Tuesday 25 September 2012

ख्वाब ले चले हम संग ,

मुस्कराया जाये सहर के सूरज की मुस्कुराहट के संग .
बिखेरे जाएँ धरा पर कुछ इन्द्रधनुष से खूबसूरत से रंग .
रंगीन हों जाये कायनात सारी क्यूँ बहे दरिया उदासी की .
प्यास का क्या है उठने दो कुछ बहक यूँही लहरों के संग .
सहर ए सफर है चल गुनगुना लेते है गुमनाम से गीत .
कुछ गगन के कुछ धरा की खातिर,ख्वाब ले चले हम संग .
आओ मुस्कुराये की मुस्कुराने लगे ओस सी तहरीर गुलों के संग .-- विजयलक्ष्मी 

बस एक गजल बनती है .

सियासत की चाल जब रियासत में बंटती है ,
कोई राह जब दिल ए रहगुजर से गुजरती है ,
खुशबू सहरा की जब कायनात से गुजरती है ,
रेतीली आंधियां रहगुजर की समन्दर बनती है ,
हस्ती कोई खुदी में समाकर जब नजर डूबती है ,
खलिश तपिश को छूकर जब बर्फ सी पिघलती है ,
सामां ए वफा बिखर कर राह से जब गुजरती है ,
वो जिंदगी जब जज्ब हों कर खुद में संवरती है ,
शब्दों की चुभन भीतर अहसास में उतरती है ,
चमक जुगनू की जब सूरज सी निखरती है ,

परवाना जले न जले चाहे मगर शमा जलती है ,
भीतर ख्यालों के हुक सी कोई दिल में पलती है ,
इज्जत के पर्दे से कोई आरजू सी उतरती है,
तवायफ भी जब उस रंग से खरी हों निखरती है ,
दर पे दर्द के पहरे और एक आवाज सर्द बिखरती है ...
कहते है..सुना हमने भी ,बस एक गजल संवरती है .-- विजयलक्ष्मी

Thursday 20 September 2012

मुट्ठी की रेत ..


वक्त ए सकूं की क्या दरकार है अब ,
वक्त किसी के पास है ही कहाँ अब .
वो बहते दरिया ,मुट्ठी की रेत सी हम ,
बिखरा जो रिस कर समझ बिखरा अब .

-- विजयलक्ष्मी .

वट वृक्ष ...


हाँ वट वृक्ष का समूह सा खड़े है हम, जड़े गहरी है बहुत ,
वक्त का तकाजा है चुप रहकर करे इंतजार ए वक्त कोई ,
कौन मुकम्मल दरख्त की छांव से भटके नहीं ...धूप में ,
गुम न हों बेखबर सी जिंदगी के बेबस से सफर पे कोई .
हर मुक्कमल जहाँ मिले हर राह को ..पथ रंजित न हों 
न लहू गिरे कहीं धरती रक्तवर्ण रंजित निशाँ न पाए कोई . 
सभ्यता के देश में बिखरा न हों कोई चमन ..न बागबाँ ,
रूठ कर बिछड़ न टूटे सितारा अपने आसमानों से कोई .
.-- विजयलक्ष्मी

Wednesday 19 September 2012

हम अभी भी कांच है ...

हम अभी भी कांच है न हीरा सा तराशा है किसी ने 
ये अहसास हुआ अब है जब खुद को तलाशा है हमने ..
जख्मों को लिखना औरों के खुशी ढूंढें जमाना भी गर 
मुकम्मल जहाँ बहुत दूर फलक पर बसा है कहीं जाकर ..-- विजयलक्ष्मी 

तुम्हे बेवफा कहूँ उज्र है ...

समन्दर का तूफां कम लगता है जाने क्यूँ ...
जमाने को आग लगाने का मन करने लगा है अब..

जला ए बावफा हमे , मौत ए मंजर हसीं लगने लगा 
जलने में भी जन्नत का सा मज़ा आने लगा है अब .. 

