Wednesday 28 January 2015

" परछाई किसकी कौन ..तुम ..हाँ ,तुम ही हो "

पुरानी गुजरी हुयी कुछ यादे सिमटी है मुझमे ,
या कह दूं चस्पा है कुछ इस तरह 
उतारे से भी नहीं उतरेंगी ..
मेरे दरवाजे से तेरे शहर तक जो रास्ता है न 
कितनी बार चली जाती हूँ उसी मोड़ तक 
तुमसे मिलने की चाहत लिए लौट आई थी
कुछ असमंजस ...कुछ अनजाना सा डर... तुम से .........नहीं.. नहीं.. खुद से
कुछ तो था जो दरमियाँ है आज भी
लो झुक गयी पलकें ..उसी अहसास में तुम सामने खड़े हो जैसे ...
मालूम है नहीं हो तुम ...परछाई है मेरी ही
और तुम दौड़ने लगते हो रगों में लहू बन
टकराते हो दीवार पर मुझमे ही बसे यंत्र से तन्त्र पर जिसे दिल कहते हैं
लिख देते हो वही एक नाम बार बार "अपना "
सरोकार कदमों को न सही रूह को है मेरी औ तुम्हारी ...
परछाई किसकी कौन ..तुम ..हाँ ,तुम ही हो
दूरतक कोई नहीं दीखता ...
यही सच है
पुरानी गुजरी हुयी कुछ यादे सिमटी है मुझमे ,
या कह दूं चस्पा है कुछ इस तरह
उतारे से भी नहीं उतरेंगी
..-विजयलक्ष्मी 

Tuesday 27 January 2015

" जहाँ शब्द पिंजरे से लगते है "

" मैं खुश हूँ ?
मुझसे न पूछ ये सवाल 
ख़ामोशी उगल देगी हर जवाब 
बेहतर है ,,चुप्पी के साथ नाराजगी जाहिर करू 
सत्य बोलना कठिन होता है कभी कभी 
और झूठ आप ही अपनी गवाही देता है
शाम ख़ामोशी से पसर जाती है अँधेरे के आगोश में
चिर निंद्रा से अहसास लिए
जाने क्यूँ लगा मुझे
शांत मुस्कान जैसे ...चिपका दिया हो फूल किसी पौधे की डाली पर
मोनालिसा की तस्वीर का सच ...... कोई क्या जानेगा
जो दीवाना नहीं हुआ .
न ओस न आब ,,न खबर कोई अपनी ,
जीने का तकाजा है जिन्दगी अपनी
जहाँ शब्द पिंजरे से लगते है 
और होता जाता है मौन मुखर
चुप्पी चीखो से इतर ..साल जाता है यूँ खामोश सी ख़ामोशी का खंजर
और नाचती है कविता तब ..शब्दों से निकल
चलती है सवार ह्रदय तरंग अश्वारोहण करवाता क्यूँ है
पलको का इन्तजार बन दरबान निहारता निर्निमेष कोई बचा अवशेष
उड़ जाता गगन की और मिलने क्षितिज की और
बहुत घनघोर ,,,मगर रिमझिम सी लगती बरखा
और सहरा में खड़े भीग जाता है क्यूँ मन
लेकिन प्यास अधूरी तृषित तिसाए से हम क्यूँ आज भी
मंथर सा अहसास बना अंगार दहका जाता जाता है
अगरबत्ती सा मन जलकर भी महका रहता है
और नजर झांकती है जैसे आत्मा के भीतर बैठ परमात्मा ढूढती सी
--- विजयलक्ष्मी 

"बंजर जमीं को साँस जैसे मिल गयी हों.."

जिसे जख्म कहा व्ही वजूद है मेरा ..
इसके सिवा मैं खुद भी नहीं मेरा ..----- विजयलक्ष्मी





उसके दर पे हुए सजदे में बस मुझे ही काफ़िर करार मिला 
मैरी पाकीजगी पे यकीन मेरे मोहसिन को ही नहीं .खुदारा ---विजयलक्ष्मी





वो इन्तेहाँ है भरोसे की मुहब्बत पर अमीत
खुद को मापने एक पैमाना हुआ है दिल 
नाज ए हुस्न भी अदा ही समझ एक 
हर हाल बस तेरा ही तलबगार हुआ है दिल --- विजयलक्ष्मी




तसव्वुर की धुप की रौनक तुम क्या जानोगे ,
सर्दियों के मौसम की बानगी का मजा क्या है

अहसास का दुशाला नूर भर गया अन्तस् में
हूँ धुल ही मगर आंधी सा उड़ने में मजा क्या है ---- विजयलक्ष्मी




जमा है किसी बैंक के खाते में 
जमा धन की तरह खत ..
बहुत प्यारे से अहसास भरे है 
दिल में साथ तेरे ये खत ..
इंतज़ार हर घड़ी कि तुम लिखोगे 

ढेर सा इंतज़ार दिए जो खत
आज भी है तसव्वुर में मेरे प्यारे
दुलारे धडकन बने वो खत
.--- विजयलक्ष्मी





