Monday 25 May 2015

" बदलता रुख लिए मौसम का मिजाज चख लेना ,"



बदलता रुख लिए मौसम का मिजाज चख लेना ,
भीषण गर्मी है छत पर पानी संग दाने रख देना .
बात अहिंसा की दौर ए जोर संगीनों का दिखा ,
अपने मिजाज में दोस्ती का कोई कोना रख लेना .
बेज़ा दौर आक्षेप उपेक्षा का राजनीतिक गलियारों में ,
कटुता में भी राष्ट्र से अपनापन जरा सा रख लेना .
गर कहूँ सच है मनमौजी हो चुकी ये नई पीढियाँ
तरक्की की राह में कुछ मेहनतकशी भी रख लेना .
भूख तो भूख है मुफलिस की हो या अमीर की ,
फास्टफूड की जगह शाकसब्जी भी चख लेना .----- विजयलक्ष्मी

Friday 15 May 2015

" आत्मा मुस्कुराएगी जिंदा होकर "

झूठी दुनिया मे सब झूठ हो सकता है
लेकिन एक सच भी है 
जिसे कोई नहीं झूठला सकता
न नफरत न मुहब्बत 
वो है बहुत खूबसूरत
हर फसाद का अंत
हर जीवन का डर
लेकिन टाले नहीं टलती
उसके आगे किसी की नहीं चलती
जिंदगी भी जूआ डाल देती है
उस सच का सामना करना होगा एक दिन
और उस दिन ... मिलना उस सच्चे लम्हे के बाद
जब देह छूट जाएगी
और आत्मा मुस्कुराएगी जिंदा होकर
जब मौत का उत्सव मनेगा ।
---- विजयलक्ष्मी 

Sunday 10 May 2015

" मदर्स डे मनाना है ..तो ...सबसे पहले माँ की गाली देनी बंद करो "

" " मदर्स डे मनाना है ..तो ...सबसे पहले माँ की गाली देनी बंद करो " वरना फेस्बुकिया दिखावा क्यूँ ? "















माँ ,
जाने कितनी माएँ विद्यालय गयी नहीं 
शिक्षा शब्दों की कितनी ने सीखी भी नहीं 
नहीं पढ़ सकती खत किसी का भी हो 
लेकिन पढ़ लेती दर्द बच्चों का आँखों में दर्ज हुआ 
नहीं सीखी कितनी माओ ने लोरी की तान कभी
उठती उच्छ्वास प्रेम की डोर बनी ममता का राग
कितनी माएँ है जोड़ लगाना सीख नहीं पायी पैसो का
लेकिन जोडती रही सुख के लम्हे लम्हा लम्हा पैसो सा
किसके गणित किसके हिसाब ,,
किसका अर्थशात्र देखके ममता को लुटा रही
माँ ही है जो प्रेम का दिन रात जुगत बिठा रही
बच्चों के पेट की भूख का भूगोल मालुम है उसको
नहीं पता देश की राजधानी दिल्ली नाम है जिसका
दिन और रात किसे कहते है भूल गयी है ..
अपने बच्चे की खातिर मौत पर झूल गयी है
घर की सीमा में राजमहल बना बच्चो राजा सा सजा रही
नहीं माप सकती घर की उंचाई ,,न खिड़की का आयताकार क्षेत्रफल
पर माप लेती है दर्द ली उठती लहर मन के समन्दर में
न कोलम्बस बन ढूंढ सकी दुसरे देश की राह ,,न नभ में पंछी बन उड़ने की चाह
हर सपन सलौना बुन डाला ममता के धागों ने ,,,
दे देती है पंख बालक के सपनों की दुनिया को पतंग बना खुला सा आकाश
माँ ममता में पी एच डी जाने कितनी कर डाली
देखो खोलकर आँख नहीं कोई माँ सा माली
लेकिन अफ़सोस ...वही माँ ,,
बात बात पर बेबात भी मगर ..
हर जुमले हर लफ्फाजी में ,,गुस्से में सदमे में
यारों में दुश्मन से ...गली सडक नुक्कड़ के क्या कहने
घर घर में मन्त्र जाप से रंगे हुए रंग में
जैसे पशु करते है जुगाली
इससे उससे बस खाती है गाली
 " 