तुम्हे बेवफा कहूँ उज्र है दिल को समझेगा क्या भला
राह ए मुहब्बत ए मंजिल सब एक नजर आने लगा है.-- विजयलक्ष्मी 

सब कुछ सामां बराबर तौलते कब है


है कठिन किन्तु अबूझ कैसे कहूँ ..
द्रोंण को भी खुद को बदलना तो पडेगा ...
वैश्यों की दुकानों का स्वरूप बदलना ही पडेगा 
हाँ , दलालों की दलाली भी खता छोटी तो नहीं है 
तितलियों से चमकता बाज़ार है 
ह्लालों को भी तलवार भांजनी होगी 
टोपियो सर की नहीं सर बदलने चाहिए 
खड़े अगली कतार में नट बदलने चाहिए 
एकलव्य औ अर्जुन को गले मिलना ही होगा
गर समस्या मिटानी है तो ढूंढनी है राह नई ..
अपनी बस्ती को स्वच्छ करने की चाह नई
हमीं पिसते है पर बोलते कब है
सब कुछ सामां बराबर तौलते कब है
मापते कलदार जेब में किसके कितने
सरस्वती को हाथ दलालों को बचतें क्यूँ हो
धार गंडासों की तेज होनी चाहिए
वैश्या बनादी शिक्षा भड़वा समाज हों गया
हर एक हाथ अपना अपना जुदा सा हों गया
प्यास दिल में लगी तो सोचना क्या
नफरतों की आग बुझनी चाहिए
नीतिया राज की ही नहीं दिलों की भी बदलनी चाहिए
हाशिए पे खड़े सरों को आगे आना चाहिए
शब्दोंभेदी बाण तर्कस से निकलना चाहिए ..
सोते हुए शेरों को अब तो जगना चाहिए ..-- विजयलक्ष्मी 
ख्वाबों का तसव्वुर ,तसव्वुर में जिन्हें रखा ,
तस्वीर बनकर जब सामने उभरी होश खो बैठे .

राह ए वफ़ा में खड़ा हों किसकदर जुनूं है यहाँ ,
आग में जलते है औ खुद को ही आग लगा बैठे .-- विजयलक्ष्मी

Tuesday 18 September 2012

ठेलती है जिंदगी किस तरह से


छोड़ कर बस्ती चला तो जायगा ..
जाने से तेरे क्या कुछ बदल पायगा 
कातिल लोक लाज भी यूँ चलेंगी उम्र भर 
जिंदगी का सिला बस गिरता ही जयगा 
आज एक है खड़ी कल मेला लग जायेगा 
जा तुझे जाना है .....तू सभ्य हुआ अपने लिए 
पाया ही क्या है ..जो देता चले 
नफरतों की आँधियों में बह जायेगा 

तख्तियां दिखी न दिखे टूटते ही मन
जिंदगी से झूझते हुए रोते कल्पते हुए मन ..
तन जिन पर कालिख पोत गया कोई
फिर तुझ जैसा आयेगा ...जन्मेगा ..भाग जायेगा
काश .....तडपता दिल तेरा देख पिघलता लहू दिलों का देख कर
जिंदगी और मौत को आपस में लड़ता देख कर
नग्नता क्या है ..भूख्र की हकीकत जानकर
ठेलती है जिंदगी किस तरह से
लाश चलती है सड़क पर लथेड कर.-- विजयलक्ष्मी 

तोड़ दूँ क्या अब बता दे ..

क्या करूं रख दूँ कलम अब बांध कर 
लिखने के दिन गुजरते से लगे 
चोर्य गुण का तस्करा एक रंग है 
और भी न जाने कितने रूप होंगे 
जो व्यथित से करते मिलेंगे 
पर अगर इलज़ाम यूँ लगने लगे 
प्रेरणा मर जायेगी इस आग से 
और झुलस जायगी पश्चाताप में 

मुश्किलों के दौर से खौफ क्यूँ कर भला
नहीं चाहिए ये गुण या कोई कला ..
बेचैन आत्मा झकझोरती है खुद को भी ..
कहीं खुद भी तो यही न कर रहा अमीत
चल छोड़ अब दुनिया कलम
जाने लगा क्यूँ जिंदगी को छल रहा ..
वेदना लाचार बंद है दरों के
कलम रोती है करो में
तोड़ दूँ क्या अब बता दे
हा !! ..मौत का मुझको भी फरमान सुना दे ...
.......विजयलक्ष्मी 

मोहसिन औ कातिल बता गए हमको .

