Monday 30 December 2013

बदल जायेगा वर्ष का कोना





कलैंडर खामोश दीखता है ,उसपर सन्नाटा चीखता है ,
बोलती हैं दिन महीनों सप्ताह पखवाड़ो की कहानी 
जिन्दगी के थमे से लम्हे दर्ज है लिए रवानी 
बदल जायेगा वर्ष का कोना ...वही जिसपर लिखा अंग्रेजी खिलौना 
सम्वत नहीं बदलेगा ,,संस्कृति नहीं बदलेगी 
न ब
दलेंगे संस्कार ..इन्सान नहीं बदलेगा
नहीं बदलेगा मन का आकार 


क्या कलैंडर अहसास बदल पायेगा
तेरा ये खूबसूरत अंदाज बदल पायेगा
सहर के सूरज का निकलना बदल पायेगा
नहीं बदल पायेगा कभी मुझे या तुमको बदल पायेगा
बहुत कुछ बदलता सा दीखता है
पीढियां सीढियां ..
जिन्दगी के उतार चढाव
वर्ष लिखा एक कोना बदल जायेगा हर साल की तरह ..
बदलेगा ..हमारी जिन्दगी का चलता लम्हा
उम्र का पडाव
नहीं बदलेगी बरगद की छाँव
बडो का आशीष
न सर्दियों के मौसम
गर्मियों की चिलचिलाती धूप

बसंत की गुनगुनाती हवा
न होली के रंग
न दीयो का साथ
न तारों भरी रात
न चंदा चांदनी का साथ
न आंगन की बरसात
न फूलों का खिलना
न तितलियों का इठलाना
न पंछियों का गाना
न त्योहारों की बौछार
न घर संसार
न मैं न तुम
कुछ नहीं बदलेगा
बस बदलेगा हमारा और उम्रदराज होने की सीढी का एक पायदान .-- विजयलक्ष्मी



" आज की सहर आंगन में बरस रही ,
जिन्दगी की अंतिम घड़ी गिन रही है 
सूरज की महफिल में कुछ बादल भी आये हैं 
बेला विदाई है गुजरे साल की ...नई उम्मीद की नींव चिन रही है 
नई नई सी खुशिया नया नया तराना 
छेड़ेगा सूरज भी क्या फिर से नया अफसाना
चिड़िया सुनाएंगी नया कोई गाना
फूलों को सीखना है धीरे धीरे मुस्कुराना
जीवन से आस हो ...जीवन में हर्ष हो
तुमको भी मुबारक नववर्ष हो ."-- विजयलक्ष्मी

Sunday 29 December 2013

क्यूँ इंतजार बस गया पलको पर

क्यूँ इंतजार बस गया पलको पर घर को छोडकर अपने ,
कभी मुस्कुराता सा कभी गुनगुनाता सा,तन्हा छोडकर हमे .--- विजयलक्ष्मी





यूँ कोहरे की चादर ओढकर छिपना सूरज का नहीं भाता हमको ,
उजाले की आँख मिचौली ये , कही अंधेरों में दम ही न तोड़ दे ,--- विजयलक्ष्मी




तेरे एतबार पर एतबार हुआ इसकदर खुद पे न हुआ था 
मौत को दगा देकर हम जिन्दगी की देहलीज में लौट आये .--- विजयलक्ष्मी




यूँही घूमते हुए चले आये थे हम तो शहर में तेरे ,
लौटने का रास्ता न मिला इसकदर अपनाया शहर ने तेरे .-- विजयलक्ष्मी




जुदा तो नहीं है हाल ए दिल अपना भी वल्लाह ,
हमे दिखने लगा हर सुरत में वही चेहरा अल्लाह .- विजयलक्ष्मी




जिन्दगी बता तुझे चाहिए और क्या 
मुहब्बत में इंतजार ए हद कोई नहीं होती .
तुझसे छिपाना क्या बताना क्या अब 
मुहब्बत की एतबार ए हद कोई नहीं होती -- विजयलक्ष्मी

शहर के किस कोने में हवा ठहरी है

बस्ती जम गयी सर्द मौसम में अलाव गिनती के भी नहीं ,
शहर के किस कोने में हवा ठहरी है ,तूफ़ान उठाने के लिए .--विजयलक्ष्मी




मेरे शहर से होकर गुजरती है भागीरथ की तपस्या की निशानी ,
हवा लगी जहरीली इतनी ,जमाने ने उसे भी गंदा करने हैं ठानी.-- विजयलक्ष्मी




