Wednesday, 11 September 2013

......की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी .


"घरों की बात निकलकर सडकों पे आ गयी ,

रंज ओ गम की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी .

फिरका -परस्तों ने होली निरी लहू से खेली 
दंगई बलवों की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी 

खो गया है चैन ही दिलों से वतनपरस्तों के ,
उगी नफरत की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी .

चैन ओ अमन को मयस्सर कब कोई मुकाम 
उफ़ !बेचैनियों की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी 

समझ से परे हुयी प्रजातंत्र की ये सियासती
सियासी नपुंसकों की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी."

- विजयलक्ष्मी

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