Saturday 30 August 2014

" चलो थोड़ी धज्जियां ईमान की उखाड़ी जाए ,"

चलो थोड़ी धज्जियां ईमान की उखाड़ी जाए ,
थोड़ी सी खपच्चियाँ छान की उतारी जाए 
बहुत गरज रहा है वो थोथे चने के जैसा 
चलो तो क्यूँ न हवा पाकिस्तान की निकाली जाये
दे रहे हैं सीख ..अपने घर में झांककर देखते नहीं है जो 
आओ बुलंद आवाज में वन्देमातरम उचारी जाए 
मौत से डरते तो ईमान से मौन साथ लेते 
श्यामपट से वतन परस्ती की भाषा सिखा दी जाए 
कदम से कदम मिलाकर बढ़ते है मंजिल की 
चलो बिगड़े हुओ की नाक में नकेल डाली जाये
कश्मीर हमारा हिस्सा है सुनो खोलकर कान
जिन्हें सुनाई नहीं दिया कान में गर्म तेल उतारी जाये -- विजयलक्ष्मी

" एक ताजातरीन पैरोडी "



फ़िल्मी गाने पर एक ताजातरीन पैरोडी का आनन्द लीजिये --

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान ,
कितना बदल गया इंसान

भैंसों से भी ज्यादा गया गुजरा हुआ है इंसान
नेता खाते दूधमलाई कर चारे का मिलान
खाकर डकार भी नहीं ले रहे कैसे हो भगवान
कितना बदल गया इन्सान ..

सच मानो भगवन रोटी बिन जी रहे है लोग ,
कोयला थोरियम खा गुजारा कर रहे है लोग
जिन्दा कैसे रहेगा बोलो भूखे पेट भगवान
कितना बदल गया इंसान

झूठ बोलना लाचारी है बेचारी है जनता
सच का मोती कहाँ मिलेगा झूठा हर इक बन्दा
चोरी करना कर्म है इनका, धोखा मक्कारी ईमान
कितना बदल गया इंसान ---- विजयलक्ष्मी 

" ठहरो तो ...सफर पर हम भी हैं "

हवाओ की बात मत करना 
सरहद पर ठिठकती भी नहीं 
किरण सूरज की सरहद को देखती भी नहीं 
बादल अलबत्ता ..दीखते है गहराए से इस और 
समन्दर को बांध डाला तलवार की धार से 
कत्ल करना ही ठहरा कर डालो एक ही वार से 
बंजर खेतो को सींच सींच तुमने उपवन कर डाला 
इन फूलो के गहनों से सजना चाहती है हर बाला 
कुछ बीज मुकम्मल मिल जाते है 
जिनसे फसल उगा लेते हैं 
सच बोलू तो भी झूठ लगेगा
खाद अपने खेत की मिटटी में
थोडा प्यार थोड़े से कांटे
बिखरे अहसास बकाया सांसे
कुछ अरमान तुम्हारे दिल के
थोड़े राग हमारी महफिल के
रात की कालिमा ..सूरज की लालिमा
तारे चाँद सितारे तुम्हारे
पलको की दुनिया के ख्वाब रुपहले
खंजर वंजर चाकू वाकू
सब रखते हैं साथ सहारे
और जिन्दा सा ख्वाब ..
सजता है मजार पर मेरी महक महक कर
तुम्हारी रुनझुन सौगातो की आहटों को लेकर
ठहरो तो ... सफर पर हम भी है -- विजयलक्ष्मी 

Friday 29 August 2014

" खारापन बसने लगा मिठास खो रही हूँ "

" दंश सालते थे बहुत ..अब चुभन लहू में उतर गयी ,
अब मुस्कुराती है उदासी चौखट के भीतर तन्हा  देखकर
तुम नहीं आओगे ... यहाँ जंजीर सिद्धांत की
टीसती बहुत है नम आँखों में बैठकर
बह उठती हूँ समन्दर बनकर तुम्हारी तरह
कश्ती बन तैरी थी भंवर में उलझी
सुलझ नहीं पाई उलझी हुई मैं ..
बरगद की डाली पर लटकी हूँ आज भी बेताल की तरह
बदरा दीखते हैं गगन पर उड़ते हुए भाते हैं बहुत
छूकर गुजरता है वो हर अहसास जिसे तुम पड़ोसी के दर पे रख आये थे
मेरा सूखा आगन चिढाता है जब ..मैं नदी से समन्दर हो जाती हूँ
मेरी आँखों का नमक घुलता है मुझमे ..,अब रिसता नहीं
तुम नमक के सौदगर बन जाओ ..
कभी तो आओगे ...कोई बहाना भी तो हो
गुलाब न सही नमक भी चलेगा
सौदे की बात है ..लेकिन -
तुम ठहरे व्यापारी ...नफा नुकसान देख लेना अपना
हमारा क्या है ..धीरे धीरे गल जायेंगे नमक में दबकर
सुनो ........लगता है ,
"समन्दर में डूबी हूँ ..समन्दर हो रही हूँ ,
खारापन बसने लगा मिठास खो रही हूँ "" -- विजयलक्ष्मी
समन्दर में डूबी हूँ ..समन्दर हो रही हूँ ,

खारापन बसने लगा मिठास खो रही हूँ -- विजयलक्ष्मी 

" गणपति चतुर्थी की बधाई ||"



गणपति घर घर विराजे ,
सबके घर मंगल साजे ...