हाल ए दिल उनसे पूछा था हमने ..
मुश्किल गिना भी गए वो हमको 

वक्त ए दफन का माजरा क्या कहे 
मोहसिन औ कातिल बता गए हमको 

बताते बताते मर्जी गर्द ए दश्त 
किस गुनाह की सजा सुना गए हमको 


मेरी वफाओं को खुदारा वो खुद ही
साजिश ए तूफां बता गए हमको

क्या कहे अब हम हालत ए दिल अपना
कयामत ए खुदा बता गए हमको ..-- विजयलक्ष्मी 

हर कोई रूप का पुजारी ...

हद कमाल इंसान दिवालिया हों गया 
उद्देश्य एक सबका लड़की हथियाना हों गया 
ये मानते नहीं वो भी ती जिंदगी है 
उसे भी चाहिए एक बेख़ौफ़ जिंदगी है 
जाने शहर ये सारा क्यूँ वासना का पुजारी 
लड़की क्या दिल से चाहे ....हर कोई रूप का पुजारी ..
सोच उसकी क्या ये जानना नहीं है 
समान से ज्यादा कुछ मानना नहीं है 

भुनाओ जवानी उसकी
कुछ नोट बनाने के वास्ते
बेचते है भावना अपनी रोटी के वास्ते
बहुत बीमार है इंसान दिल ओ दीमाग से
मानता नहीं कि करना इलाज होगा
जो समझेगा ही न दिल को..
उसका क्या भला होगा ...
लड़की को सारे अपनी बपौती मानते हैं
झोली लेके कैसी कैसी दर को छानते है
खुद करने की हिम्मत नहीं है ..............
लड़की को तन को बेचते है
मानसिकता सबकी एक सी ही लगती
कोई बेच खाता है रोटी
कोई रोटी की खातिर बेचता है ...
खुद किसी लायक नहीं
....
इसीलिए -
लड़की पटाओ .....
कह कर समान बेचता है .....-- विजयलक्ष्मी 

तलाश खुद की

ख़ामोशी निशब्द हों कर भी ,शब्दहीन कहाँ रही .
चुप्पी शब्दों की नीरवता को बेधती थी हर जगह ||

आवाज कानों को छोड़ ह्रदय के उस छोर चली .
कान तरसते ही मिले खड़े राह में बसेरा यूँ एक जगह ||

जंजाल शब्दों का जंगल बन चला है तलाश खुद की .
किस आस पर जिन्दा रहूँ अमीत खो गयी वो अब कहाँ ||विजयलक्ष्मी 

Monday 17 September 2012

दर्द है ..खुशी के कुछ पल ..

मुखौटों की  ही दुनिया है ..
हर और देख तो ज़रा 
मेरे चेहरे का सच किसी को रास भला क्यूँकर होगा ..
सबके पास चेहेरें और मुखौटे है ए सच ही तो है 
सभी जिसकी जो पसंद वाला मुखौटा चढा लेते हैं 
कोई मक्कारी का कोई फितरती का 
कोई दोस्ती का कोई भ्रष्टाचारी है मगर ईमानदारी का मुखौटा लगाकर बैठा है 
मेरे मुखौटे में क्या खराबी है तू ही बता ...

एक मुस्कुराहट है, दर्द है ,खुशी के कुछ पल है
मैंने किसी का कत्ल तो नहीं किया ...
कोई फिर भी मरना चाहता है तो मेरा मुखौटा उतरता भी है
ये जिंदगी है शयद बिना मुखौटे के जिंदगी तुम जिंदगी भी नहीं हों
तुम्हारे बिना ए मुखौटे !बता मेरी पहचान भी क्या है.- विजयलक्ष्मी 

बर्फ ने लील लिया पांतो को ..