भीगे बहुत कल मनभावन सावन की बरसात में ,
लगने लगे हैं खुद को ही नए से जैसे बदल रहे हैं हम 
हों रहा है बारिश का असर अब जान बचती सी नजर आने लगी है 
एक मुस्कुराहट झांकती है बादलों की ओट से ,
और धरा भी सहम कर लजा गयी अपने आप से 

आसमां ने हर तपिश समेट ली आगोश में ...
खो रहे है क्यूँ नयन प्रकृति के उल्लास में ,
छू रही है मलय मन ,आत्मा थिरक उठी नए से अंदाज में ..
अब फसल लहलहाने सी लगी है खेत में ...
बंजर जमीं को साँस जैसे मिल गयी हों..
आईने का सच कहूँ कैसे भला ?हम खुद को उसमे न पा सके ,
रुक जरा सम्भल तो लूं बिखरने लगा है क्यूँ मेरा वजूद ही ,
रंग बिरंगी सी हर डगर लगने लगी ,
महकने लगी है बेला क्यूँ इक ख्वाब सी ...
आदत नहीं है आँख को किसी ख्वाब की, डरते है टूट जाये न .
 

--------------- विजयलक्ष्मी .

Monday 26 January 2015

" गरीबो और अमीरों में दिल की धडकन जिन्दा होती "

" टूट गिरी धरती पर रिमझिम जीवन खेला बन बैठा
जिन्दगी पर्दे में जा बैठी ,,जैसे मुझसे जग छुटा
इक कलम में कुछ घायल सी ममता इन्तजार लिए
दामन में अपने एतबार लिए ..
.जाते पलो का श्रृंगार लिए
बूँद बूँद से सागर भरता ..
.बरखा पर बादल ही करता
श्वेत हिम गर जीवन न तजता ...क्यूँकर नदिया का जल बनता
न नदिया बहती न सभ्यता जन्मती ...
न धरती होती क्यूँ अम्बर पलता
झूठ न होता गर दुनिया में ...सत्य कोई भी याद न करता
न भाव भरे मन बहते रिसकर ...न घायल कोई भी पल होता
कितना सुंदर होता वो लम्हा ...खुशियों हर पल होता और तबस्सुम तहरीरो में
दिखती सदा लकीरों में ...हाथो की तकरीरो में ,,
कदमो की तकदीरो में ..
गरीबो और अमीरों में दिल की धडकन जिन्दा होती ..
मानवता न शर्मिंदा होती ..
धर्म कर्म के कामों से ,,जाति भेद के नामो से
नफरत की बन्दूको से ,,
अपनत्व की सन्दूको से ...भरते लम्हे जीवन के
और खुशियाँ खिलखिलाती हर इक आंगन में यारा "--- विजयलक्ष्मी 

स्वाति बूँद पर,

हाँ ,समन्दर होगा बड़ा ...
घेरे होगा बाहों में धरा 
जल होता है उसका खारा 
मैंने पीकर देखा इक बार 
मेरी प्यास नहीं बुझी ..... और तुम्हारी .... ? -------- विजयलक्ष्मी




पहाड़ी झरने भले ,
कम दूर चले 
मगर जितना भी चले 
मीठे ही रहे 
न रंग बदला न ढंग 
बस उम्र जरा छोटी ठहरी ------ विजयलक्ष्मी



एक चातक 
विकल 
विचर रहा हू 
नभ पर ,
मेरी नजर 
बस
स्वाति बूँद पर --- विजयलक्ष्मी



" प्रणाम है इन पर्वतों को ."

" सत्य खरा होता है ,,
कटु होना न होना उसके समानांतर बात है ,
यथा गंगा सबके मेल हर लेती है ..
किन्तु गंगा को गन्दा करने और अस्पर्श्य घोषित करना समानांतर बात है 
पवित्रता मन के भीतर रहती है हाथो में नहीं 
छूने से या खाने से धर्म और मन बदलते तो सभी अस्पर्श्य उच्च हो गये होते
कभी सोचा है ...या बीएस मन में ग्रंथि पाल रखी है तो बस
सत्य के ऊपर दाग लगाने वालो सत्य को जानो
सत्य तो सत्य ही रहेगा ..
बदल गया तो सत्य कैसा ..
यूँभी ,हंसी आती है वंचितों और सन्चितो की अवधारणा पर
अपने मन के मेल साफ करो ..
तन को शुद्ध रखो ,,
पंडित के घर में घूरे का ढेर उसे आदरणीय नहीं बनाता ..
आदरणीय बनता है आचरण ,व्यवहार का व्याकरण
सामान्य जीवन सभी जी सके ..
सत्य तो यही है ....जीवन के साथ ही सत्य असत्य है .
हाँ जन्म सत्य हो अथवा नहीं मृत्यु सत्य है अविजित है ,,
कुछ सत्य समय के अनुसार चलाने वालो ...सत्ता का नशा नहीं अच्छा
सत्ता ..लोग उसी प्रभु को कोसते है जिससे पाते हैं जीवन ,जीवन की कला ,
छलते है उसी जीवन को ...पर्दे डालकर ,
बाहर भीतर के सत्य को सामान्य रास्तो पर दौड़ने दो
जीवन अनमोल है ... कर्म पथ से न हतो न हटाओ किसी को
उजागर सत्य में झांको ,,सूरज की किरण चलती तो समान चल से है ..
मतभेद के ऊँचे पहाड़ धुप से वंचित करते हैं
सूरज की किरण देखि थी जहां वहां खाई बन गयी है ,,
उच्चतम शिखर खड़े हैं मानव मन में
प्रणाम है इन पर्वतों को .
हम धरती पर भले वंचित या संचित जो होगा भुगतेंगे
भूखे मरना है तो भूखे मरेंगे माना तुम आढती ठहरे
खेतो से सामान उठाते हो सारा ..
हम राणा के वंशज लक्ष्मीबाई के पुजारी ..मर भी जायेंगे तो क्या "
-------- विजयलक्ष्मी