जहर हवा में घोला सरकार ने इसकदर हर कोई अपराधी नजर आता है ,
शहर में दंगे इतने होने लगे हर तीसरा शख्स उनका साथी नजर आता है .-- विजयलक्ष्मी

कुछ नामुरादों की वजह से उजड़ा है देश हमारा

अक्ल कुंद हुयी दर बंद लगने लगे हैं ,
पता पूछ लिया शब्दों पे ताले लगने लगे 
सुना है बर्फ जम गयी दिलों के भीतर 
इक अलाव जलाया है दीप सा लगने लगा उसका असर 
जिन्दगी बन गयी अब तो एक सफर 
इन्तजार चौखट पर बैठा रहता है
जम गया जर्द होकर ....सूरज कहता है
आग को हवा भी हवा देने लगी है आजकल
पहाड़ी पर देवदार और मैदान में कोहरा जम गया
गवाहों को गवाही के लिए चंदे की दरकार हुयी
बंद कमरों ,ईएसआई गाड़ियों में बैठकर रीबोक के जैकेट वालो
पुराने फटे से कम्बल को कभी दोहरा करके लपेटकर निकलो
हकीकत का सामना करने नंगे पांव सडक पर निकलो
हाथ में दराती लेकर कभी घास को निकलो
खेत में बोने को धान ...एक फुट पानी में उतरो
फसल ईख को काटने ...कभी छोल को निकलो
गेहूं की बालियों को बीनने नंगे पैर कभी खेत से गुजरो
सर्दी गर्मी की तपिश कर देती है ताम्बई सा बदन
बंद कमरों के कमनीय बिकते हुए ,चंद सिक्को पर थिरकती तितलिया
इमान कैसा हैं बखान करती है सारा ..
कुछ नामुरादों की वजह से उजड़ा है देश हमारा .-- विजयलक्ष्मी

Friday 27 December 2013

वो परी शहजाद



वो परी शहजाद उनाबी पंख वाली ,
खिलती कलियाँ संग सतरंग वाली 

तितली सी इतराती फिरि चमन में 
दिखती है बहुत निराले से ढंग वाली .

बही पुरवाई लिए मौसम गुलाबी सा
भरती उड़ान शोख चंचल उमंग वाली

भायी नजर को ऐसे झंकृत हुआ मन
बजती सरगम चहुओर जलतरंग वाली

हजार रंग-संग झिलमिल सी जिन्दगी
रंग गयी इर्दगिर्द लिए कुंची रंग वाली .--- विजयलक्ष्मी



Thursday 26 December 2013

नव वर्ष की उत्सुकता है

नव वर्ष की उत्सुकता है जाने कैसा होगा ,
कुछ हंसता सा प्रसन्न होता सा या सोया सोया सा होगा 
मौज मनाता ख़ुशी लुटाता या फिर लूटने वाला होगा 
आजादी आजाद मिलेगी या आजाद होकर भी बंधा बेड़ियों में होगा 
आंगन आंगन गुल महकेंगे या बस महके हुए गुल ..गुल होंगे 
रोटी रोजी मिलेगी सब को या चेहरों पर फिर उदासी होगी 
सेवा देश की सच में होगी या सरकार धन की प्यासी होगी 
सूरज फिर महकेगा निखर निखर या सर्द कोहरे में लिपटा होगा
पर्यावरण सुधरेगा कुछ या इस बार भी कागज तक सिमटा होगा
वन सुरक्षा की गारंटी देंगा कौन ...
या दावानल पर हर अधिकारी होगा मौन
हवा रुपहली बह पायेगी या चिमनिया फक्ट्र्यियो की धुंआ भरी होगी
गंगाजल निर्मल खूब होगा ..
या चला अब तक जितना भी नाटक उसी का प्रारूप होगा
है इंतजार सपने सजने का या फिर इंतजार ही खूब होगा .-- विजयलक्ष्मी