इस उजड़े चमन में ,बहार आई थी कभी.
दरख्त सूखे न थे ,पाँते भी रंग लाये थे कभी .
खिलते थे फूल कई रंगों के ,हाँ बहार भी लजाई थी कभी .
थी गुंजार भौरों की ,गीत पंछियों ने भी गाये थे कभी .
आज बदला है रंग तकदीरों का ,मिजाज सूरज सा जलता है अभी.
रंग तो लाल है अब भी धरा का, धारा लहु की बहायी थी कभी .
हरियाली गहर गयी काली घटा में ,बर्फ ले लील लिया पांतों को|.
छीन कर वक्त ने हंसी लबों की , बंजर धरती बनाई थी तभी .- विजयलक्ष्मी 

आम आदमी ..

.
सुन ,.समर भी हूँ ,हुनर भी हूँ मैं ..
पलटते वक्त की गुस्ताख नजर भी हूँ मैं 
वो अदना सा आम आदमी भी हूँ मैं 
रण में खड़ी तो उसका बसर भी हूँ मैं.- विजयलक्ष्मी 

लाशों को कफन भी न मिला ..

अब कहाँ खिलते चमन ,जलते हुए है आसमां 
मुफलिसी की ओढ़ चादर, तकते हुए हैं हर निगाह| 
नग्न तन बंजर हुए मन ,है आसमां भी लापता 
बादलों को साथ ले कर ,वक्त भी चलता बना |
उम्र बचपन की खो गयी ,मुफलिसी की भीड़ में 
आसमां अपना नहीं था ढूँढें मिला न कोई निशां |
वक्त का ये था तकाजा ,या नाजुक की भूख का असर
दो बून्द न टपका नैनों से ,लाशों को कफन भी न मिला |

थे खिलाते हाथ जिनको, आज भूखे ही सो रहे क्यूँ ?
जो आशियाने बना कर चले ,उन्हीं को मिला न आसमां |
ठिठुरती सी ठंड अकड़ते बदन ,छाती सर चिपकी सिसकियाँ
वक्त से मिले छालों का मरहम ?सुनी मौत की शहनाइयां |
क्या मनुज है ?तनुज न अपने तकाजा है रेशम जड़ा ,
भीतर से खोखर हुए दिल ,कोई चेहरा इंसानी रहा कहाँ ..-- विजयलक्ष्मी 

सोच सखी क्या होगा ...


सोचा तो अच्छा है पर सच कह दूँ
सब्जी के बाजार में लगी है आग ..
ब्रांडेड कपड़े ख्वाब हुए है कार का रह गया नाम |
दालहों गयी नब्बे रूपये, लौकी रूपये चालीस
एक दवा सब्जी केजैसी बिके सैकडा दाम
सोच जरा कैसे होगा अब रसोई का काम |
गैस की जगह चूल्हा पर लकड़ी नहीं मिलेगी
कोयले के भंडार अधूरे, खादी की ऊँची जात
सोच भला कैसे होंवे घर की पूरी बात |
सोना गहना कहाँ रह गया, बेटी ब्याह्वेंगे खाली हाथ
सास ससुर मारेंगे ताना भूखे घर से आई
सोच सखी क्या होगा कैसे मिले दामाद |.-- विजयलक्ष्मी 

सोचो क्यूँ है कांटे संग गुलाब के ..





















सोचो ,क्यूँ हैं कांटे संग गुलाब के ,
कैसा खालीपन है बिन इन्कलाब के ?

मंजिलों कि राह आसां नहीं होती 
क्यूँ सूनापन रोता बिन सैलाब के ?

रिश्ता रूहानी सबब क्यूँ हुआ 
क्यूँकर सिमटी दुनिया बिन ख्वाब के ?


शून्य पसरा क्यूँ समन्दर के खारेपन सा
कमल खिलता कब बिन तालाब के ?.-विजयलक्ष्मी 

ख्वाब की तसीर समझे ...?