" अनपढ़ लोग भला किताबी उसूल क्या जाने "

" समन्दर लीलने की फिराक में ,
बैठा है पंखे फैलाए कोई तो समा ले जाए 
जीवन डोर टूट भी जाए 
पतंग उडती है आकाश मगर डोर रहे हैं हाथ 
टूटकर जिन्दा रहे कहाँ 
मन्दिर में प्रवेश मना है ..यही आज हमने सुना है
एकलव्य की कथा सुनी थी ...हाँ सुना था अंगूठा मांग लिया था
समर्पित किया था एक अंगूठा उस युग में
अंगूठा मांग ही लेते हैं ...अक्सर कुलीन समाज के सभ्य जन
एकलव्य ने न उस युग में मना किया न इस युग में मना करेगा
काटकर थमा देगा अपने ही हाथो से अपने ही हाथ का अंगूठा
और अर्जुन को घोषित कर दिया गया सर्वोत्कृष्ट तीरंदाज
द्वापर की बात नहीं शिक्षा की रक्षा दौलत के बूते राजपाठ के नामपर
सन्चितो की धरोहर को हाथ लगाना मना है आज भी
तहजीब सीखनी होगी ..
साहित्य ... का अ आ नहीं जानने वाले साहित्य लिखे कैसे
अनपढ़ लोग भला किताबी उसूल क्या जाने
सुंदर सा रंग दिखा आकार प्रकार रंग औ रोगन से ललचाये थे
खाली जेब थे क्या करते वंचित हम ..
आढती की डांट सुनकर सर नीचा किया लौट आये थे  "  
------ विजयलक्ष्मी

Sunday 25 January 2015

जयहिंद !!

हमारा गणतन्त्र चिरंजीवी हो ,,इसी शुभेच्छा के साथ गणतन्त्र दिवस की समस्त जनगण को ढेरों बधाई | --- विजयलक्ष्मी

वन्दे मातरम्।

सुजलाम् सुफलाम् मलय़जशीतलाम्,
शस्यश्यामलाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।।

शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्,

फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।।

कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,

कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बॉले माँ तुमि अबले,
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम्।।

तुमि विद्या तुमि धर्म,

तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वम् हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।।

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,

कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलाम् अमलाम् अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम्।।

श्यामलाम् सरलाम् सुस्मिताम् भूषिताम्,

धरणीम् भरणीम् मातरम्। वन्दे मातरम्।।
जयहिंद !!


".बहराल मंत्री का कुछ असर तो हो "

भारत माता की जय ,,
हमारे नेता अमर रहे ,,
सारी दुनिया को खबर रहे ....जनता चाहे बेसब्र रहे
|
गणतन्त्र ...भारत के तन्त्र का मन्त्र ...संविधान का दिन .....जनगण की आत्माओ को हुतात्मा बनाने का दिन ........बहुत साज सज्जा दिखावा .... भूखो पर कानून और दबंगो पर चुप्पी ...धरा 144 के चलते भी बड़ा सा मेला .....देखता हुआ पुलिसिया रेला..कोई कुछ नहीं कर सकता ..फूल माला चढाई गयी ..... ढेरो की तादाद में ....लेकिन गरीब की कौन सुने ....वो सौ रूपये में रैली करता है जब चाहे जिस नेता की चाहे रैली करलो ...उसे बस कुछ शब्द बोलने है जैसे ...... जय ,.....जिंदाबाद जिंदाबाद ,,,मुर्दाबाद मुर्दाबाद ,,,बिच बिच में इशारा पाकर तालियों की गूंज ......हर बाहुबली करता है यह इंतजाम ,,गाँव के लोग ...झोपडपट्टी वाले ,,, पुलिसिया बंद के दिन काम तो बंद है तो रोटी का जुगाड़ भी जरूरी है ....रिक्शे ...ध्याड़ी वाले ,,,बेरोजगारों की चांदी भरे दिन होते हैं ये .....और जोश किसी नेता के आने का नहीं रूपये और खाने का होता है ....बेटा या बाप जो जरा समझदार है तो आनेजाने के साथ बीडी पानी का जुगाड़ भी परिवार के खाली सदस्य ...हुई न पिकनिक की पिकनिक और रोटी का जुगाड़ भी पूरा चलो हो गया गणतन्त्र की पूर्व संध्या का भजन कीर्तन झंडा कल फहराएंगे डंडा चौकीदार के हाथ में है ...रात भर आवाजे लगाएगा सर्दी की रात में कुछ देर बाद खर्राटे लगाएगा ...बहराल मंत्री का कुछ असर तो हो ....अब कुछ अपनी सुनाओ .------- विजयलक्ष्मी 