Wednesday 25 December 2013

लोकतन्त्र की परिभाषा बदली

यू पी ..लोकतन्त्र की परिभाषा बदली ,
लाठीतन्त्र पर जाकर ठहरी ,पुलिस गुंडई रंग दिखाती ,
औरत मरद सबको लातों से धकियाती ,लाठी जूते खूब चलाती 
क़ानूनीवर्दी कानून का मखौल उठाती 
सरकार घोटालो को लेकर चलती 
झूठ सच पर पलती .
खबरे भी छनछन कर निकलती 
शिक्षा बिकती वैश्या बनी दुकानों पर 
बैठे खरीददार ऊँचे मचानों पर 
चढती कलदार संसदीय भगवानो पर 
चलती तलवार इंसानों पर
नहीं बंदिश कोई हैवानों पर
समाचार शोषण पोषण के ,
लट्ठ की भाषा बोली जाती
बलात होती चरित्र फिर आँखे भी फोड़ी जाती
...
बचपन में सुना था ये भारत ..
ये है गांधी के सपनों का भारत ..
लोहिया की ख्वाहिश का भारत
सच्चे सपूतों का भारत ..
लक्ष्मीबाई का भारत
अमर शहीदों का भारत ..
...
मगर अब लगता ..
गुंडातत्व का भारत
किसान को मौत का भारत
विकृत होती संस्कृति का भारत
घोटालो भ्रष्टाचार का भारत
गरीबो लाचारो का भारत
बेचारगी और बिमारों का भारत
बिके जमीर का भारत
आतंकवाद का भारत
चमचों के बाजार का भारत
वैश्य बन बिकती विद्या का भारत
उखड़े पंखो का ,गिरवी रखे हालात का भारत
बहुत बेजार है भारत
बहुत शर्मसार हुआ भारत ..-- विजयलक्ष्मी

Tuesday 24 December 2013

वही दीवानगी थोड़ी आवारगी ..

वही दीवानगी थोड़ी आवारगी ..शिकायत और शिकवे से ,
कोई दीप जलता सा शमा पर परवाना जलता सा 
मचलते कुछ अरमान दिल के थे ..मगर चुप्पी लगी भरी 
किया सम्वाद जब जरी ..खौफ था दर्द इन्तजार का 
बस सम्वाद ही हुआ भारी ..मनो में रंज नहीं मगर ..
रंग ए वफा संग अहसास था तारी ...और...
धीरे से मुस्कुराकर चल दिए बिन मुड़े ही "वो ".- विजयलक्ष्मी 

इंतजार बस गया है आँखों में क्यूँ ?

इंतजार बस गया है आँखों में क्यूँ ?
मैंने तो माँगा भी नहीं कभी तुमसे 


रूह तलाश लेगी सकूं एतबार में भी 
दर्द ए बयार मिलेगी जब कहीं तुमसे 


बहार नाराज सी लगती रही चमन से 
ओस से बिखरे मिले हैं कभी तुमसे


सूरज बन छाये हो हस्ती पर धरा की 
सर्द मौसम नर्म अहसास वही तुमसे 


दूरिया है कहाँ दिखती है मगर जो,सुनो 
फलसफो का फासला कहूं क्यूँ अभी तुमसे .-विजयलक्ष्मी 

Monday 23 December 2013

तुम जाग रहे हम सो जाये !

तुम जाग रहे हम सो जाये !जीवन सपनों में खो जाये ,
जब ख्वाब अधूरे हो जाये मन वीणा तार-तार हो जाये .

गर ख्वाब रुपहला नयनों की चिलमन में आ बस जाये 
संवरे मन आंगन भी लकदक पुष्पित बार बार हो जाये .

गा उठे बयार भी कोई बीतराग मन मेरे आंगन आंगन ,
चित्र विचित्र सा जीवन चरित्र भी उजियार संसार हो जाये .

राग भोर का गा उठा सूरज मन चंचल किरणों सवार 
भ्रमर गूंजते कलियन कलियन क्यूँ न विहार हो जाए

थिरक नाच उठती तितली भी वसंत वसन्ती निहार
और झूमते पुष्प लता पर जैसे जीवन बहार हो जाये .- विजयलक्ष्मी

हाँ ,मुहब्बत हो गयी तुमसे,

सौगात ए मुहब्बत मिली मुस्करा रहा हूँ मैं ,

हाँ ,मुहब्बत हो गयी तुमसे, जिए रहा हूँ मैं .



लम्हात ए वक्त तुम संग जो मिल गये खुदारा,


मौसम ए बहार जिन्दगानी जिए जा रहा हूँ मैं .



तुम्हे शगल कहूं या कहूं मैं दीवानापन अपना 


जिस दर तुम मिले मंजिल सा चले रहा हूँ मैं .



हर राह अब तो मेरी तेरी गली से होके गुजरी


रुकते नहीं कदम अब बढ़ता ही जा रहा हूँ मैं . 