जिंदगी तो नाम है ..
जीता हर कोई जज्बात है ,
ख्वाब जैसे भी मगर , जख्मों का अहसास है 
तो बता क्या नैन त्यागे देखना या सहेजना जज्बात को ,
हाँ पता है ...चैन निंद्रा खो गयी है रास्ता ...
फिर भला क्यूँ न ख्वाब रूह को ही बाँट दे ,
नमी के कहने भी क्या ? वो सदा चलती रही है और चलेगी आज भी ,
क्यूँ भला हों देह लालच .....उसके बिना उल्लास है ...
क्या कहूँ ..त्रिकोण ...आयत ,या बस नदी बन बह रहूँ ...
ख्वाह्शें ही ख्वाहिशे ..?अब कहाँ बाकी बची टूटकर बिखरे नहीं ...
ख्वाब की तासीर समझे ...?
तरकश नया चल ही पड़ा ....ला बता ...है बाकी कितना
रास्ता भी माप ले अब ...अब पढ़ लें" किस्सा ए उनवान" भी ..
अब देखेंना जरूर "सत्य की शव यात्रा "या बारात चढेगी
टूटे पुलों की चटकती दीवारें या बह जाना है... क्या चाहता है बोल अब ?
देखतें है अब असर हम खुद ,खुदा उतरेगा या खींचता है अब हमें
हम अँधेरा ही रहेंगे या बनेगे सूर्यरश्मि ....नापनी है खुद की जमीं...
कदमों की आहट का असर ...दिखने भी लगा है
इबारत होंगी खाक में या आसमां का सफर
समय बेल कौन सा पुष्प लिए है या बस एक कैक्टस .--विजयलक्ष्मी 

पथ पर काँटों का हाल कहो ..

विस्तार के अक्षांश को..
खूब नाम करण मिला ..
अशुचिता सत्य है सब 
या बस शब्द मंथन ही समझा 
काश !!शब्द मूक न होते ..देखेंगे अब कौन बोलेगा ..
वसंत का गहन अर्थ खोलेगा 
न आक्रोश का आतप ,बस वक्त की गुहार कहो ..
सोचना संकीर्णता का ..उस पर ठंडी फुहार कहो 
हाँ वजन कुछ ज्यादा होता है कभी प्रहार कहो 

यादें ....जीवन को समेटता हाल कहो .
भीरुता ,भस्म सब बने है शिव की खातिर ...
पथ पर काँटों का हाल कहो ...अमीत
सम्भल जाये तो खुश हैं हम भी ...
वर्ना मस्तिष्क का जंजाल कहो ..
रातों के बुने उनवानों का संचार कहो ..
कुछ अपनी कुछ जग की बस ...
न तकदीरों की बात कहो .-विजयलक्ष्मी 
वक्त बहुत कम है मेरे खुद की खातिर 
जमाने से सबक, लेने का चलन सीखेंगे 

रुलाते है रोने वालों को ही जमाने वाले 
अब वक्त को बदलने का सबक सीखेंगे 

हाथों की लकीरें ही दागा दे गयी हमको 
कलम से लकीरों को अपनी खीचेंगे 

दिल टूट गया सबब मत पूछना हमसे 
अब मौत से उसकी कैफियत सीखेंगे ...विजय लक्ष्मी

घर से निकल कर देख ..

यादों से गुजरते है जो उन लम्हों में आगे बढकर देख ,
वो लम्हे तेरे है भी कि नहीं ,घर से निकल कर देख .--विजयलक्ष्मी



आंचल को छूने वाले बेसबब हलाक हों जाते है ,
जलते है आग मुख्तसर यूँ ही खाक हों जाते है .-- विजयलक्ष्मी



दर्द ए सदा का मतलब बेगैरत नहीं होता ,
मौत साथ लेके चलते है ,चमन जल जायेगा सारा .-- विजयलक्ष्मी



जिंदगी की क्या है दरकार किसे है भला ,
दो पल ही सही जिन्दा है अहसास तो हो हमको .-विजयलक्ष्मी

हमे सब चाहिए ...

हम निठल्ले ठाली और क्या हमको चाहिए ,
है कोई खौफ़जदा सहमी सहमी सी जैसे होश में अभी आई हों ,
संबल बनो उसका,जिसे सांत्वना तुम्हारी चाहिए .
है परेशां हाल, कितनी बार.. लडखडाती सी लगी ,
करो मदद ,फेहरिश्त में है, सम्भालों उसे भी ..
हम तन्हां ,बुरा क्या है ,आदत ये पुरानी सी .
राहगीर मिले... बिछड़े ..घनीभूत से बरसे कहाँ 
तैरते रहे खाली डूबेंगे अब कहाँ ,....? 

