Friday 18 March 2016

" जिन्हें तिरंगे की आन प्यारी ,, गोलियों से डरते कब हैं,,"



2.
" तुम नहीं हो ,मैं भी कहाँ हूँ,,
देह मुर्दा सी , अब जहाँ हूँ ,,
काश तुम होते तो ..
जिन्दगी होती जिन्दा सी ..
पत्थरों का शहर हैं मैं जहाँ हूँ ,,
खार राहों में पड़े है सफर के
मौत के सन्नाटे बड़े हैं सफर में
जिन्दगी को हलाहल कहूँ कैसे
एक अमृत चख चुके हैं सफर पे
और सुर बजने लगे हैं ,,
पाँव मेहँदी सजने चले हैं
नाम लेकर अब तुम्हारा ..
जख्म बन चुके सहारा ..
और मंजर यादों का लिए ,,
हाथ खंजर ख्वाबों के लिए ,,
रस्ते में टुकड़े टुकड़े अहसास बिखरे
बीज खलिहान में बदरा को अखरे ,,
आखर आखर मुखबिरी करता था मिला
देशप्रेम का चला जब जब सिलसिला
वो तिरंगा ,, लहर उठा ..
आसमा पर फहर उठा..
दुश्मन भी ठहर गया,,
जब सपूत गहर गया ,,
रंग लहू को किया
तन पूरा रंग लिया
मन में अंगार जल रहे..
राह वतन की चल रहे ..
इक बुलंद आवाज में,,
ह्रदय धडकन के साज में
गूंजते सुर मिले ... जयहिंद जयहिंद
!!" --- विजयलक्ष्मी 




1.
" आओ शब्दों में अहसास पिरोकर अंतर्मन के ,,
खेतो में उगी भूख को मार डाले ,, मौत पर बरसेगा जल कोरो से
किसान की चीखों से गूंजेगा आसमां कबतक ..
वक्त के दर्पण चुभाते हैं टुकड़े कांच के कदमों तले ,,
दर्द की नदिया में गोते लगाते शहीदों के नौनिहाल 

बूढ़े पिता की आँख का नूर सरहद पर चढ़ चला..
किसने कब पूछा प्रिया से खेलता हूँ मौत से
जिन्दगी की सौत से ... गर हार जाऊं कभी ...
तुम आंसूओं को थाम लेना पलक की कोर पर
और सिखाना मत कभी नेता बनना मेरे छौनों को गौर कर
जिन्दगी को खिलौना बना माटी का संगीनों से झूलते चले
वतन की माटी में खुद को रोलते चले
जिन्हें तिरंगे की आन प्यारी ,, गोलियों से डरते कब हैं,,
पूछो औलादों को नेता सरहद पर भेजते कब हैं ,,
देश को लूटने वालों की श्रेणी में हैं देशद्रोहियों की तरफदारी में खड़े,,
छेद करते हैं उसी थाली में जिसे लिए रोटी की खातिर है खड़े
ये अंधकूप सी भूख खेल झूठ का खेलती है ,,
मादरे वतन को बर्बादी की तरफ ठेलती है ,,
सरहद पर मालूम दुश्मन आगे ही खड़ा
भीतरघाती से बचना मुश्किल जो टुकड़े करने पर अड़ा
गैन्ग्रियोन के डर से टाँगे कटती घोड़े की ,,
बख्शे कैसे बतलाये कोई जिन्होंने गद्दारी चादर ओढे थी
 " ---- विजयलक्ष्मी  







Tuesday 15 March 2016

" देशद्रोहियों की जमात क्यूँ देशभक्तों को तोडती है ||"

" ए जिन्दगी बता क्यूँ बहुत बेजाँ सवाल छोडती है ,, देशद्रोहियों की जमात क्यूँ देशभक्तों को तोडती है ||
जिनका लहू पानी हुआ मेहनत जिन्हें भाति नहीं ,, ऐसे नामुराद देश-बर्बादी को जिन्दा क्यूँ छोडती है ||
वो कांटे भले , जो पुष्प को बरबादियों से बचाते हैं, क्या करना एसी हवाओ का ,जो शाख से तोडती है ||
बेगैरत औलाद है कैसी जो घर में आग लगा बैठे आजादी है या बर्बादी , आंगन में दीवारें जोडती है ||
हमारी बयानी तंज लगती है उन्ही फरमाबरदारों को जिनकी किस्सागोई भी छान औ छतों को तोडती है ||
परवाह कब की तह ब तह झांकती मुफलिसी की डसती है इबादत भी जब दिलों में दीवार जोडती है ||" ------ विजयलक्ष्मी

" माँ जीवन का अहसास है,"