" कार्तिकेय और गणेश ...सहोदर ..कार्तिकेय वीरता के प्रतीक ,जनगण की सुरक्षा के अर्थ निहित ..और साथ में ..प्रथम पूजनीय पदासीन गणपति ..सत्ता के गुणों के प्रवर्तक उनके स्वरूप से निर्धारित होती है ... सत्ता की गुणातीत आवश्यकता ..बुद्धिमान चतुर ... हाथी के दांत ..अर्थात डर बना रहना चाहिए सत्ता का ...बड़े कान अर्थात हर छोटी बात पर ध्यान ... लम्बी सूंड ...जनगण की वेदना सम्वेदना को सूंघने की क्षमता ..(जनगण की वास्तविक आवश्यकताओ की जमीनी हकीकत से जुड़े रहना )..वाहन मूषक.....अर्थात ... दिखावा करती लम्बी कतार का जमावड़ा न हो ... (कार्यकरने वाले व्यवस्थित रूप से कार्यरत रहे .....व्यर्थ के खर्च और सत्ता के कारण जनगण को परेशानी का सामना न करना पड़े .......बड़ा सा शरीर ... कद्दावर प्रभावशाली व्यक्तित्व ..: कोई कुछ भी कहने से पहले सोचसमझ कर  बोले .. महाकाल और शक्ति का हाथ सर्वथा सर पर रहे अर्थत अध्यात्म के भी विकास हो ...हाथ में पुष्प एवं परसा अर्थात मन कोमल किन्तु निर्णय सख्त हो और उनका अनुपालन भी हो ...ऐसे परम देव .. जिनके आने पर घर में (देश में ) खुशहाली हो ..मंगलगीत गूंज उठे ..खुशिया नाचती गाती मिले ..|| "

"कार्तिकेय स्व और साहस के प्रणेता जीवन साहस और शौर्य के वर्धक " ये अलग बात है सत्ता गणपति को प्राप्त हुयी किन्तु... गणराज्य विरासत में मिले , पुरुस्कार में या पुरुषार्थ से तथापि निर्वहन गणपति-गणेश के समान ही होना चाहिए ....कठोरतम दिखने वाले पालक के मन में प्रेम और सह्रदयता निवास करे ,प्रजा भयमुक्त हो ! नव-सृजन शुभ व लाभकारी हो !

..........इन्ही प्रतीकों के स्वामी गणपति का आगमन आप सबके लिए मंगलमय हो ...गणेश चतुर्थी की बधाई || ---------- विजयलक्ष्मी 

Thursday 28 August 2014

" मन पंछी "




मन पंछी 

उड़ता  
नीलगगन 
छूने 
सूरज को 
झुलस झुलस भी रुकता कब 
गर जिन्दा है अहसास 
कभी 
बह उठता 
जलधार सा 
अनवरत 
प्यास लिए
सहरा में 
उफनती नहीं नदिया 
या ..
लीलती है 
जिंदगियां
कभी 
चाहत 
पागल पवन बन 
उडती फिरू 
उपवन उपवन 
महका दूं 
हर फूल 
उड़ा दू 
बादल ..
बरस जाये 
जीवन वर्षा 
न रहे प्यासा 
फिर कोई 
या 
धरती बन ठहरू 
सूरज के संग 
लिए 
हर रंग  
पागलपन 
सुख दुःख का बाना 
सुंदर रुपहला सा 
पलको पर 
सुनहरा सा 
एक ख्वाब ठहरा सा 
----

 विजयलक्ष्मी 

Wednesday 27 August 2014

"और मैं ....मुस्कुराती हूँ "

एक सच सुनाऊ ..
मनन करना तुम 
बताना क्या गलत हूँ मैं 
मैं जानती हूँ 
समझती हूँ तुम्हे 
और तुम 
तुम जीतना चाहते हो मुझसे ..
और मैं ...
मैं भी जीतना चाहती हूँ 
लेकिन ..तुम्हे ,
तुमसे नहीं 
तुम्हे हार पसंद ही नहीं 
और मैं ..
हाँ ...मैं हारती हूँ
तुम्हे खुश देखने के लिए 
तुम मेरी हार मुस्कुराते हो 
और मैं ..
मुस्कुराती हूँ 
तुम्हारी मुस्कुराहट पर 
और तुम ..
संतुष्ट करते हो अपने दम्भ को 
और मैं ..
बस "अपने प्रेम को "-- विजयलक्ष्मी 