माँ ,,साधारणतया जन्मदात्री ही माँ कही जाती ....माँ केवल इंसानों की ही होती हो ऐसा नहीं है ...जितने भी जीवजन्तु दुनिया में पाए जाते है ..सबकी माँ भी होती है ... माँ दौहिक रिश्ते से लगने वाली ही नहीं होती ....जिसमे मातृत्व का गुण है ...जिसमे वात्सल्य की लहरे कुलांचे मारती है ...जो बाल्यवस्था को देख आह्लादित हो ...जो मन दुःख से दुखी और भाव-विह्वल होता है ..मातृत्व का ही लक्षण माना जाता है ... माँ और मातृत्व को नमन .... उन माओं को भी जिन्होंने आंसू और ममता से ऊपर उठकर मातृत्व धर्म को निभाया ...लक्ष्मीबाई सरीखी माँ ..जो बेटे को कमर से बांध मातृभूमि की रक्षार्थ कूच कर गयी ... पन्ना धाय सरीखी माँ जिसने हँसते हुए बेटे को न्योछावर कर दिया ....आजाद, सुभाष ,भगतसिंह सरीखे लाल की माँ होना एक मिसाल है और अपने लाल को सरहद पर रक्षक पंक्ति में भेजने वाली माँओं पर भी गर्व है .

" शहीदों के लहू से श्रृंगार हुआ है भारत माँ का ,
वीर सपूतों ने किया है ऊँचा भाल भारत माँ का ,
माँ तुझे सलाम
 " ----- विजयलक्ष्मी


माँ , जिसने सम्पूर्ण जीवन दिया ....और हमने मातृत्व को मात्र एक दिन ....वो भी पूरी तन्मयता पूरे मन से नहीं ..... सत्य और कटु भी पुरुष माँ की कोख से जन्म लेकर भी जब क्रोधित जुबान खोलता है तब माँ को गली बोलता है ... ये कैसा मदर्स डे है ....यदि सम्भव नहीं तो दिखावा क्यूँ माँ के नाम का ?---- एक बेटी का दर्द


माँ के वजूद से है वजूद मेरा ,
माँ ब्रह्मा की तरह जीवन निर्माण करती है 
भीतर धार जीव को जीवन देती ,
अपनी देह के आकार प्रकार को भले ही तराशती है आज की माँ ,
स्वस्थ हो बच्चा खुद को हर प्रक्रिया से गुजारती है 
जन्म से पहले ही उसे दुलारती है ..
भोजन भी खिलाती जो खुद खाती है
माँ बनने में अपना जीवन वारती है
पालती है विष्णु बनकर वार देती है पूरा जीवन
तन मन धन... माँ सबकुछ कर देती अर्पण
देती संस्कार जगतजननी सम आचार और विचार बनती परिपक्व
और गलती पर होती सख्त देती शिव समान ही दंड ,,भोली सी माँ ..
मारती भी है रोती भी है ,,
अपनी दुआओं से दुःख हर लेती भी है
प्रेम- वशीभूत अपने खाने पानी की चिंता छोड़ लगती बच्चों की खातिर दौड़
कभी न मुख लेती मोड़ ....कितनी भी परेशानी में रहे आप
नहीं सह सकती लेकिन बच्चे का संताप ..
क्या कोई समझेगा माँ को ममता को उसकी वो ...
एक वक्त के दूध में माँ बिक जाती है ,,
बच्चों की खातिर कालिका चंडी बन जाती है
कैसे रच सकती हूँ मैं माँ को ..
क्यूंकि माँ ने ही मुझे रचा है 