" माँ..
भीग जाती है कोर पलक की
ठहर जाती ठौर फलक की
और ..
बह उठता एक अहसास गहराकर
जैसे ठहरे से समन्दर में उठती है सुनामी
सब बहाना चाहती है ...
साहिल से फलक के दुसरे छोर तक की दुनिया
जब माँ रूठती है जैसे दुनिया छूटती हैं
वो दर्द लहरता है ..
निशब्द मौन गहरता है ...
चलती है अहसास की आंधी ..
जब माँ मौन देखती है ..झांककर सितारों की दुनिया से
एकाकी मन विह्वल
हर पल बेकल
जैसे पराये हो गये हो हम खुद से
माँ...
मौन तुम्हारा ,,
सहारा बना सहरा ..
जिसमे यादों के पुष्प मुखरित है
और रेतीले टीले जैसे तपता हुआ सूरज
विचार बनकर जिन्दा हुआ मुझमे
माँ ...
तुम बिन दुनिया ही जैसे मुहं मोड़ गयी
जलती राहों पर छोड़ गयी ..
ममता भरी नजर तुम्हारी
और जीवन सफर मेरा
और फिर वही ... निश्तब्ध्ता ..
मुझमे तुम ही हो ...
क्या बतलाऊं किसी को क्यूँकर भला
माँ जीवन शक्ति देती है
माँ भावबोध मुक्ति देती है
माँ से बड़ी पूजा कौन ..
माँ के सम्मुख ईश भी मौन
माँ जीवन का विश्वास है ,
माँ जीवन का अहसास है,
भगवान याद आये भी कैसे ,,
खुशकिस्मत हैं वो
ईश प्रारूप माँ जिनके पास है
.| " --- विजयलक्ष्मी

Monday 14 March 2016

".कहो " रंगोत्सव की शुभकामना " कहो " हैप्पी प्रहलाद " |"

मत कहना " हैप्पी होली " !! डर लगता है...जब से अर्थ समझ आया है होलिका का..... तुम किसकी खैरमकदम कर रहे हो होली की.. या मार रहे हो जिन्दा बच गये प्रहलाद को ... ?
सोचकर देखना ..आखिर किस मन्तव्य को लेकर आगे बढ़ रहे हो...अपने भीतर के प्रहलाद को जला रहे हो इसीलिए होली की खुशियों को बढ़ाने का प्रयास सतत है.... और जोर जोर से चिल्लाते हो मिलकर " हैप्पी होली "स्वार्थी लोग होलिका की जिन्दा रहने की तर्ज पर स्वार्थ , रिश्वतखोरी ,मुनाफाखोरी को बढाने पर लगे हैं....|
प्रहलाद सत्य का पुजारी कौन पूछ रहा है उसे लेकिन सत्य के नियम मानने वाले सत्य से अलग किसी के आगे सर नहीं झुकाते सामने चाहे कोई भी क्यूँ न हो ... और हिरण्यकश्यप के साथ होलिका की मिलीभगत जहां मौजमस्ती की पराकाष्ठा स्वार्थ , रिश्वतखोरी ,मुनाफाखोरी मुहं खोले खड़ी है सुरसा की तरह ...और आप लोग भी उसी में शामिल हुए जा रहे हो ... इसीलिए ढोल-ताशों के साथ होलिका के स्वागत की तयारी करते रहते हो...अपने भीतर के प्रहलाद को मारते रहते हो तिलतिल कर ... |
प्रहलाद को जिन्दा रखना है तो ...

" मत कहो हैप्पी होली "...कहो " रंगोत्सव की शुभकामना " कहो " हैप्पी प्रहलाद " |
देशद्रोह को नहीं राष्ट्रवाद के सत्य को पहचानों और ... मुनाफाखोरी और रंगीन कागज की खरीदी गयी रंगीनियों में सत्य मर जाएगा एक दिन ..... रंगीन मिजाजी के मिजाज को पहचानो आसुरी शक्तियों से तारतम्य बैठाने वाले हिरण्यकश्यप के ही चेले चपाटे है .... जो राजनीती की बिसात पर शतरंजी चाल के वो पासा डाल रहे है जो जरासंध की अस्थियों से बना था.... JNU बिलकुल ताजा उदाहरण है ...और साथ देने वाले भी नाचने गाने में लगे है बरात सजाकर | जगह जगह पर चरित्रवान और ईमानदार को खत्म करने की साजिश हो रही है ...सत्य का रास्ता रोककर खड़े है JNU के वीसी की तरह ...| जहाँ झूठ और देशद्रोही को पनाह दी जा रही है ....सामने सामने सत्य की अर्थी सजा रहे हैं......श्मशान पहुँचाने के लिए भिन्न राजनैतिक पार्टियाँ कंधा लिए खड़ी है ..|
यानी कि नैतिकता के मन्दिर में अनैतिक बातें |
हैप्पी होली कहने से पहले सोचना.... किसकी तरफ खड़े हो...जनगण बने प्रहलाद की तरफ या ....सत्य की खिलाफत करते हिरण्यकश्यप और उसकी साथी होलिका की तरफ ...कौन से संस्कार भर रहे हो अपनी प्रहलाद सी औलाद में .... दौलत और सत्ता की भूख के लिए बेईमानी ,, हिंसा , स्वार्थ या .... सदगुण प्रहलाद की तरह सत्य का समावेश करने की चाहत है ...न हो बाद में पछताना पड़े... क्यूंकि स्वार्थ में संस्कार नहीं पनपते | हैप्पी रंगोत्सव के साथ अंतर्मन के प्रहलाद को प्रसन्न कीजिये सबल बनाइए ....हैप्पी होली नहीं.... कहिये " हैप्पी रंगोत्सव ,, आपके अंतर्मन का प्रहलाद आहलादित हो |
" ---- विजयलक्ष्मी

