्रयोग करता पाया गया .....उसपर कानूनी प्रक्रिया लागू होगी ...(क्रमश:)--- विजयलक्ष्मी



Monday 17 February 2014

" फिर भी कितनी अंधी जनता"

कितना हाथो को काम मिला ,

कितनो को शिक्षा का वरदान 


कितने घर रोटी से पेट भरे हैं 


कितनो के पूरे किये अरमान 


कितनी महिलाये हुयी सुरक्षित 


कितने का किया है नुक्सान 


गद्दी की चाह के आगे कुछ नहीं 


और गर्त में डूबा गया नादान 


फिर भी कितनी अंधी जनता


पूज रही समझ कर भगवान .


..हे मेरे राम !!..हे मेरे राम !!- विजयलक्ष्मी 

Sunday 16 February 2014

सत्य मर गया क्या सच में मर गया

सत्य मर गया क्या सच में मर गया ,
भेज दो उस लावारिस हुई लाश को तुम भी ,
दफ्न कर देंगे उसे खुद के साथ ...
उसी जगह ,जहां कभी कैक्टस उगा करता था ,
उसी जगह जहाँ फूल भी खिले थे ..
उसी जगह जहाँ भौरें भी गुनगुनाये थे ..
उसी जगह जहाँ तितलियाँ थिरक उठी थी..
उसी जगह जहाँ सावन बरसा था रिमझिम ..
उसी जगह जहाँ शर्म औ हया के घूंघट रहते थे ..
उसी जगह जहाँ खुशबू महक कर बहक उठी थी ..
उसी जगह जहाँ आज श्मशान सा सन्नाटा है ..
उसी जगह जहाँ इंतजार बांटा था ..
उसी जगह जहाँ जिंदगी जी उठी थी मर मर के ..
उसी जगह जहाँ आज दम तोडा है भरोसे ने ..
उसी जगह जहाँ से सफर खत्म हुआ जाता है जीवन का ..
उसी जगह जहाँ से आवाज नहीं आती कभी लौटकर कोई भी ..
उसी जगह को चलो श्मशान बना देते है हम भी अपने ही हाथों से ..
भेज दो उस लाश को दफ्न कर देते है अपने साथ ही हम अपने ही हाथों से .- विजयलक्ष्मी