" माँ रिश्ता ही होती तो टंग जाती दूकान पर,
माँ रूह होती है जो मिट न सकी श्मशान पर "

मैं हूँ ,..मेरा वजूद ..जीवन ..साँस ..हर लम्हा तुमसे ,,भगवान की उपस्थिति पर प्रश्न नहीं लगा सकती क्यूंकि तुम थी न मेरे साथ ...थी नहीं हो आजभी ...,शरीर से न सही ..मेरी सोच में ..मेरे संस्कार में ..मेरे व्यवहार में ,,इस खौलती हुई दुनिया में मीठा सा अहसास तुम्हारा ही है ...तुम साथ हो ..फिर भी ...कभी कभी मन एकाकी हो जाता है जब कभी ,,,थक जाती हूँ लड़ते लड़ते संसार से ,, दुनियावी दिखावे से चकित होकर ..मन जब स्फूर्ति की तलाश में शरणस्थली खोजने की आकांक्षा रखता है ..उस पल ..मेरी बेचैनी ढूंढती है तुम्हे ...जलते हुए मन को ठंडी छाँव की जरूरत होती है तब ढूंढता है तुम्हे ...तुम नहीं हो सोचकर लगता है मैं जिन्दा तो हूँ लेकिन जीवनधारा की कलकल आवाज के बिना ..डरती हूँ कभी कभी .....कहीं मैं तालाब न बन जाऊं ..जो सड़ने लगता है ,,तुम्हारी खुशबू मुझे आज भी सम्बल देती है तुम्हारा अहसास देता है सहारा ...माँ ..तुम्हारे बिना मैं ..अधूरी सी लगती हूँ खुद को ...
वो बचपन ..वो खेल वो हर लम्हा जैसे कल ही बीता हो और और तुम फिर पुकार उठोगी मुझको ...लेकिन ..., हाँ बनना चाहती हूँ मैं तुम्हारी ही परछाई ..और कुछ भी नहीं ---तुम्हारी बेटी


"  एक तरफ तो जोर-शोर से मातृ-दिवस मन रहा है ,
दूसरी तरफ कन्याभ्रूण हत्या ओपरेशन चल रहा है .
वाह रे समाज ...अजब तेरा न्याय गजब तेरी माया |
चरों तरफ बेटा बेटी एक समान का नारा बज रहा है
बेटी तो सन्नाटा ,,,बेटे के आगमन पर दर सज रहा है
वाह रे समाज ...अजब तेरा न्याय गजब तेरी माया |
कल बीच चौराहे जो बालश्रम विरोध में चिल्ला था
सवेरे बारह बरस के नौकर से बर्तन मंजवा रहा था
वाह रे समाज ...अजब तेरा न्याय गजब तेरी माया |
मदर्स डे का केक पार्टी में जो मंगवा रहा था ,
माँ को कल वही वृद्धाश्रम भिजवा रहा रहा था
वाह रे समाज ..अजब तेरा न्याय गजब तेरी माया | "

" स्वर्ग भी इसीलिए स्वर्ग है क्यूँकि मम्मी वहाँ है...... अन्यथा जमी पर था मम्मी के आंचल की छांव में ।"

माँ ,...सब अपनी जन्मदात्री को माँ कहते है और हम ...हम अपनी दादी माँ को माँ कहते थे सिर्फ हम अकेले नहीं सभी परिवार वाले ...वो ही इकलौती माँ थी हम बहन भाइयों की भी पापा चाचा बुआ की भी ........एक बार गलती से किसी ने दादी कह दिया ...बहुत नाराज हुई ...उन्हें दादी नहीं माँ सुनना अच्छा लगता था ,, ठेठ ग्रामीण अंचल की अलग सी शख्सियत थी माँ ..आज उन्हें याद न किया तो कुछ अधूरा सा लग रहा था ...|

------------ विजयलक्ष्मी