पीड़ा जन्म ले चुकी है उसकी दुनिया में ,
उलझन भी है औ नाराजगी भी बहुत दिखी .
सरहाना ,शिकायत ,कशमकश ,लहकना ,बहकना ,
मन्तव्य औ गंतव्य सब परिलक्षित है .
सांत्वना भी चाहिए ,सानिंध्य भी देदो उसे .
मेरा है .....वर्ना क्यूँ कर रुकेगा ...
नमी, जमीं को गीली कर चुकी .....लगता है कई बार .
चमन खिलाने की कोशिश में सहरा हुआ जाता है वो .
अंतर्द्वंद है अंतर्द्वंद में.... झलकता उसका.. मुझे भी ,
हम तो हम है ..
हम ..राह ......सफर ...मंजिल ..?
जिंदगी या मौत बस यही है ....बाकी कुछ है तो कह दो ...
तैरते रहे खाली डूबेंगे अब कहाँ ..
पीड़ा जन्म ले चुकी है उसकी दुनिया में ...
दर्द ..चुभन ......काँटे.....शूल ..हमे सब चाहिए ..
भौकने को नोक,...... सुई भी चाहिए .....विजयलक्ष्मी

बीतराग मेरे मन का ...



प्रति पल क्यूँ यादों के झूलें पेंग बढा देते ..
प्रति पल हम दृग उनसे ही क्यूँ उलझा लेते ..
है प्रतिबिम्बित वही चेहरा आज तक भी ...
किरणों में सूरज की क्यूँ खुद को है पा लेते .
मन का द्वंद समझ न आया बस प्रति पल ..
अपने को भावों में संग तेरे ही उलझा लेते .
तेरे नैना दर्पण बन मुझसे ही बातें करतें ..
बीतराग मेरे मन का, तेरे नाम है लिख देते .--विजयलक्ष्मी

रूहों की उदासी का सबब कुछ नहीं...





हसरत ए इल्जाम किसे प्यारी होगी ..
इहलाम की बात हों तो कुछ बात बने ... 
कुमुदनी तो चाँद के साथ चली है ...
कमल साथ मिल के खिले तो कोई बात बने ..
ख्वाब नैनों में सजते है सदा ही सबके ..
ख्वाबों में ही कोई ख्वाब सजे तो बात बने ..

सहमी सी साँझ का पहर बीत गया
सूरज दामन थाम के चले तो कोई बात बने ..
रूहों की उदासी का सबब कुछ नहीं
यकीं ही नहीं अब तक कैसे कोई बात बने ..vijaylaxmi

शब्द गुनगुना रुबाइयों सा अब ...

साँझ की बेला की ओर चल दिया सूरज 
सच है , दीप साँझ का जला अब .

इबादतगाह भीतर बना अपने सोचना क्यूँ 
रहमगर की दुआ भी मिलेगी अब .

पहचानता है तू मुस्तकबिल अपना खूब 
शब्द मांगते है तेरा ही असर अब. 


घिसी हुयी एडियाँ दिखी ... कलम में बसी है .
काफिला था साथ दिखा है अब .

घर की दीवारें सील आयी थी, मौसम सुखा है
गुनगुना शब्दों को रुबाइयों सा अब .

ख़ामोशी बोलती है सुनी ? क्या कहूँ बता दे
ये शब्द काम के नहीं शायद अब .-- विजयलक्ष्मी 

चूडियाँ भी क्रांति करती है हिन्दुस्तान में ....

तलवारें काम नहीं करती अपना ...
खंजरों को उतरना ही पड़ता है मैदान में .
मशाल जलाई तो गलत क्या है ..
चूडियां भी क्रांति करती है हिन्दुस्तान में .
राह खोदी है तो भुगतो उनको ..
तपिश नहीं मिलती कभी यूँ भी ठंडी राख में.
बहुत हुआ खेल चिडिमारी सा ..
उड़ जायेंगे कबूतर संग है फंसे जो जाल में .
जाती है नजर क्षितिज के इतर ..