Saturday 24 January 2015

" वाह री पुरुष मानसिकता .......तेरी जय हो "||

आजकल फेसबुक पर महिलाओं को देखने की कानी दृष्टि कुछ ज्यादा ही प्रखर हुई और आक्षेप सीधे तौर पर औरतो की महत्त्वाकांक्षाओं को उजागर किया जा रहा है .......जैसे वो आदमियों की पिट्ठू बनने के सिवा स्वयम कोई अस्तित्व ही नहीं रखती ........यूँभी ,, पुरुष समाज में औरत का आगे बढना भला बर्दाश्त हो सकता है लगाओ इल्जाम और करो शर्मिंदा ...यही एक तरीका बचता है ..क्यूंकि कोई और रंग नहीं दिखाई देता ...जो व्यवसाय में उच्च स्थान पर नौकरियों में है और राजनीति में है ....इल्जाम एक वो सब किसी न किसी का पहुंचा पकडकर ही पहुंची है .......वह री पुरुष पालित प्रवेश के निजामो ......कभी खुद में भी झांककर देखो ...खुद में कितने सच्चे हो ..कितने सुंदर और श्वेत ह्रदय के हो .... क्यूंकि पुरुषो के हिसाब से औरत तो रोटी बनाने के लिए ही पैदा हुई है और उसका स्थान है चारदीवारी के भीतर सुरक्षा के नाम पर प्रताड़ना ,,और तालाबंदी ..समझ में नहीं आता जब पुरुष इतना सही और सीधा है तो समाज खराब कैसे हुआ ...सभ्यता होने के दावो के भीतर कभी खुद को झाँक लो ..असलियत सामने आ जाएगी सभी की ... चंद घंटो की बच्ची ने किस का हाथ पकड़ा था उसे मौत के घाट उतार दिया वो भी नृसनश्ता के साथ ..( हाथ पैर तोड़ मरोड़कर कपड़े में लपेटकर )मार दिया था ...उस बच्ची ने किसी पुरुष का क्या बिगाड़ा था जिसे कूड़े के ढेर से निकलकर कुत्ते ने मारकर खा लिया ...शायद उन्होंने भी अपने लिए दौलत और पोस्ट के लिए कुछ टी किया होगा किसी पुरुष से ,, किरण की राजनैतिक लालसा ने ही शायद उसे आई पी एस करने के लिए प्रेरित किया था ......जिसनी डॉक्टर है उन्हें दौलत की ललक यहाँ तक खिंच लाई ...और इंजिनियर लडकिय या औरते खुद को फैक्ट्रियो का मालिक देखने की जिद में यहाँ तक चली आई .....बेवकूफ थी उडनतश्तरी पी टी उषा जो अंतर्राष्ट्रीय खेलो में स्थान बना पायी ......और मेरिकोम को किस पिट्ठू ने मेंडल दिलवाए है ये भी उजागर होना चाहिए ...सुनता विलियम ने किसका हाथ पकड़ा और नूई भी जरूर किसी के साथ चिपकी होगी .... क्यूंकि राजनीति में औरते बेवकूफ है ....पुरुष सभ्यता की व्यग्य और कटु आलोचना यही प्रदर्शित करती है ...मतलब औरत को सैम दम दंड भेद ..घर के भीतर घसीटो ..और बंद कर दो तालो में ..क्यूंकि उसे आदमी के सामने बिस्तर पर बिछावन और गर्म रोटी सेंकने के सिवा कुछ नहीं आता ... इंद्रा गाँधी ने भी किसी को तो राजनैतिक पति बनाया ही होगा ...और मायावती को तो कौमार्य परिक्षण की सलाह भी दे चुके है देने वाले ....सभ्यता को जन्म देने वाली औरत आज अपनी ही पहचान की मोहताज है |
इसी कानी मानसिकता के चलते कवियत्री महादेवी वर्मा को उनके जीते जी किसी ने भी उनका सम्मान नहीं किया ...आज उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें छायावादी युग का एक मुख्य स्तम्भ माना गया |
यदि इस बात को ऐसे कहा जाए पुरुष अपने को सफल होने के लिए औरत का हाथ पकड़ते हैं क्यूंकि पुरुष को पुरुष पर भरोसा नहीं होता जितना औरत पर होता है |
..... वाह री पुरुष मानसिकता .......तेरी जय हो |--------- विजयलक्ष्मी 