" गद्दार कहूँ बुरा कैसे ... ? जिन्हें नहीं प्यारी भारत माता "




" जयहिंद !! ये शब्द नहीं इक जज्बा है ,
इस जज्बे पर इक जज्बात का कब्जा है
देने वाला अमर रहेगा असली नेता वही रहेगा
झुकेगी गर्दन सम्मान में बार बार जयहिंद कहेगा |"
 -- विजयलक्ष्मी





" दर्द जब जब बिखरा 
हंसता मिला जमाना 
बरसते थे आंसू 
औ खुदगर्जी का मौसम
रंगबिरंगे इंसा
जलते हुए इंसानों ने लाज की बोली लगाई
बेमोल अहसास बिके बेभाव
संगीने छोटी पड़ी
बम खेल तमाशे का साज़-ओ-सामान भर
शब्दों पर कुत्तो से बदतर लड़ती इंसानी कठपुतली
इन्सान जाने कहाँ खो गये
और इंसानियत लापता
जिन्दा लाशे मिली औ चीखते हुए मुर्दे
जलते हुए इंसानों ने लाज की बोली लगाई
बिकती मिली औरते ..बेजार हुए बाजार
चौराहे दिखे नंगे ... और सभ्यता लाचार
बहुत बेरुखी से बिखरी थी जिन्दगी ..
माँ को माँ कहना हुआ दरिंदगी 


कुछ बिके हुए ईमान औ पैगाम में
कुछ को वफा दिखी फिरकापरस्ती के नाम में
कुछ खैरमकदम के बने पैरोकार
कुछ को मगर जिन्दगी लगी बेजार ..
स्वार्थ की लगाम नकेल कस रही रही ,,
दुनिया सब तमाशा देखकर हंस रही थी ,
जिन्हें वतन नहीं प्यारा ...भला क्यूँ लगाये नारा ,,
वो भगतसिंह नहीं है न वो सुभाष प्यारा ,,
वो आजाद कैसे बनेगे जिन्हें जयहिंद नहीं सुहाता ..
गद्दार कहूँ बुरा कैसे ... ?
जिन्हें नहीं प्यारी भारत माता" --- विजयलक्ष्मी




Wednesday 2 March 2016

" सभ्य समाज में होता है बलात्कार क्यूँ ?"

प्रसव पीड़ा ...अस्पताल ........और एक खबर का इन्तजार...बहुत मन्नत के बाद भी इच्छा थी न हो बेटा ... अगर ..... ऐसा ही होना है हर बिटिया को गर कोख में ही रोना है फैसले की हकदार कहते हो चौराहे पर खड़े होकर ...भाषण देते हो नारी के उत्थान के ,,,लेकिन घर में उसे धोंचते हो ......आखिर.... आदमी देहलीज के बाहर और भीतर बदल कैसे जाते हैं |....... नहीं समझ में आया आजतक ,, चार बेटियों को खो चुकी माँ की पीड़ा बढ़ गयी कई गुना | ----- विजयलक्ष्मी

"
स्त्री ..जल रही 
तप रही है ..
धधक रही है अन्तस् में ,,
खड़ी है ,,
हर पल परीक्षा के देहलीज पर ,,
सुरक्षा किससे भला ..
करता भी कौन है ..
सारे पुरुष राम है ..तो
रावण सा व्यवहार क्यूँ...
क्या सारी ही सूर्पनखा है यहाँ ?
कोई बताये ...
" सभ्य समाज में होता है बलात्कार क्यूँ ?"
सडक पर
बस में
कार में
दोस्ती में
अँधेरे में
नौकरी के घेरे में
विश्वास में
क्या देह से जुदा नेह नहीं कहीं ?
और जब स्व की तरक्की के लिए किया जाता है .." इस्तेमाल "
रिश्तों की आड़ में ..
तब
 सका अस्तित्व क्या है अन्नपूर्णा या धनपूर्णा || " 
------- विजयलक्ष्मी