Monday 25 August 2014

"मुझे खौफ इक यही है ये सफर थम न जाये "

राह ए सफर में हूँ मंजिल की खबर न पाए |
मुझे खौफ इक यही है ये सफर थम न जाये ||

ये जो मजलिसे मिली है लगती पडाव सी |
मुश्किल में जान मेरी ये कदम थम न जाये ||

सिलसिला ए मुलाकात चलता रहे यूँही |
है बहती हुई नदी सी कही बर्फ जम न जाये ||

हर शैह लगती प्यारी दिलकश हर नजारा |
है शमशीर लिए जमाना रंगत बदल न जाये ||

तेरी बन्दगी खुदारा मुझसे न रूठ जाना |
रहूँ सफर में साथ तेरे कोई राह बदल न जाए || ---- विजयलक्ष्मी

" अहसास से कोई दीवाना लगता है "

इन आँखों की नमी और तुम 
रिश्ता सदियों पुराना लगता है

जलता मौसम धुप से छनकर 
किस्सा जिन्दगी पुराना लगता है

समन्दर से उठकर उड़ते बादल
दुश्मन जन्मो से पुराना लगता है 

नदिया में भंवर है टूटता पर्वत
दर्द ही मौत का ठिकाना लगता है

तसव्वुर में दीदार नहीं होगे यूँभी
अहसास से कोई दीवाना लगता है

खामोश हुई आवाज से मिलना
सुना हुआ कोई अफसाना लगता है-- विजयलक्ष्मी 

Saturday 23 August 2014

" तुम्हे मैला नहीं कर सकती "

तुम नहीं बोले ..
सवाल मुझे कचौटता रहा 
मैं ही गलत हूँ ..
या गलत गदला हो चुका है मेरा मन 
मेरी यात्रा प्रेम से शुरू प्रेम पर खत्म होनी तय थी 
ये देह कहाँ से आगयी 
जैसे भैसे वेश्या हो तलैया में लेटी मैली सी मिटटी में सनी 
क्या सचमुच तुम्हे लगा ..
मैंने देह भेजी तुम्हारे पास ..?
या देह मांग ली तुमसे 
मैं सदमे में हूँ आजतक
आत्मा में इतना असर देह का
क्या सचमुच सड़ चुका है मेरी आत्मा का व्यवहार
क्या मेरी भावना का प्रेम नहीं है आधार
अगर हाँ ,..तो लज्जित हूँ मैं ..तुम से ..अपने आप से
मेरा त्याग किया जाना ही उचित है
देह को देह की जरूरत ..
गड़ रही हूँ मैं कही अँधेरे कोने में रात के
मुझे छूना मत ..
तुम्हे मैला नहीं कर सकती कभी
अपमान होगा ,
प्रेम का ..
मेरे भगवान का
हाँ ..पूजा था तुम्हे भगवान बनाकर
और ..भूल गयी थी देह और उसकी कामना
भूलवश कहूं या जो भी तुम चाहो ..
गुनाह किया तो सजा भी जो तुम चाहो ..
मेरी मंजिल के रास्ते में देह ,,
मुझे झुलसा गयी ये आग
बाकी ...क्या कहू
या मैं छद्म आवरण हूँ भीतर से बाहर तक 
तुम नहीं बोले ..
सवाल मुझे कचौटता रहा 
मैं ही गलत हूँ ..
या गलत गदला हो चुका है मेरा मन 
मेरी यात्रा प्रेम से शुरू प्रेम पर खत्म होनी तय थी 
ये देह कहाँ से आगयी 
जैसे भैसे वेश्या हो तलैया में लेटी मैली सी मिटटी में सनी 
क्या सचमुच तुम्हे लगा ..
मैंने देह भेजी तुम्हारे पास ..?
या देह मांग ली तुमसे 
मैं सदमे में हूँ आजतक
आत्मा में इतना असर देह का
क्या सचमुच सड़ चुका है मेरी आत्मा का व्यवहार
क्या मेरी भावना का प्रेम नहीं है आधार
अगर हाँ ,..तो लज्जित हूँ मैं ..तुम से ..अपने आप से
मेरा त्याग किया जाना ही उचित है
देह को देह की जरूरत ..
गड़ रही हूँ मैं कही अँधेरे कोने में रात के
मुझे छूना मत ..
तुम्हे मैला नहीं कर सकती कभी
अपमान होगा ,
प्रेम का ..
मेरे भगवान का
हाँ ..पूजा था तुम्हे भगवान बनाकर
और ..भूल गयी थी देह और उसकी कामना
भूलवश कहूं या जो भी तुम चाहो ..
गुनाह किया तो सजा भी जो तुम चाहो ..
मेरी मंजिल के रास्ते में देह ,,
मुझे झुलसा गयी ये आग
बाकी ...क्या कहू
या मैं छद्म आवरण हूँ भीतर से बाहर तक --- विजयलक्ष्मी 

Thursday 21 August 2014

"जलप्रपात ..नर्तन "



धवल स्वच्छ निर्मल जल जैसे मोती बिखर गये ,
अद्भुत नर्तन करते प्रतिपल ज्यूँ जीवन संवर गये.

