Sunday, 1 September 2013

प्रथम सप्ताह


3.निमिष भर को पलक झपक और निहार ले खुद में ,
चमका था चाँद भी रात, चांदनी को बसाकर खुद में 
अब तन्हाई कभी तन्हा नहीं मिलेगी तुझको खुद में .
आइना हूँ तेरी रूह के अहसास का ,उतार ले खुद में - विजयलक्ष्मी










2.शिखर से लौटना

शिखर से लौटना 
झुकना ज्ञान पाकर 
थमकर चलना गहराकर 
लौटना कर आना जमीं पर 
घरौंदा तो जमीं पे ..
असमान पर सितारे 
पिंजरा हुआ बंधन 
मन पंछी क्षितिज बंधा 
मौन पसरा तोडती है वही चीख 
रही जिन्दगी शमा बन 
मन पतंगा अब जला .- विजयलक्ष्मी











वक्त की रागिनी बजी

1.
वक्त की रागिनी बजी 

माधुरी सी बांसुरी गुनी 
स्वर उठेंगे गूंज 
तट पर नहीं 
लहरों के उपर 
अथाह बिखरे रंग 
सूरज डूबता सा 
दिन टूटता सा 
अहसास के मोती लिए 
जब क्षितिज गगन 
एकाकार हुए थे
कागा गा उठा पंचम सुर
कोयल हक्लाती बोल उठी
उफ़ !
सूरज क्यूँ पूरब में डूबा
और धरती गहरा उठी
सूरज को न पा ..
मनुहरिन और पुजारिन
ये क्या ..
मृत्यु शैया .
नहीं ...
शांत जीवन ..
निष्णात अंत
उद्विग्नता का समापन
नफरत और ईर्ष्या से दूरी
सिर्फ "तुम "
आजादी भी है
मुहब्बत भी है
मालूम है हम केंद्र है एक दुसरे के
और
तुम
कदाचित चिंतित हो
निवारण हो जायेगा
मुस्कुराहट उभरेगी
रहस्य ...नहीं
प्रेमरस है
जिसे पीकर ...
जिन्दा हो जाउंगी
सदा के लिए
साथ दूंगी तुम्हारा
रम जाउंगी
आत्मा के उसी छोर
मैं !!
लगाते हो आवाज
जहा से ..
तुम . - विजयलक्ष्मी


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