वर्णमालाओ का शहर
क्या मिले
सकूं के शजर
शब्दों के सुंदर दोने ..
कही लगे तो नहीं खोने
कुंजन मे ..कलियन में
गाँव की गलियन में
शहर के शोर में
चित्त के चोर में
बैठकर भिगोने में
नदिया किनारे पर
लहर के इशारे पर
कश्ती सी मैं
बह चली
दिल के इक कोने में
वो
जो तस्वीर है एक
जिसपर
टिकती है नजर
अनायास ही
हटाती हूँ सप्रयास ही
बैठ जाते हो
मात्रा से
तुम
कभी सूरज बनकर
कभी चाँद
कभी फूल तो कभी पवन बनकर
झिंझोड़ देता है झंझा सा
मुझको
और वही एक अहसास
तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहने देता
मुझको
चलता है साथ
न होकर भी पास
कैसे कहूं दूर
जैसे नील गगन पर
चकमक सा
धरती और अम्बर से
खोलकर खिड़की
जैसे
क्षितिज पर हो खड़े
"मैं और तुम ".
विजयलक्ष्मी
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