" बंद दरवाजा भी अक्सर नई राह खोलता है "

रेत की मानिंद 
गिर रहे हैं लम्हे 
जल रही हैं सांसे 
और वक्त ...है कि थम ही नहीं रहा 
चीथड़े चीथड़े हुए धुप के टुकड़े 
समन्दर आँखों में ..
कोई बीज आँख नहीं खोल रहा
नमक लील लेता है ..
जवान वृक्ष की जड़
छाह को छाते चलने लगे हाथ में
और ..
वृक्ष निरीह ..
पंछी सयाने हो गये
घोसले छत की कोटर में बनाने लगे
पेड़ो को छोडकर
विकास के नाम पर कट जायेगा
वो वृक्ष ...
जो खेत की मेड पर खड़ा है
आज भी ..
मेरे दुनिया में आने से पहले
कभी कोई कलियाँ दिखाई दे जाती
शायद
निगोड़ी आंधी ने मार डाला उन्हें
पत्ते गिर गये है ..
कोई कह रहा था बसंत आ गया ..
शायद सुन लिए पत्तियों ने
और झड़ गयी
नई कोपलों के लिए
और ...
एक मनुष्य है
........!!----- विजयलक्ष्मी 

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कभी आवाज मौन है कभी सन्नाटा बोलता है
ए जिंदगी मुस्कुरा वक्त ही मौत का दर खोलता है
क्या मलाल या उज्र हो जिंदगी से भला
बंद दरवाजा भी अक्सर नई राह खोलता है -- विजयलक्ष्मी 


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काश, बस चिंता होती 
तो औरत भी जिंदा होती
काश. आजादी सांसो की होती 
क्यूँ इज्जत बस औरत से शर्मिंदा होती
कौन समाज किसका समाज
यहाँ बस औरत की निंदा होती
दूसरे घर से लाई गृहलक्ष्मी
क्यूं अपने घर में भी नहीं जिंदा होती
--- विजयलक्ष्मी 

वसंत पंचमी बनाम विद्या की देवी

बसंत पंचमी की शुभ एवं मंगलकामना ||


" धार तो तेज होनी चाहिए ...
अगूंठे एकलव्य के... या द्रोण के कटने चाहिए ,
अर्जुनों की तलवार गर चमक है तो चलेगी साथ में ..
जेब वर्ना गद्दीनशीनों की कटनी चाहिए ..
मैल भर के जो उठाये आँख को ..
शूल उसके पार उतार दे.... चलो
वैश्यों की दुकानों को ताला लगा ...कर्म बदल देते है चलो ..
घूसखोरों की औलादों को बाप के साथ.. जेल की हवा तो दिखा
क्या कहूँ ....दरोगा भी जिगर पे पत्थर होना चाहिए ....
द्रोण को कला गर आती नहीं ...रोटी फिर क्यूँ चाहिए ..
आदमी को आदमी की बोटी भला क्यूँ चाहिए..
देख ले सम्भल जा अभी ...वक्त अभी निकला नहीं ..
सूरज को कह से निकल अब ..समय बदलना चाहिए
ज्ञान का दिया ..अंधेरों भी जलना चाहिए
चल , बर्तनों की खनक कान बर गूंजेगी जरूर
लेखनी की धार ... तलवार बन भाजेंगी .. जरूर
एकलव्य अंगूठे क्यूँ दे भला अपने ....
जेब से नोटों की गड्डी...फांसी लगनी चाहिए ..
चल उठ ,साथ चलेगा क्या ....रौशनी कोई दीप से तो जलनी चाहिए
आग जरूरी है तू जला मैं जलाऊँ ...आग वैश्या बनी दुकानों में लगनी चाहिए ..
क्रांति ...की आग ..हाँ अब तो ..लगनी चाहिए
".----------.विजयलक्ष्मी
सब कुछ मिला ....नहीं मिला तो  ....माँ सरस्वती के चरणों में वन्दन का समान अधिकार .... यहाँ भी सरकारी तौर तरीके ...कायदे कानून मान्य थे.....विद्या की देवी के सौंदर्यीकरण में लक्ष्मी जी नतमस्तक क्या हुई रूप बदल डाला .... युग बदले ....समय चक्र बदले ....हालात बद से बदतर होते चले गये .... कभी विद्या ब्राह्मण के घर की रानी हुई ... लालच ने उसे दौलत की दुकानदारी पर बैठा दिया ......वक्तव्य  अर्थ भावार्थ स्वार्थ के वशीभूत हुए ........आजकल वैश्य की दूकान पर दौलत सरस्वती के पैर पीट रही है ....ज्ञान मस्तिष्क और व्यवहार के स्थान पर वैश्या की तरह ....रुपयों में सर्वसुलभ है अन्यथा जन सामान्य के लिए अति दुर्लभ हो चुकी है ..... जिसने दौलत चढ़कर शिक्षा की कागजी कार्यवाही पूरी की उन्होंने जीवनकाल में खर्ची दौलत कई गुना ब्याज पर महसूल की |
हर कोई लूट खसोट में लगा है ... जिसका जहां दांव लग जाये ,,, द्वापर युगीन एकलव्य का अंगूठा द्रोणाचार्य ने क्या माँगा ....मानो पीढ़ियों की वसीयत लिखवा  ली ......हर युग में ज्ञान की देवी को अपने घर में गिरवी रखने की खातिर |........अर्जुन ही अकेला वीर कैसे ...... किन्तु सत्य भी यही है ... तब से आजतक एकलव्य के वंशज अंगूठा विहीन रखा .. कोठे पर नचा रहे हैं .. लोगो के घर पानी भर्ती नजर आती हैं ..----- विजयलक्ष्मी  








