Wednesday, 20 June 2012

पैगाम ए मुहब्बत कभी था ही नहीं कहीं भी...















पैगाम ए मुहब्बत कभी था ही नहीं कहीं भी,

कुछ बंदिशें थी कुछ स्वार्थ बंद था शफक सिंदूर भी जहर रंग था ..
थे बेवकूफ हम ही  बस खुद को जला डाला ,
आग के सफर में तन्हाई के घर पे मौत एक खबर तक संग था ..
जिसको सजाया माथे अपना खुदा बना कर ,
कुछ न निकला वो सिर्फ एक धोखा औ सच में होली का रंग था ..
हम जलते रहे साँस दर साँस होके धुआं धुआँ ,
वो अफताब निकला चमगादडो के शहर का ,सत्य मेंरे ही संग था.. 
मेरा गुरुर टूटा झूठी थी मुहब्बत वो सारी ,
दिखावे की दुनिया उसपे भी नुमाया करने का इल्जाम ही संग था..
मालूम हुआ  है यम का साथ अब मुझे ,
न बहलाना अब किसी को कहना न कभी तुझपे प्यार का रंग था..
सच में है बाज़ार दुनिया हम सौदाई बन गए ,
हमने लगाई बोली खंजर भी अब रो  दिया  , कैसा अजीब ढंग था..
गर मौत को पुकारा अब, तो खतावार होंगे हम,
पूछेगा खुदा क्यूँ नम है आँख ,क्या मुहब्बत? कहाँ खोया ढंग था..  
आज सच में  शिकस्त हुई मेरी. ..कुबूल मुझे है , 
पाकीजगी दुनिया में बस नाम है ,यहाँ पकेजिंग का कलयुगी रंग था..
कुछ और हों बकाया चल वो भी देख लूं अब ,
शिव संग ब्याह भवानी की ख्वाहिश, चिता का मेरी अजीब रंग था.. 
चल छोड़ ,अब कुछ और बात कर, रहो आबाद ,
आसमां बहुत है, फलक फैला पड़ा है छोर तलक इतना ही संग था ..
मुझे कुंदन सा निखरने की चाह थी कोयला भई,
काजल की कोठरी में गए थे दुनियावी, कालिख लगने का ढंग था ..
शहंशाही आबाद रहे तेरी आखिरी दुआ हों कुबूल ,
रहूंगी यहीं, जाऊंगी नहीं लेकिन ,भूल जा जो देखा आज मेरा रंग था ..-विजयलक्ष्मी 

No comments:

Post a Comment