तुम जाम हो या नशा बन चुके हो खुदारा 


समझ से परे हैं मगर हाँ ,पिए जा रहा हूं मैं - विजयलक्ष्मी

जिधर देखो उधर मुजफ्फरनगर है

पढ़े लिखे से तबके से ज्यादा की ही अपेक्षा थी ,
करेंगे "गे रक्षा "की बात गाय की कब अपेक्षा थी ...(सरकार का ग्लोबेलाईजेशन होगया है न ).-- विजयलक्ष्मी




कहूं एक बात गर तुमसे थोडा सा तो विचारना 
प्रेम निराकार ब्रह्म है तो रिश्ता साकार उपासना .- विजयलक्ष्मी





उत्तरप्रदेश का अजब ही मंजर है 
जिधर देखो उधर मुजफ्फरनगर है .- विजयलक्ष्मी




कुछ फलसफे दुनियावी है जमाने की तहरीर में ,
जिन्दगी को सत्य की मौत का आइना मिल चुका .- विजयलक्ष्मी









खरीदने वाले खुद बिक न जाये गर ..

नग्न नर्तन शब्द का घड दिया कलाओं से ,
खुद भी गलत रहे थे जो मंडित किया महिमाओ से 
देह पुजारी शराब धारी क्यूँ करते है करतब ऐसे 
जिन्दगी को छोड़ तोड़ सच को, गिरते क्यूँ सीमाओं से 
नियन्त्रण नहीं रख सकते क्यूँ गुजरते उन रास्तों से 
मरते कर्मों से अपने हो शर्मिंदा ..सुना जीते रहे वर्जनाओं में .- विजयलक्ष्मी




बस कीमत इतनी ही लगी तुम्हारी बाजार में ,
तुम कोई उठाईगीरे से ही लगे
खरीदने वाले खुद बिक न जाये गर ..
तो भी कीमत क्यूँ न कम लगे ..
क्यूंकि तुम बिकाऊ हो ..खरीददार तो बोली लगाते हैं
तुम आंकते हो खुद को क्या खुदा 
जौहर तुझमे है खरीदने का गर तो बता
जौहरी भी हिम्मत करे कीमत आंकता है
कभी तो कीमत में खुद को क्या खुदा को बांचता है .--- विजयलक्ष्मी

बीजेपी ने 10 करोड़ रुपए में खरीदना चाहा मुझे...: AAP विधायक |




चंदा से निकली चांदनी तो हम नहीं ..

कोई अपना बैठा है ,
जिन्दगी के लुत्फ़ में खुद को लुटा बैठा है 
सर्द मौसम में कोहरे का थोडा मारा है 
दूर है तो क्या .. है तो अपना ही और बहुत प्यारा है
साँस में लिए आस हर बात में जज्ब किये जज्बात 
जैसे आँखों पर सजता सपना है ,
ह्रदय में उगते उदगार लिए अधिकार ...हिस्सा ही मेरा अपना है 
झूठ नहीं सच ही होगा 
करतब कोई समय का भी होगा 

जो बैठा है दीपक जलाये देहलीज पर इंतजार का
और इन्तजार करता है नजर टिकाये एतबार का
कैसा सुहाना सा पल रहा होगा वो
सोचकर नजदीकियाँ अपनों से मुस्कुरा रहा होगा वो

और सूरज भी देता होगा नर्म सा अहसास
अकेलेपन के बाद मिलना अपनों से खूबसूरत सुखद अहसास
कुहुकता है पंछी मन का और नमी सरहद पर
जीवन देता सुकून दूर नहीं लगते तुम हो यही कही पर

कहीं मुझमे मेरी पहचान तो तुम नहीं
सूरज से खिलता चंदा से निकली चांदनी तो हम नहीं .- विजयलक्ष्मी

सत्य तो सूली पर ही चढ़ा है सदा से

सत्य तो सूली पर ही चढ़ा है सदा से 
झूठ ने कंधा दिया हर बार है 

कभी राम को बनवास दिया कभी कृष्ण को रणछोड़ 
कैसी हुयी मानवता दिया सबको पीछे छोड़ 
ईसा चढ़े जब से उतारा नहीं आजतक किसी ने भी 
पहले मौत का जश्न होगा फिर जिन्दा होने का स्वांग 
जिन्दे को मारते रहे ..मारकर पूजते हैं बताकर भगवान 
वाह रे तेरी माया निराली है इंसान .- विजयलक्ष्मी





