Monday 28 December 2020

नव वर्ष कैसे है अपना यार

न रीत ये अपनी न संस्कार 
इससेे इतर नहीं न स्वीकार
न धरणी ने अपना रंग बदला 
न किया अभी सोलह श्रृंगार 

फिर कैसे कहते हो बोलो 
यह नव वर्ष है अपना यार 

बर्फीली ठंडी हवा गहरी है 
पर्वत पर्वत बर्फ ठहरी है
सिकुड़ी हुई प्रकृति बैठी है 
शीत लहर से लगती ऐंठी है 
न वासन्ती रंग छाया अभी
न भ्रमर की गूंजी है गुंजार 

फिर कैसे कहते हो बोलो
यह नव वर्ष है अपना यार 

न रौनक चेहरों पर दिखती
 सर्दी की चादर है लिपटी 
उष्णता कोहरे में सिमटी 
धरती भी है लिपटी लिपटी 
माना दासता से गुजरे हैं किन्तु
भूलेंं क्यूँ हम अपने व्यवहार 

फिर कैसे कहते हो बोलो 
यह नव वर्ष है अपना यार 

हां,विश्वबन्धुत्व अपना भाव है 
माँँ भारती का भी यही प्रभाव है 
जब पकी फसल लहराएगी 
कुहासेे भरी रात गुजर जाएगी 
तब ये धरती भी हर्षाएगी 
कलियोंं पुष्पों से कर श्रृंगार 

अभी समय आया ही नहीं वह
फ़िर कैसा नव वर्ष है आया यार


बदलेगा मौसम होगा रूप सुहाना 
नव वर्ष का तब होगा त्यौहार 
सब बर्फ पिघल कर बह पायेगी 
होंगे प्रफुल्लित मन में संचरित राग 
फिर मौसम होगा खुशियों का 
चहुँँ और बिखरेगी मस्त बयार 

रूप रंग की नव बेला सा
ये धरती भी कर लेगी श्रृंगार

चटकेंगी कलियां महकेगी बगिया
मलय पवन की बहेगी बयार
रति रूप धर मुस्कान धरेगी
काम देव ज्यूं ले लेंगे अवतार
हर रंग खिलेगा धरती पर तब
और मीठे झरने से वार्तालाप 

पंछी की चहक सुरीली होगी
प्रकृति में मादकता अपार

मौसम खुद देगा गवाही तब 
झूमम झूम मनाओ नव-पर्व हजार
बाजार भरेंगे रौनक होगी भरपूर
जीवनन में मीठी होगी बयार 
चैत्र मास की प्रथमा वासर को
देवी-पूजन करते संग मंत्रोच्चार 
सच कहूं मन को तो भाता है 
एक इकलौता वही नव-वर्ष हमार 
✍️ विजय लक्ष्मी

Sunday 7 June 2020

उजड गए हम अपने मकान से

उजड गए हम अपने मकान से उनकी मेहरबानी हुई ..
वो रोज बुलाते थे हमे आवाज देकर ,


हम न समझे उनकी रंजिशें ,बेदिली भी रास आने लगी 
चल दिए अब वो हमसे मुह फेरकर .


उन्हें क्या कहें अब दिल रोता भी नहीं रिसता भी नहीं 
देखता वो दर..जिसे गए वो भेड़ कर ,


मेरी मुहब्बत तमाशा ही हो गई अब तो, क्या छुपाऊँ
नाम न आयेगा, जुबां चली अहद लेकर.


छोड़ दिया मेरी गली आना और आवाज लगाना भी ..
थक गयी जिंदगी भी उन्हें आवाज देकर.


रोशन उजाले किसी और छत पे हों कोई गिला नहीं
मेरी मुडेर से सूरज चला रौशनी लेकर ,


सिमटने की जरूरत ही खत्म हुई अब उजड़ने दो हमे
मर भी न पायंगे हम, बदनामी देकर.


रोशन रहे दुनिया, दुआयें जो सुन सकें कही अनकही
नासूर हुए हम नामुराद चाहतें लेकर .
---विजयलक्ष्मी
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Wednesday 1 January 2020

"सोचो ,क्यूँ हैं कांटे संग गुलाब के ,

"सोचो ,क्यूँ हैं कांटे संग गुलाब के ,
कैसा खालीपन है बिन इन्कलाब के ?
मंजिलों की राह आसां नहीं होती 
क्यूँ सूनापन रोता है बिन सैलाब के ?
रिश्ता रूहानी बे-सबब खूब हुआ 
क्यूँकर सिमटी दुनिया बिन ख्वाब के ?
शून्य पसरा क्यूँ समन्दर के खारेपन सा
कमल खिलता कब है बिन तालाब के ?" 

------- विजयलक्ष्मी
.
जीना सीखने के बाद भी आहत आहट रुला जाती है ,,
जिन्दगी अहसास के फूल पलको पर खिला जाती है ।।   ---- विजयलक्ष्मी


इश्क औ गम का रिश्ता भला रिसता क्यूँ हैं ,,
मुस्कुराकर इश्क की चक्की में पिसता क्यूँ है ||    --- विजयलक्ष्मी































नम मौसम को बदलती है उमड़ते अहसास की गर्म चादर 
 ,,
जिसे ओढकर अक्सर मातम भी खुशियों का राग सुनाता है।।  ----   विजयलक्ष्मी




और मुस्काती हूँ बैठ ख्वाब के हिंडोले मैं ,,
रच बस मन भीतर पुष्पित रगों के झिन्गोले में | 
विजयलक्ष्मी

मुझे चस्का लग चुका

सर्द भोर का सूरज
तपिश तो देता है
छोड़ जाता है एक ठंडापन

ठिठुरता अहसास
धूप की ख्वाहिश
पतझड़ का रंग

सिकुड़ती त्वचा
नाराज होती प्यास
जुल्म करती साँझ

ऐसे में खिला पुष्प
जैसे कह रहा है
मेरी तरह महक

तन्हाई का क्या है
रंग ढंग जय न
कुछ यादों के संग

मुस्कुरा सफर तय कर
नहाकर नदिया में
मेरे संग लहरों में उतर

भूख तुडफुडा रही थी
नयन नम हैं ..
और तेरा अहसास जिन्दा

गगन के उस छोर
एक सितारा तन्हा इंतजार
टूटता रहता है दूजा इधर

आंसू गिरने से डरते हैं
तस्वीर न धुंधला जाये कहीं
और एक मुस्कान होठो पर

नश्तर भी मीठा था तुम्हारा
जुदाई कसैली सी लगती है
और याद कॉफ़ी मेरी तलब

मुझे चस्का लग चुका
मन को स्वाद भा गया
और दिल को तुम ||
---------- विजयलक्ष्मी