-- विजयलक्ष्मी 

" ये अलग बात है ..हीर नहीं हूँ मैं"

सिद्धो ने सिद्धांत सिद्ध खुद कितने किये ,
बुद्ध की बुद्धि का राज कितना बकाया है 
कौए गीत गाये कैसे ,,कोयल ने क्यूँ भैरवी राग सुनाया है 
रात के गलीचे पर चांदनी की चर्चा चाँद से पूछ कर देखना 
सूरज को दर्द क्यूँ है नींद से किसने जगाया है 
साँझ उतर रही है उम्र पर ..
रंग भोर का छाया है 
शातिर लोमड़ी को देखो मातम जंगल में मचाया है 
शेर के घर में फिर बन्दर ने तूफ़ान उठाया है 
बच्चे की अनगढ़ बतियाँ उसे किसने पढाया है
पकड़ लो माँ को उसकी जिसने जन्म का बोझ उठाया है
ये अलग बात है ...
दर्द ने उसे पहले ही सताया है
क्यूँ बिस्तर पर बिखरी देह को रूपये का लालच आया है
माटी ने माटी को फिर भरमाया है
चरित्र की चर्चा में फिर उसने नया पर्चा बनाया है
खुद चौराहे पर खड़ा है कुँवारी देह पर नजर को खूब गडाया है
बेटी थी किसी वह भी किसी की जिसे फातिमा बताया है
मीरा घर न हो मेरे ...
मर्दों को डर सताया है
भूल जाते है कंस का वध औ उसकी उम्र ,किसने खुद को कृष्ण बताया है
इलाज मस्तिष्क का होना अभी बकाया है
भगवा रंग पर देखो खून का समन्दर बनाया है
श्वेत रंग भी तो तुझको पसंद नहीं आया है
मौसम की बात मत करना मुझसे ..
मुझपर प्रेमरंग छाया है
ये अलग बात है ..हीर नहीं हूँ मैं ,
खुद को लक्ष्मीबाई बनाया है -- विजयलक्ष्मी

Wednesday 20 August 2014

" क्यूँ अफ़सोस मरने का कफन गुलों का है "

हर सफर की मंजिल होती है सुना हमने ,
मुहब्बत तो सफर ही सफर है गुना हमने .

थक जाता है मुसाफिर हर सफर में कभी ,
सफर खूबसूरत थकान को कब बुना हमने .

हकीकत से वाकिफ हो दुश्मनी जान लेगी ,
फिर भी रास्ता दुश्मनी का ही चुना तुमने .

बहुत बेतरतीब हैं ये रंजिश ए दुनियादारी ,
कलम हुआ सर मेरा ,आह को सुना तुमने 

क्यूँ अफ़सोस मरने का कफन गुलों का है 
ये अलग बात है गुल काँटों संग चुना तुमने -- विजयलक्ष्मी 

" सुना है आज सद्भावना दिवस है "

सुना है आज सद्भावना दिवस है 

धर्म और सम्प्रदाय के बीच महफिल में रो रही है सद्भावना ,
कुछ जातियों का जोर कुछ निजामो की मुट्ठी में खो रही है सद्भावना ||
कुछ पौरुषता के दिखावे हांडी पर चढ़ बैठे है युगों युगों से 
इंसानियत के अस्तित्व को खत्म करने पर आमादा हो रही सद्भावना ||-- विजयलक्ष्मी 

Tuesday 19 August 2014

" होती रही बरसात भी मेरी टूटी सी छान से "

सुना है ईमान का बाजार लग गया चौराहे
कोई खरीददार मिले तो बताना ईमान से

बहुत शोर है भीतर जब खला को खंगाला
अनजान राहों का पता पूछे कैसे पैगाम से

रंग औ नूर जो बरसता है शहादत ए वतन
देखते रहे गुजरा  कारवा हम खड़े हैरान से

जलाती रही धूप भी छाया ढूंढे नहीं मिली
ठूठ से खड़े हम हुए बिन छत के मकान से

न रकीब की रकीबत न अदावत नसीब की
होती रही बरसात भी मेरी टूटी सी छान से -- विजयलक्ष्मी 

Monday 18 August 2014

ये कैसा समाजवाद है ?



प्रश्न प्रदेश सीमा में सीमाओ को सुरक्षित नहीं बताया है 
हवस प्रदेश सुल्तान की गद्दी को रक्षित नहीं रखवाया है 
यक्ष प्रश्न एक ..सुरक्षा का ही अभी तक बकाया है 
इसीलिए लोगो ने पुलिस को पत्थर डंडे से दौड़ाया है
वक्तव्य मोहन भागवत की मजम्मत की सभी ने 
लेकिन अलगाववादियों पर मुह पर ताला लगाया है -- विजयलक्ष्मी 

" परवाने है बिन बोले ही जल जायेंगे "

तुम्हे रुसवा करके हम किधर जायेंगे ,
रास्ते तो जानिब ए मंजिल ही जायेंगे

तुम जलो शमा बनकर राहों में कहीं
परवाने है बिन बोले ही जल जायेंगे .