जर्रो को भी माप, माना रौशनी है आफ़ताब में.
कुमुदनी माना रात को खिली ..
कमल दरिया में नहीं,वो खिलता है तालाब में.
रुबाइयाँ गुनगुनाने वाला समझा है ,
मेंढक के टर्राने से बादल बरसते है बरसात में
माना रोशन चिराग हों सोचो तुम ..
फोड़ेगा भाड़ अकेला चना,पढा था किताब में .
सबब चुप्पी तुफाँ भी हों सकता है ..
बोला था ,तलवारे रखी नहीं है अभी म्यान में .--विजयलक्ष्मी

Sunday 16 September 2012

ये बंसरी आज क्यूँ बज रही है ..





रंग जितने भाते है मुश्किल पकडना ,
हर गली हर नुक्कड़ से निकलना ,
खुशबू भी दम भर अगर भर ली भीतर ..
चमन के माली का देखो बिगडना ..
खुल के हकीकत जीना ,पुरुषों की दुनिया में ....
समझो आफत गले पड़ गयी है ..
पूछंगे सारे तभी बढ़के आगे ..
ये बंसरी आज क्यूँ बज रही है .-- विजयलक्ष्मी

कदमों का क्या करें ..



तलाश राह ए मंजिल औ कदमों का क्या करें ,
ठहरने का अभी मुकाम ,कदमों तले छिपा है .
ढहने लगेगी दीवारें भी किसी रोज भूकम्प से ,
जो कहीं नहीं है वो बस परछाइयों में छिपा है .
मौत को भी एक बार धोखा तो दे दूँ मगर ,
धोखा कहाँ जाने किन गहराइयों में छिपा है .
मजबूर हम भी है आदत ए शुमारी से अपनी ,
कमबख्त कायर न हुए,लहू कुछ ऐसा रंगा है .-- विजयलक्ष्मी

बह चल लहराकर ..

जीवन मिलता है जिंदगी को तटों पर ,
ए नदी न बह इस कदर सैलाब सी .
तेरी जिंदगी किसी एक की कहाँ ,
बह चल लहरा कर ,न रुक तालाब सी .

किश्ती, तटों के पत्थरों से टकराई ,
तट पर ही मिलेगी टूटने के बाद भी ,
वक्त का गिला, न जन्म का सिला ,
फासला मौत का दरमियाँ आब सी .-- विजयलक्ष्मी

Saturday 15 September 2012

यादें है उनकी ..



"मेरे आँगन में यादे है उनकी दरख्त बरगद सी ,
मेरे झूलने से पहले पेंग बढा देती है आसमानों में ."
--विजय लक्ष्मी

वक्त को हमारा पता देदो ..

उसकी खुशी की कीमत गर आंसू है मेरे ..
खुशी मिल जाये उसे तो अच्छा है 

गुल उसकी राहों के खिले काँटों की कीमत पर 
कांटे मेरी राह से मिल जाएँ तो अच्छा है 

सुरीले से गीत लबों पर खिले उसके ..
गम की लडियां मेरे दर आये तो अच्छा है 


उनको खुश रहने दो बहुत सताया है वक्त ने
"अमीत "वक्त को हमारा पता देदो तो अच्छा है

मै तुझको समेट लूँ,बिखरने से पहले तेरे ,
या खुदा ,खुद ही बिखर जाऊँ तो अच्छा है.--विजयलक्ष्मी

रहमत ए खुदा मिले जा तुझे ....

जिसे खुद का नहीं पता, गिला क्या करेगा किसी से ,
मुबारक उन्हें दिल की राहें,उज्र क्यूँ किसी की खुशी से .

यादें वादें ,बातें सलाहें ,एहसास देकर भी मिलते नहीं ,
दामन में जिसके सम्भाले वही ,उज्र क्यूँ किसी की खुशी से .

हाँ, बे-दर रहे अब यही ठीक है, बेदिली हुई मेरी यूँ भी,
आंसूं की तल्खी बहेगी नहीं, उज्र क्यूँ किसी की खुशी से .

रहमत ए खुदा मिले जा तुझे ,बददुआ का असर क्यूँकर ,
दवा ओ दुआ दोनों दिए ,क्यूँ अब दिल लगाना किसी से .---विजयलक्ष्मी