"घरों की बात निकलकर सडकों पे आ गयी ,
रंज ओ गम की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी .
फिरका -परस्तों ने होली निरी लहू से खेली
दंगई बलवों की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी
खो गया है चैन ही दिलों से वतनपरस्तों के ,
उगी नफरत की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी .
चैन ओ अमन को मयस्सर कब कोई मुकाम
उफ़ !बेचैनियों की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी
समझ से परे हुयी प्रजातंत्र की ये सियासती
सियासी नपुंसकों की बाढ़ तबस्सुम को खा गयी."
- विजयलक्ष्मी
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