उठे ऊँगली जो तुम्हारी जानिब हमारी
हम जिन्दगी भी तुमपर लुटा जायेंगे

शिकवा शिकायतों का दौर क्यूँ आया
मिला हर लम्हा तेरे नाम लिख जायेंगे

समेटते रहे खुद को बामुशक्कत उम्रभर
समेटते रहना ..जब हम बिखर जायेंगे -
- विजयलक्ष्मी 

Sunday 17 August 2014

" आँखे देखती है मन छूता है "

जब सरगोशियों में होती हूँ मैं
मेरा मौन बोलता है ..मेरी आत्मा की आवाज बन
कैसा विरोधाभास ..पूर्ण विश्वास
क्यूँ पूछते हो तुम ..मेरे मौन की भाषा ..
आहत करती है ये बात ..
मौन का रहस्य ..
आँखे देखती है मन छूता है
पुनरुत्थान होता है अवचेतन से सोये मन का जागरण जैसे
सिमटा हुआ उग्र सौन्दर्य ..प्रेरित करता है
उस क्षण सबसे निकट रहता है वो तारा और मैं ,
खो जाता हूँ अशांत मन की ज्वार बनाती पीड़ा की लहरों पर सवार
पुष्पित होते पुष्प जैसे बयार चलती है मेरे भीतर
शांत दिखता है अशांत मन ,,
जहाँ समय के चक्र ने शब्दों को गूंगा बता दिया
आँखों में फैला हुआ मौन का सौन्दर्य प्रकाशित करता है अंतर्मन
तुम वही बैठकर मुस्कुराते मिले न होकर भी
जैसे नशा है और कदम बहकना चाहते थे ..
तुम्हारे साथ ..
मौसम भी चतुराई सीख गया
आँखों में बहती है निर्झरी मीठी बयार लिए झरने की जैसे
दर्द पर मरहम लगा कर समय भी छोड़ देता है
जो बाजार में मिलता है सकूं नहीं देता ..
एक झोंका सा बहता है विचार तुम्हारा लहू के संग
जैसे मीरा रहती हो कृष्ण के साथ
मन के आसन पर विराज
भावो की परिधि में चंचला होती तड़ित छूकर गुजरी जब
जैसे नजरे छूकर गुजरी हो ..सिहर उठती है खुद में ..
और मेरा मौन मुखर होकर गूंजता है
अबोले सन्नाटे के शोर में
थाम अशांत मन के घोड़े बेलगाम दौड़ते रहे जो
वो मधुर क्षण मदिर पवन के कांधो पर सवार..
स्वप्निल स्वप्न तिरा पलको में
जब सरगोशियों में होती हूँ मैं
मेरा मौन बोलता है ..मेरी आत्मा की आवाज बन
कैसा विरोधाभास ..पूर्ण विश्वास
क्यूँ पूछते हो तुम ..मेरे मौन की भाषा ..
आहत करती है ये बात ..
मौन का रहस्य ..
आँखे देखती है मन छूता है --- विजयलक्ष्मी


Saturday 16 August 2014

" कृष्ण जन्माष्टमी मंगलमय हो "




हे पार्थ उठो ,
बहुत सो चुके तुम ,
मैं कृष्ण ,बिराजता हूँ तुम्हारे भीतर ,
कर्तव्य की रणभेरी बजाओ .
शब्दों को गुजार करो ,
शंखनाद करो ,
आह्वान करो नित नये प्रकाश को
जागो ,,
भोर का सूरज बनो
प्रकाशित करो ..जन जन के मन को
तुम्हे अपने भीतर के भय को भगाना है
फैले अंधकार से लड़ना है
जीवन हवनकुंड बनाओ
कर्तव्य की आहुति
और स्नेह घृत के साथ
है पार्थ विराजता तुममे
खुद को बजाओ
आत्मा को जगाओ ..आर्तनाद नहीं शंखनाद करो
उठो ,
जीवन नैया का तुम्हे ही खिवैया बनना है तुम्हे ही पतवार ,
उठो इसबार ..
धारो अवतार ..हे भद्रे ..
मैं कर्तव्य प्रेम से जागृत होता हूँ
तुम्हारे भीतर निवास करता हूँ ,
तुम कृष्ण हो कृष्णमय हो जाओ
जागो ,भ्रमित मत हो
ज्न्माओ मुझे ..
मठ मन्दिरों में नहीं ..
अपने अंदर ,
अपनी आत्मा में
अपने अंतर्मन में
गुंजित करो मुझे
तभी मैं पूजित हो सकूंगा
मैं रथ सारथि हूँ
गांडीव तुम्हे उठाना होगा --- विजयलक्ष्मी

Friday 15 August 2014

" हाँ ,ये भी सच है ."