...अनुयायी ही चढाते है सूली पर ..
ईमान के मारे दौलत से नहीं बिके जो बिक जाते है ईमान पर 
उन्हें खुदा बनके पूजते हैं ..मानवता खातिर दर्द में भी मिठास है बस पूछते हैं 
खुद नहीं चढ़ते कभी सूली 
फिर ईसा बनाकर सूली पर ईमान को चढाते है जिसे कहते हैं सभ्य समाज 
चलो कुछ इंसानों को आवाज लगते है आज ,
कुछ इंसान मिल गये गर ईसा को सूली से उतरवाते है आज ..
..इसी इंतजार में जिन्दगी बीती युग बीतचले
सब भूल गये सूली का दर्द ...मगर ईसा उस हालात से ज्यादा तडपते होगे आज -- विजयलक्ष्मी

गलत किसको कहा जाये ???

वाह रे समाज ,
स्वतन्त्रता का मायने शराब किसने दिए ,
आजादी के मानक महफिल किसने बनाये 
मुजरिम कौन ?..स्त्री ???...या पुरुष ???..क्या कहा जाये 
हमारी संस्कृति के निवालो को मदिरा कबाब किसने दिखाए 

बराबरी हाँ ..बराबरी तो खुद को नहीं ..औरत को भी लिए बुलाये 
फिर खेल देह के किसने सही ठहराए 
जब खेल मन मुताबिक तो भी चरित्रहीना ,,,
न माने तो भी कुलटा ही कहलाये 
नियन्त्रण नहीं खुद पर फिर...गलत मगर औरत ही कहाए 
खुद लांघे दस खाट पुरुष निर्लज्ज नहीं है
औरत ने नजर भी उठाई तो ..गुनहगार बन जाये
.
वाह रे चरित्र ...तेरी परिभाषा ..क्यूँ नर नारी पर बदल बदल जाए
बेहोश पड़ी नारी से खेलो मनरंगा खेल ...मगर बलात्कारी न कहा जाए .
जाग उठी अंतरात्मा हवस पूरी करके ..
पहले जब सोई थी तब .....उसे क्या कहा जाए .
शोषण और पोषण को ...क्या नाम दिया जाए ,
मर्यादा को किया तार तार ..गलत किसको कहा जाये ??? -- विजयलक्ष्मी




आजाद भगत को हम नमन भी करते हैं ,

बिकती औरत बाजार में ..बेचता कौन है 


बेबसी के हालत को सींचता कौन है 


बहुत है जो पूजते है रिश्तों को पवित्रता से ..


दोषी तो व्ही है जो ....लीहरे लीहरे खीजता है 


बहुत है दुनिया में नजर पाक है जिनकी ..


ये किसने कहा ..औरत दुश्मन नहीं औरत की 


हकीकत कह दूं ..दुश्मन खुद की औरत खुद ही होती है 


विश्वाश में जिकर विशवास में ही मरती है .- विजयलक्ष्मी

क्यूँ नहीं खुद को पत्थर करती है ?

खुद की दुश्मन है औरत ही 
अपने आप को बहुत तीसमार खां समझती है 
जानती नहीं औकात अपनी समाज में फिर भी हनकती है !
कीमत उसकी लगती है देह के हिसाब से जाने क्यूँ ठनकती है ?
विश्वास पर जिन्दा विश्वाश पर ही क्यूँ मरती है ?
क्यूँ नहीं कुचलती मारीचिका को मन की ..क्यूँ आगे बढती है 
क्यूँ रखती कोमल भाव क्यूँ नहीं खुद को पत्थर करती है ?
माँ रहे तो ठीक मगर क्यूँ खुद को मोहताज करती है ?
अपने को मार क्यूँ किसी के अहम को पूरित करती है ?
बहती है नदी सी क्यूँ नहीं पर्वत बनती है ?
ममता का सागर क्यूँ बनती क्यूँ नहीं अम्बर सा संवरती है ?
क्यूँ त्याग की मूरत बन सर्वस्व करती स्वाह ..जाने खुद को क्या समझती है ?
क्यूँ निकलकर घर की देहलीज से कुछ कर गुजरने का सपना बुनती है ?
नारी तेरे नर्म हाथो में ऊन के गोले भाते है..क्यूँ नहीं उन्ही में अपना ख्वाब बुनती है ?
बस तेरा स्पर्श ...एक ही रूप तेरा है नजर में ..
मान मर्यादा सम्भाल तू क्यूँ घर से निकलती है ?
वो तेरे कोई नहीं जो सडकों पर मिलते हैं .
क्या कहूं कौन से सपने नारी तन की खातिर आँखों में पलते हैं !
वो औरत को माँ बहन दोस्त सखा प्रिया या ...बस औरत तन समझते हैं !
दुश्मन हैं न औरत ही ...सच में जनती है पुरुष को
प्रेम का पथ पढाती है औरत को
दहेज की खातिर लालच में जलाती है औरत को
औरत ही जो घर से बेघर बनाती है औरत को
तू दोस्त सखा सबकी बन ..बदले में तुझे मिलती है न रोटी बहुत हैं
माता पिता ने देहलीज से विदा किया ...क्यूंकि तू उनपर भारी बहुत है
रख लेते घर में तुझको ...कैसे दुनिया कहती ...मर गये बेचारे लडकी अभी कुँवारी है
वाह री दुनिया, विदा करती कैसे बताओ बेटी औरत बनकर महतारी है .---- विजयलक्ष्मी