Friday 23 January 2015

" नेता जी सुभाषचंद्र बोस "


जय हिन्द !!
' तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा ' ---- सुभाषचंद्र बोस ( नेताजी )

"
आजादी का मतवाला
आजादी का रखवाला 
अपनी जान लुटा बैठा
मुहब्बत वतन से करने वाला
तिरंगे की आन पर कुर्बान तहरीरें ,
वतन की शान पर कुर्बान तकदीरें ,
होने दो होती है अगर लहुलुहान ...
वतन की खातिर मेरे ,मेरी ही तस्वीरें
".- विजयलक्ष्मी



लन्दन के फुटपाथ पर दो भारतीय रुके और जूते पोलिश करने वाले से एक व्यक्ति ने जूते पोलिश करने को कहा। जूते पोलिश हो गये.. पैसे चुका दिए और वो दोनों अगले जूते पोलिश करने वाले के पास पहुँच गये।
वहां पहुँच कर भी उन्होंने वही किया। जो व्यक्ति अभी जूते पोलिश करवाके आया था, उसने फिर जूते पोलिश करवाए और पैसे चूका कर अगले जूते पोलिश करने वाले के पास चला गया।
जब उस व्यक्ति ने 7-8 बार पोलिश किये हुए जूतो को पोलिश करवाया तो उसके साथ के व्यक्ति के सब्र का बाँध टूट पड़ा। उसने पूछ ही लिया "भाई जब एक बार में तुम्हारे जूते पोलिश हो चुके तो बार-बार क्यों पोलिश करवा रहे हो"?
प्रथम व्यक्ति "ये अंग्रेज मेरे देश में राज़ कर रहे हैं, मुझे इन घमंडी अंग्रेजो से जूते साफ़ करवाने में बड़ा मज़ा आता है। वह व्यक्ति था सुभाष चन्द्र बोस। शायद कुछ लोगो को याद ना हो तो बता रहा हूं आज ही के दिन यानि 23 जनवरी 1897 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का उडीसा के कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार मेँ जन्म हुआ था |


आज उनका जन्मदिवस है।
जय हिंद




https://www.youtube.com/watch?v=USfglOHBwx0


जयहिंद |||

Tuesday 20 January 2015

"...और तुम्हे ...मालूम है कस्तुरी की महक "

वो हंसा 
बोला महकती हो 
कस्तुरी हैं क्या मुझमे 
हाँ ...!! और लम्बी सी चुप्पी 
कस्तूरी ..
हाँ ,तुम हिरन परी जो ठहरी
यद्यपि ...मेरे पंख
कट चुके थे
सालो पहले सामाजिक अनुष्ठान में
एक दो नहीं सैकड़ो के सामने
गवाह हुए
गाजे बाजे ...
किसी ने नहीं पूछा ...उसके बाद ...
" कैसी हो "
बस माँ ने निहारा था प्रश्न भरी निगाहों से
उनकी आँखों में अजीब सा सुकून देख चुप थी मैं भी
मुस्कुराई हौले से ...
और .......कह दिया खुश हूँ !
ख़ुशी ..किसे कहते हैं ?....कोई बतायेगा ये सच
आत्मा कब और कैसे खिलखिलाती है
नहीं मालूम था ..
हाँ ...बीमार माँ के चेहरे का सुकून ,,
याद था ...
याद था पकते बालों में पिता का मुस्कुराना
आँखों के मोती ...
जो पोंछ लिए थे मुहं घुमाकर मेरी और से
बाबा की जिन्दगी जैसे बिदाई के इन्तजार में थी
और रूठ गयी सबसे
बेटी की बिदाई ..
सुकून है या नई चिंता ?
कल की नई फ़िक्र
आँखों में प्रश्न दिल में समाज का डर
कोई नहीं चाहता ...
विदा हुई बेटी लौटकर कहे मैं खुश नहीं हूँ
जानती है हर बेटी इस सच की
जानती है पिता के कंधो का वजन
उसपर चढ़ा अपना बोझ
विदा ...मतलब ..विदा ही होता है बस
और कुछ नहीं ..
जिस देहलीज चढ़ी ..
अर्थी पर चौखट लांघे ..
कोई कुछ भी बांचे कोई कुछ भी बोले
सप्तपदी को मापों ,,
हर बंधन स्वीकार ,,
हर मंत्रोच्चार ...चाहे छलनी सीना हो
या चाक हो मन भीतर
आंसू न छलके
मन कितना भी बिलखे
दहेज के ताने या ...काम का बोझ
खूंटे से बंधी .........||
ये कस्तुरी तब कहाँ थी
मैं किसी के लिए इनाम नहीं थी
नसीब मेरा सराहा गया पढ़ा लिखा दूल्हा मिला था आखिर ..
लेकिन .......
कमियां थी मुझमे
कभी सर्वगुण सम्पन्न न बनना था मुझे
न ही बन पाई मैं
मैं नारी
मैं सीता भी थी ..और उर्मिला भी
मांडवी भी मैं ही थी और द्रोपदी भी
कैकेई और कौशल्या ही नहीं ...
मैं मेघनाथ की महतारी
नहीं इस सम्मान की अधिकारी
समाज की ऊँगली उठती है मेरी और ..
मुझे यही सच मालूम है आज भी
और तुम्हे ...मालूम है कस्तुरी की महक
मुझे नहीं मालूम ...कैसी होती है
मैं कैसे जानूंगी ये सच ? ------- विजयलक्ष्मी