" युद्ध करने की इच्छा
मर जाती है जब 
इंसान मरने लगता है
समझ लो 
मरना तो सबको है
एक दिन 
यह तो निश्चित हो चुका है 
जीवन नश्वर है 
संसार भी नश्वर है 
अपरिमित अहसास होते हैं 
आत्मा मिटती नहीं यही सुना है लेकिन ..
नहीं मिटी तो भटकती रहेगी 
गगन पर नीले रंग में 
देखेगी 
बिन नयन के पलके झपकाए
नदी पत्थर पेड़ सूरज आकाश धरती 
मैं और तुम ...
मर चुके लोग जिन्दा नहीं होते  
पीपल के पेड़ पर निवासी होते है क्या सत्य है ये 
क्या मुझे भी एक डाल मिलेगी रहने को 
नहीं न ...
बिलकुल नहीं ...भटकती आत्मा को ठिया मत देना तुम 
यही प्रायश्चित होगा .."मेरे प्रति तुम्हारा" 
और मेरी सजा ..तुम्हारे प्रति ..
मुझे ये भी मंजूर है 
इससे भी तुच्छ कुछ हो तो 
मंजूर है ..मंजूर है ..मंजूर है ".----विजयलक्ष्मी 

Thursday 14 August 2014

" हमारी आजादी "



ये तथाकथित आजादी ...वास्तविक आजादी में कब बदलेगी ?-- विजयलक्ष्मी 


1.
माँ हम विदा हो जाते हैं, हम विजय केतु फहराने आज।
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ निज शीश कटाने आज॥

मलिन वेश ये आँसू कैसे, कंपित होता है क्यों गात?
वीर प्रसूति क्यों रोती है, जब लग खंग हमारे हाथ॥

धरा शीघ्र ही धसक जाएगी, टूट जाएँगे न झुके तार।
विश्व कांपता रह जाएगा, होगी माँ जब रण हुंकार॥

नृत्य करेगी रण प्रांगण में, फिर-फिर खंग हमारी आज।
अरि शिर गिरकर यही कहेंगे, भारत भूमि तुम्हारी आज॥

अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथों में।
हजारों सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने हैं॥----चन्द्रशेखर आजाद 



2.
उसे यह फ़िक्र है हरदम….।
नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें,
सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफ़ा रहे,
चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही,
आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ,
ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ,
बुझा चाहता हूँ।
मेरी हवाओं में रहेगी,
ख़यालों की बिजली,
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी,
रहे, रहे न रहे।---- भगत सिंह

3.
हे मातृभूमि ! तेरे चरणों में शिर नवाऊँ
मैं भक्ति भेंट अपनी, तेरी शरण में लाऊँ

माथे पे तू हो चंदन, छाती पे तू हो माला
जिह्वा पे गीत तू हो, तेरा ही नाम गाऊँ

जिससे सपूत उपजें, श्री राम-कृष्ण जैसे
उस धूल को मैं तेरी निज शीश पे चढ़ाऊँ

माई समुद्र जिसकी पद रज को नित्य धोकर
करता प्रणाम तुझको, मैं वे चरण दबाऊँ

सेवा में तेरी माता ! मैं भेदभाव तजकर
वह पुण्य नाम तेरा, प्रतिदिन सुनूँ सुनाऊँ

तेरे ही काम आऊँ, तेरा ही मंत्र गाऊँ।
मन और देह तुझ पर बलिदान कर मैं जाऊँ---रामप्रसाद बिस्मिल 

और कितने बलिदान ....अथवा आजादी का पाखंड यूँही चलता रहेगा --विजयलक्ष्मी


" छान ही उड़ गयी तोडकर जज्बात.."



" टूटकर बिखरते यही जिन्दगी ने लिखा है नाम ,
जलो अंधेरी वहशत में दहशत से मिला वरदान 
तारीकियों पर गुदा हुआ नाम पढ़ा तुमने कही 
हमे सरेआम ,गहरती रात मिला तुम्हारा पैगाम 
हम अनजान जिन राहों के वो खिलाडी निकला 
बहुत सहज सहज किया हमारा कत्ल ए आम 
हम रो भी न सके जी भरके अपने कत्ल पर 
कब्र में मुर्दा हाल थे इजहार ए वफा लिखी तमाम
भूख के गुलर सुना मीठे लगते है बहुत 
खेत सूखे अपने भरी बरसात प्यासा मरा किसान 
आढतिये के हिस्से लाभ कई गुना 
छान ही उड़ गयी तोडकर जज्बात एसा आया था तूफ़ान "--- विजयलक्ष्मी 
ये तथाकथित आजादी ...वास्तविक आजादी में कब बदलेगी ?-- विजयलक्ष्मी 