तुम जाग रहे हम सो जाये !

तुम जाग रहे हम सो जाये !जीवन सपनों में खो जाये ,
जब ख्वाब अधूरे हो जाये मन वीणा तार-तार हो जाये .

गर ख्वाब रुपहला नयनों की चिलमन में आ बस जाये 
संवरे मन आंगन भी लकदक पुष्पित बार बार हो जाये .

गा उठे बयार भी कोई बीतराग मन मेरे आंगन आंगन ,
चित्र विचित्र सा जीवन चरित्र  उजियार संसार हो जाये .

राग भोर का गा उठा सूरज मन चंचल किरणों सवार 
भ्रमर गूंजते कलियन कलियन क्यूँ न विहार हो जाए

थिरक नाच उठती तितली भी वसंत वसन्ती निहार
और झूमते पुष्प लता पर जैसे जीवन बहार हो जाये .- विजयलक्ष्मी

Friday 20 December 2013

जब लहू गिरता है दिल की आग पर ...

जब लहू गिरता है दिल की आग पर ,,
उठती है चिंगारी सी भडक कर राख पर 
चिनार के वृक्ष से लिपटकर चलती हुयी आँधियों सा गुजरना तेरा 
सहमकर रात इंतजार करती है सहर का 
वक्त कब रुकता है मगर खिसकता भी नहीं जैसे रातभर 
कल पूस की ये रात खेत पर कटी ..खुले गगन में 
जंगली जानवर भी भूखे से घूमते है ..
जंगल सुना है इंसान खा गया ,
बचे हुए हिस्से में दावानल लगा गया ..
जिम्मेदार सरकारी खातों में गाँव के लोगो को ठहरा गया ..
मोटर लगाई थी सूद के पैसो पर ..उसे महाजन उठाकर ले गया
खेत सूखे पड़े है सर्द मौसम हुआ ..
ओस कवियों को सुहाती होगी ...लेकिन वही पाला फसल पूरी मार गया
पानी मिलता रहे हजारे से ही कभी ...गमले के पौधे सूखते नहीं ..
मनीप्लांट जैसे पौधे दीवार पर भी सूखते नहीं
एक फूल लगा लिया है तुलसी के पौधे के पास ही ..
उसे सूरज के बिना खिलना नहीं आता ,
सुना है लोगो ने उसकी कलम लगा डाली ..
जड़ बची रही थोड़ी बाकी पूरी नोच डाली .- विजयलक्ष्मी

राह कौनसी जाना ..

खौफ ए खफा से हैं मगर दिल मानता नहीं ,
राह कौनसी जाना अब तलक पहचानता नहीं .

वो कौन सफर है चल पड़ी डगर जिधर जिधर 
मोड़ कहाँ ठहर गये हैं कोई पहचानता नहीं .

ये नफरतों की दुनिया, हुयी मुहब्बत जुदा जुदा
रफ्तार रफ्ता रफ्ता राह कोई पहचानता नहीं 

अधेरों का बसर अभी और कितना मिलेगा 
रौशनी की दुनिया लापता क्यूँ पहचानता नहीं .--- विजयलक्ष्मी

Thursday 19 December 2013

दिल को यूँही बेकरार चाहता हूँ ..

कोई हसरत बकाया क्या तुमसे जुदा हो ,
अब इस दिल को यूँही बेकरार चाहता हूँ .