Monday 19 January 2015

" ये उत्तराखंड शीर्ष भारत का देख दुनिया सारी अचम्भित है"

खूबसूरत दृश्य है वर्णन इसका कठिन है
चारो तरफ पर्वत श्रृंखला नदियो का जीवन अति जटिल है
सौन्दर्य युक्त घाटिया पुष्पित पल्लवित है
प्राकृतिक उपादानो से संचित है

श्वेत मुकुट धारे खड़ा हिमालय विस्तृत है
धरती का हरित बाना देख जगत सारा चकित है
सूर्य स्वर्ण रश्मि रथ सवार परिलक्षित है
छिपता संध्या के आंचल में करता जग विस्मृत है

गंगा की धरा अविरल यमुना संग धरती पर अवतरित है
जय गान नित्य आरती जय जय पवन भागीरथी निरत है
पावन धरती म्न्त्रोच्चारित संतो की भूमि है
तटनि के तट बैठ ज्ञान करते प्रसरित है

बहुमूल्य वन औषधि लिए पल्लवित है
अनमोल है धरा पर स्वास्थ्य शक्ति इनमे संचित है
वर्षा मौसम को करते अनुकूल मानव जाति हित है
ये उत्तराखंड शीर्ष भारत का देख दुनिया सारी अचम्भित है
----- विजयलक्ष्मी 

Sunday 18 January 2015

जन्नत कौन जाएगा ...?

एक सत्य 
देह बची है 
नेह खो गया 
इंसानियत मर चुकी है 
अधर्म जिन्दा हो रहा है 
बंदूक की आड़ में
जिसमे
न शिकवा न शिकायत
न शब्द न कयास
फैसला ....
और
मिलती है मौत धर्म के नाम पर
वो ....क्या कलंक कह दूं उसे
मानवता पर
ये कौन सा रास्ता है
जहां
मौत सबसे ऊपर बिराजी है
और बकाया ...........
सन्नाटा ,
खतरे में कौन है
" मौत के सौदागर "
जिन्दगी की राह में उगने लगी बंदूकें
स्कूल में ज्ञान नहीं बंदूक उगलती है मौत
जलती खौलती उबलती
फिर एक वादा ...खुद से
मौत देने का
कोई कार्टून ,,
बेइज्जत कर देता है रहनुमा को
जैसे वो मोहताज है
तुम्हारे फतवे का
बताओगे मुझे ..
जन्नत कौन जाएगा ...?
हत्यारा या हत्या का किरदार
किसपर रहमत बरसेगी ...?
समझ से परे सवाल ...?
जवाब लापता है ..
कोई है ..जिसे पता है ,
इमदाद किसकी ..
लाचारो की ..या गुनहगारो की
सुना है ..
आतंकवाद का धर्म नहीं ..
वो किसी का हमदर्द नहीं...
फिर बोलूं ..
कोई तो जारी करो
कही से तो जारी करो
विश्वास तारी हो
जिन्दगी सबपर भारी हो ..
जाने कब आएगा ..
आतंक के खिलाफ ..कोई
" एक फतवा " ---- विजयलक्ष्मी

Tuesday 13 January 2015

" मालूम है सभी को मय अच्छी नहीं होती "

शिकवा भी क्या करें बतादो रहगुजर से ,
गिला करके भी तो गुजरना उसी डगर से ||

उम्मीद ओ करम की रहनुमाई क्यूँकर
उठाया न कोई कांटा तक किसी डगर से ||

क्यूँ बहारो का मौसम गुजरे मेरी गली से
हमने तोड़े होंगे पत्ते कभी किसी शजर से ||

हाल ए दिल न जाना उस गरीब माँ का
बेटा गया था पढने ,लौटा न था शहर से ||

मालूम है सभी को मय अच्छी नहीं होती
पीते है जहर क्यूँकर नहीं बचते उस कहर से||
--- विजयलक्ष्मी 


ॐ  का उच्चारण है चमत्कारिक !!