Monday 11 August 2014

नाम लेकर पुकारा तुमने मुझे जिस पल 
निश्छल सी आत्मा उस छोर दी चल 
जहाँ गगन ने धरा को सम्बल दिया 
क्षितिज किसने कहा ...अहसास की दरिया उठी पिघल  || --------विजयलक्ष्मी 

Saturday 9 August 2014

" तुम सौदागर ठहरे और हम बेजार बाजार में बेकार "

कुछ शब्द बह गये अहसास की नदी बनकर 
कुछ अटल हो खड़े हैं हिमालय से आत्मा के उसी छोर 
जहाँ तुमने कहा था मेरे शब्द शूल बनकर चुभते हैं और बहती है धारा दर्द की बीन लिए घुन लगे शब्द 
तुम भी जब देखकर नजर फेर लेते हो 
दरक जाता है पूरा पहाड़ बिखर कर सडक पर रोक लेता है राह 
फूटता है स्त्रोत जब मिलेगी रौशनी शब्दों की लालटेन से जगमग जिन्दगी महकती है 
दहकती है सूरज सी ...देव दर्शन दुर्लभ होते हैं सुना था 
लो सफर शुरू कहूं कारवां रुकता है कब 
टूटे हुए उसी पुल पर तार जोड़ते है 
जीवन राग रस पीते है 
जमे हुए बर्फ की वर्क से ढके हम पिघलकर आखिर बहते क्यूँ नहीं 
यही मर्यादा की परिधि है शायद 
नदी के पाट से हम बहे भी रुके भी जमे भी और पिघले और उबल गये
संघनित होकर बरस पड़ते हैं लपेटकर तुम्हारे शब्दों के धागे   
लो बंध गये न फिर से ..
छनकते शब्द बज उठे त्यौहार से 
किसने कहा व्यापर से 
तुम सौदागर ठहरे और हम बेजार बाजार में बेकार 
हसरत भरी निगाह से देखते हैं हर बार 
स्याह सियासत की बिसात बिछी मिलती है हर जगह 
उलझकर भी पतंग सी उड़ने की चाहत.. तुम डोर क्यूँ नहीं बन जाते--- विजयलक्ष्मी 

" रक्षाबंधन सभी के लिए शुभ एवं सार्थक हो "

 बिना सरकारी कर्फ्यू के लडको के लिए कर्फ्यू का सा माहौल ...बस ..ट्रेन गाड़ी सडक ..गली मुहल्ला ..सब जगह सन्नाटा ...अरे भाई कल रक्षाबन्धन जो है ......रक्षा सूत्र बंधा तो मर्यादा में बंधना होगा ....ये संस्कार संकृति बनकर पुरुष की कामुकता को नियंत्रित जो करती है ..सामाजिक मर्यादा सिखाती है ....और जिन्हें इस मर्यादा को नहीं मानना वो कैसे किसी से राखी बंधवा सकते हैं ?

संस्कार और संकृति का अनूठा स्वरूप हमारे देश में ही मिलता है हर रिश्ता संस्कारित है ,,मर्यादित है ...मर्यादा की वर्जनाओं को लांघना सुशिक्षित समाज की परिधि में समाहित नहीं होता ..राखी अर्थात ---रक्षा सूत्र ......इंद्र द्वारा अपनी राक्षस पत्नी शची को पहली बार बांधकर अपने ससुराल वालो से अपनी रक्षा के हित किया गया बंधन था ..... शची से विवाह से नाराज राक्षसों ने इंद्र पर हमला बोल दिया डरपोक इंद्र ने रनिवास में शची से अपने जीवन सुरक्षा की गुहार की थी तब से आज तक बदलते परिवेश के साथ ये रिश्ता भाई बहन के सात्विक और स्वस्थ परम्परा में शामिल हो गया ...इस पर्व पर हर बहन को चाहिए अपने भाई एक ही चीज मांगे ..."वो है नारी सम्मान ".....नारी भोग्या नहीं अपितु सम्मानीया है ..धन दौलत से संस्कार नहीं मिलते ...किन्तु संस्कारित पर एक नई सोच को जन्म मिले ......तो हमारा परिवेश सुंदर और सुदृढ़ होगा ...जो आज की जरूरत है ..जितनी जरूरत लडको में सुधार की है उतनी ही तत्परता लडकियों के वैचारिक परिवर्तन की भी है ...अत: हिन्दुस्तानी संस्कृति की अच्छी बातो को सामने उजागर कर अपने संस्कारों का भी परिचय देना होगा ....तभी रक्षाबन्धन के पर्व का वास्तविक स्वरूप जीवन में उतर पायेगा . रक्षाबन्धन सभी के लिए शुभ एवं सार्थक हो --- विजयलक्ष्मी

Thursday 7 August 2014

" हम जीने चाहत क्यूँ भरते है लडकी में ?"