तू मुस्कराए लम्हा लम्हा जिन्दगी संग
अब खुद से भी यही एतबार चाहता हूँ .

पिसने डरते रही जो हिना डाल पर ही ,
हाथो पर उसी का सा निखार चाहता हूँ .

खुशिया मिलनी दुश्वार जमाने में हुयी 
अब दिलचस्प गम बेशुमार चाहता हूँ .

बसेरा ख्वाब में होता भी कैसे बताओ
खोया जो सफर नींद का हरबार चाहता हूँ .
.-- विजयलक्ष्मी

Wednesday 18 December 2013

कैसी बरसात आई

कटी आँखों में रात सारी ,
कैसी कयामत की ये रात आई .

बीतते नहीं लम्हे किसी तौर 
कैसी तन्हाई की ये रात आई .

उखड़े से पत्थर टूटे से रास्ते 
किस राह मंजिल की बात आई .

पिंजरे की मैना,पंख खो गये हैं
छिनते हौसलों की कैसी सौगात आई

सुना रहम दिल सा था बादल
मेरे घर न बरसा ,कैसी बरसात आई .- विजयलक्ष्मी

आ जाओ साथ निभाने मेरा...

गन्तव्य और मन्तव्य के साथ राह भी उसी जैसी पवित्र हो तो पाकीजगी की ख़ूबसूरती बढती है ..

जिस्म को रखकर किनारे गर साथ निभा सको तुम पाकीजगी से 
,
आ जाओ साथ निभाने मेरा, रूह को प्यास है पाकीजा अहसास की
.- विजयलक्ष्मी



उस तासीर का मजा ही बेनजीर खुदा सा है ,

जिसमे रूह खिलखिलाती है जिस्म जुदा सा है .- विजयलक्ष्मी





घूम गयी वो एक जादू की सी छड़ी रूह पर मेरी ,

मुलाकत ए मुहब्बत ए खुदा के निशाँ दिखाई दिए .


हैराँ हूँ जमाने के करतब देखकर आजकल मैं भी 


ऊँगली उठाई वहीँ जहां मुझे कहकशां दिखाई दिए .- विजयलक्ष्मी

मन फिर बोला मैं मुजफ्फरनगर हो रहा हूँ

" वो मर गयी ..एक लडकी .
मरने दो न ..जाने कितनी मरती है एक और 
खबर पूरी नहीं होती बिना किसी की अस्मत के लुटे 
बिना किसी की जान के लुटे 
बिना बलात्कार की घटना के ..सांप्रदायिक हिंसा के 
औरत औरत की दुश्मन है तो पुरुष भी दोस्त हुआ कब है 
क्यूँ नहीं सुरक्षित देहलीज के भीतर या बाहर 
क्या यही मयार है उसका ...मौत को खौफ होने लगा शायद अबतो 
मोमबत्तियां जली ..एक दामिनी को लेकर .
अगले दिन ही एक और खबर थी भामिनी को लेकर
कोई देह को उपकरण समझ रहा है ..कोई खिलौना बनाकर खेलता है
हर कोई नारी तन का अपमान कर रहा ..
कोई प्रेम दिखाकर लूटता है कोई प्रेम में तेज़ाब फेंकता है
कोई हिकारत भरी नजर से देखकर मापता है आकार
कहाँ खो गये नारी उत्थान के समर्थक ..
दिखती नहीं किसी को शिविर में ठण्ड से सिकुड़ती नारी
न दिखाई देती उनकी लाचारी न बिमारी
सभी संस्थाए सो गयी ...आलाप्ती थी नारी का राग खो गयी है ..
लहू से तर हो रहा हूँ ..आज मन फिर बोला मैं मुजफ्फरनगर हो रहा हूँ
कोई सुध नहीं लेने वाला ...बस दिखावे को सांत्वना हर कोई देने वाला
न प्रधानमंत्री को सुध है और संतरी सारे बेसुध हैं
मिडिया को नारायण साईं और आसाराम भा गये ..
जो थोड़ी सी कमी थी उसमे योग वाले रामदेव छा गये है
पप्पू को खबर अपनी भी नहीं है आजकल ..
दिल्ली में "आप " की बिल्ली गुर्रा रही है आजकल
कुछ शेर दहाड़ रहे थे सुना था ..
जंगल में दावानल की पुकार लगी सुना था ..
सन्नाटा क्यूँ छा गया ...मालुम अँधेरा गहन हो गया है ..
बस इन्तजार है रोशन किरण की सबको ..
जाने कौन पल वो सुनहरी सी सहर होगी
जिन्दगी सत्य को नसीब होगी ,,
सूर्य किरण खुद के करीब होगी
चाहकर उठेगा दिन बिना खौफ के
निकलेगी जिन्दगी जीने पूरे जोश में ..
कौन सा दिन होगा जब इंसान आएगा होश में ."
- विजयलक्ष्मी

Tuesday 17 December 2013

मर गयी तुम ,..