- ॐ  के उच्चारण मात्र से मृत कोशिकाएँ जीवित हो जाती है |
- मन के नकारात्मक भाव सकारात्मक में परिवर्तित हो जाते है |
- तनाव से मुक्ति मिलती है |
- स्टेरॉयड का स्तर कम हो जाता है |
- चेहरे के भाव तथा हमारे आसपास के वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है |
- मस्तिष्क में सकारात्मक परिवर्तन होते हैं तथा हृदय स्वस्थ होता है |
- ॐ सूर्य से निकलने वाली तरंगो से प्राप्त आवाज अर्थात ब्रह्मांड में मान्य अर्थात सनातन सत्य |


बंदूकों के साये में जिन्दगी अनाथ थी

जिन्दा होती है रूह देह मरने के बाद ही ,
नेह-नदी में तैरती तरंगो ने आवाज दी

इम्तेहाँ अहसास के रहे दर्द में पगे हुए
देह से इतर उडी रागनी वही साथ थी

श्रृंगार अंगार का चिंगारियां भभक उठी
रौशनी दिखी मगर सरहद के पार थी

बह रही जो आग थी बस्तियां जल गयी
बंदूकों के साये में जिन्दगी अनाथ थी

चौखट पर बैठकर दीप जलाए राह में
रौशनी बिखरे राह में इतनी सी बात थी
--- विजयलक्ष्मी 

Sunday 4 January 2015

" तुम्हे ही पुकारा किये नाखुदा बनाकर "



" ए चाँद जरा ठहर तुझ बिन बसर नहीं ,
न निकले शम्स गर होती सहर नहीं ||

काफिया मिलाया एसे रदीफ़ खो गया, 
लिखे किस पर गजल कोई बहर नहीं||

माटी के घर बेच अट्टालिका खड़ी की, 
गली कुचो में बिखरा अपना शहर नहीं ||

तुम्हे ही पुकारा किये नाखुदा बनाकर ,
थी कश्ती भंवर में दिखी कोई लहर नहीं ||" 

---- विजयलक्ष्मी

Saturday 3 January 2015

" तुमने कौन सा तीर मार लिया ..?"



 " शब्द की खुरपी से उखाड़ती हूँ दिल की जमीं
तुम्हारी यादो की परत को दर्द से सरोबार मत होना
क्या सत्य का सामना कर सकोगे ?
सोच लो , मेरी खुरपी बस खुरपी नहीं नश्तर सी चुभेगी
भीतर तक गहरा जाएगी जब कुरेदने पर आएगी 

एक साल नहीं उससे भी पहली ढकी दबी कितनी खरपतवार उखड़ेगी
अंदाज भी नहीं लगा पाओगे
एक एक परत पपड़ी सी उतरेगी
नकाब उतरता देखा है ,,,या खाल की तरह उतरती फेसपैक की परत
नहीं न ...मत कहना कभी ...
अब तक क्या उखाड़ लिया ,,?
जो जमा ही न हो गहरे ....वो ही ऐसा बोलते हैं ?
कुछ बातो पर मुस्कुराने की इच्छा होती हैं कभी कभी
मेरे शब्द शब्द नहीं जख्म पर नमक का कम करेंगे
तुम्हारे दिल पर उकेरे गये शब्द जो दिल की कलम से लिखते हैं शिलालेख
उन्हें मिटा डालो न
अपनी हालत देखो ,,
आँखों में इंतजार हैं
मन घायल है
अहसास घुमड़ते है उमड़ते हैं
बरसना चाहते हैं मेरे मन की जमी पर
इंतजार ....दुश्मनी ..दर्द ...बंदूक ..लहू
पुष्प की खुशबू नहीं दर्द की महक निखरेगी उन जख्मो में
तुमने कौन सा तीर मार लिया ..
हमारा तीर तो निशने पर है ...बचा सको तो बचा लो
छिपकर निशाना नहीं लगाया कभी ".
----- विजयलक्ष्मी

"खूबसूरत सहर आती है "

" ये माना सर्द मौसम है आजकल 
मगर पतझड़ के बाद बहार आती है 
रात कितनी भी गहन काली लम्बी हो 
उसी के बाद खूबसूरत सहर आती है  " --- विजयलक्ष्मी

" चलाये कौन तीर जो निशाना साध ले "

समय अश्व की लगाम कसकर साध लें |
विस्तृत आकाश को मुट्ठी में बाँध लें ||

बैठ बहेलिया पेड़ तले सोच रहा दिनरेन |
चलाये कौन तीर जो निशाना साध ले ||

चले विरोधी मिल कैसे सीखे उद्यान से |
कांटे पुष्प सब मिल कैसे जीवन हाथ ले||

विवशता भी बन्ध विश्वास से ढूढे रास्ता|
भाग्य अग्रसरित हो कर्मयज्ञ का साथ दे ||

सूरज बिराज मस्तक राह प्रकाशित करे |
कोई रात अन्धेरी कैसे गर चन्दा साथ दे ||
------- विजयलक्ष्मी