" पलटकर देखती हूँ जब कभी 
एक दो बरस नहीं ...

चढती उम्र के दयार की और 
दूर तक सन्नाटा बिखरा है कभी अजीब सी गंध महसूस देती है
वो गंध जो कभी सुवासित थी ,
महकती थी हवा में ,चिरैया सा चहकती सी लगती थी 
वहीं कोरा सा सूनापन है 
लगता है श्मशान में हूँ ,,दफन है बहुत कुछ 
जहाँ से खुद को ही छोडकर विदा हुई थी 
वो चौखट ,जिसके कपाट खोलना दूर छूना भी सिहरा देता है 
कब अल्हड़ता के दिन बीते मालुम ही न हुआ 
कब आँखों में दुसरे की इच्छाओं ने सपनों ने पलना शुरू किया ..
या मेरे ख्वाबो ने डूबना सीखना शुरू किया
छलकती और सूख जाती
सब छूटा बचपन ,आंगन ,सखिया स्कूल, घर-दर ,गाँव शहर जिला
और तो और ....नाम को पहचान देने वाले माईबाप.बहन भाई
बुआ चाचा मामा मौसी गौत्र ... किसे किसे गिनुं
दादी का प्यार बाबा का लड़ सब जैसे चलचित्र सा गुजरा
जिन्होंने सपनों को बुनना सिखाया था लील लिया उन्होंने ही
हम जीने चाहत क्यूँ भरते है लडकी में ...और ..
जब वो जीना चाहती है ...तब धीरे धीरे मारना शुरू करते हैं
त्याग कहकर मरने को उकसाते है ,नन्ही उगती कोपल को
पहले पिता भाई के हिसाब से ..
फिर दान दी हुई वस्तु बनकर पति और परिवार के अनुसार
औरत को जिम्मेदारी सौपी जाती है पुरुष को नहीं ,
मतलब सीधा ,,खुद को मारकर जियो
फिर बच्चे ....न हो तो .. अगर हो गये
करियर ये क्या होता है
अपने सपने बच्चो की आँख से देखने शुरू हुए
एक खौफ बैठा है मन में ..
मेरी बेटी को भी ..क्या मारने होंगे अपने ख्वाब मेरी ही तरह
आज उसी मोडपर खड़े देखा उसे भी ...पच्चीस बरस पीछे
उसकी आवाज में वही चिंता थी
वही स्वर वही कोरापन ..
मैं डरने लगी हूँ किससे कहूँ ,,
पुरुष नहीं जानता आँखों के ख्वाब जब बिखरते है कितनी टूटन होती है
उसे तो पूर्ण आजादी मिलती है
कोई प्रश्न नहीं उठता ..न समय का न दोस्ती का
कोई नहीं रोकता किसी भी राह से
उसपर किसी की हुकुमत नहीं चलती ,,
पुरुष हर शौक जीता है अपना ...
औरत उन्हें एक एक करके पी डालती है
और पलके नम हो गयी फिर झपकी एक लम्बी भारी सी
उन लाशों को वही छोड़ घर के बकाया काम निपटाने लगी थी
न अफ़सोस न त्याग ...
बस एक सवाल "हे नारी सिर्फ तुम ही क्यों आखिर
"-- विजयलक्ष्मी 

"वक्त का पहिया चलता चला गया "



"वक्त का पहिया चलता चला गया 
मेरी मुट्ठी खाली थी ..
इन्तजार भी किया .."तुम मुडकर देखोगे "
किन्तु ..
तुम्हे नहीं देखना था ,
तुमने अपने हिस्से इन्तजार खत्म किया ही था 
और हमने ....शुरू किया ..
कुछ मिनट या सेकेण्ड ..बदल जाते हैं घंटो ,महीनों या युगों में ..
या ..समय बीतता नहीं जैसे थम गया हो
हमारी आंख की कोर पर ..
घड़ी चलती है ...
किसी के लिए दौड़ती सी
सबकुछ पीछे छोडती सी
किसी को जैसे सबकुछ मिल गया
और रास्ता जिन्दगी का मिल गया हो
मंजिल के पथ पर फूलो भरा चमन खिल गया हो ..
और कुछ ...
सबकुछ लुटाकर आपही लुटे पिटे से बैठे हो
वक्त लौटता नहीं बहती नदी सा बढ़ता चला गया
और ...
छोड़ गया कुछ निशाँ निहारने को
वक्त पर हमने भी लिख दिता पैगाम ,
देर सबेर मिलेगा जरूर ..
इसी उम्मीद पर ,
सुना है उम्मीद पर दुनिया कायम है
शब्द रबर की तरह खींचते जा रहे है हम
कुछ पल भी द्रोपदी के चीर से बढ़ गये हैं ..
बढ़ते इंतजार को काटने का तरीका
वक्त को भी नन्हा नन्हा काट दो ,
जैसे ...गोया कोई दुश्मन है
 "--- विजयलक्ष्मी