मर गयी तुम ,
भला हुआ ..क्या रूह को चैन मिला तुम्हारी ?
भला हुआ .. नियम पर चस्पा होगया नाम तुम्हारा ..
इन्साफ मिला पूरा तुम्हे क्या ?
मोमबत्तिया जल उठी लाखों हर चौराहे हजारो हाथो में 
दहशत का अँधेरा खत्म हुआ क्या ?
तुम्हारी बरसी हो गयी ..हो गये सभी अनुष्ठान पूरे 
स्वर्ग की प्राप्ति हुयी क्या ..
या चैन मिला माँ को पिता की आंख सूखी क्या ?
घर से निकलने की सुरक्षा बढ़ी क्या ?
घर की बेटी की लाचारी घटी ?
जिम्मेदारी में कौन सी कमी अभी देखि क्या ?
सांसों को छूट मिली या मिलाचैन से जीने का फरमान ..
कितनी बेटी हो रही है ..आज भी दरिंदों के हाथ बेजान ..
तन ही नहीं मन भी मारते हैं ..
व्यस्क अगर बेशर्म हुयी तो क्या अवयस्क को छोड़ देते है हैवान ?
सवाल ...खड़े हैं कितने औरत के रंग ढंग पर ..
उसकी वेशभूषा और जीने के ढंग पर ..
कोई सवाल क्यूँ नहीं खड़ा होता दरिंदगी के वंश पर
क्यूँ कोई बलात्कारी छूट जाता है पैरोल पर
लडकी से पूछते है सवाल पुरुष वकीलों की जबान बनकर दलाल ..
जैसे बिन पैसे मिल गया हो मुर्गा करने को हलाल
किसने पहले छेड़ा कैसे छेड़ा क्या छेड़ा ..
उनसे पूछे किसी दिन बहन या माँ हो गर खड़ी उसी कटघरे में ..तो क्या ?
बदलते नहीं तेवर जैसे मिल गया खाने को घेवर ..
बेशर्म बेहया उनसे बड़े वो ..जो दौड़ते है बचाने उन्हें जो दोषी करते जो बलात्कार
क्यूँ नहीं लगते उनको जूते चार ..उनसे कहो ..
पहले तन खोया ..अस्मत खोई ,समाज में खोया आत्मसम्मान ..
भरी अदालत न्याय की खातिर झेलती कितने ही अपमान
तिसपर एक सवाल ...क्यूँ गयी तुम अकेली घर के बाहर ..??????
घर में कैद रहो ,नौकरी करके आजाद क्यूँ होने की चाहत ...गुलाम रहो ,
अपनी हर वस्तु की खातिर फैलाओ हाथ
क्या करोगी लेकर कुछ कौन तुम्हारे साथ ..
कुँवारी लडकी हो ..कल को कैसे होंगे पीले हाथ
घर से निकली निगाह में आओगी ..
कैसी कैसी निगाहे निहारेगी कैसे बच पाओगी
तुम लडकी हो खुद को बदलो .......दुनिया नहीं बदल पाओगी
आधी आबादी नारी को दबाते है ..
नारी खत्म तो तुम भी खत्म हो जाओगे
याद रखो ...सुधार नारी परिवर्तन से नहीं ..
सबके परिवर्तन से होगा ..
क्यूँ नहीं कहते दरिंदो से साबित करो तुम इंसानी शक्ल में इन्सान ही हो
अभी तक बने हैवान नहीं हो
कितने चेहरे लगे हैं पुरुष के शरीर पर
कितना मीठा बोलता है महफिल में बैठकर
घर की देहलीज के भीतर और बाहर जैसे स्याह श्वेत ...
न उम्र की राजनीति कोई कर सके ..
जुर्म किया है तो सजा भी भुगतो ..
मौत से क्या होगा ....
नपुंसक बनाकर छोड़ दो ,
मानवाधिकार हनन.... उनके सभी सामाजिक अधिकार खत्म !!- विजयलक्ष्मी