Friday 26 December 2014

" आंसू एक जैसे गिरने चाहिए "



दर्द किसी का भी हो 
मौत कही भी कहर ढहाए 
गोलिया किसी भी देह को छलनी करे 
आंसू एक जैसे गिरने चाहिए 
उत्सव पर दर्द हो बिखरा दर्द के श्वेत पुष्प झरने चाहिए 
दोगलापन कहू किसका मातम है मेरे घर का
मातम पर घंटिया नहीं मोमबत्तियां ही जलनी चाहिए
" क्रिसमस मेरी "है तो तुम्हारी कैसे हुयी सोचना
पेशावर की मौत दुनिया को आंसू थमा गयी
आसाम की मौत पर भी छाती छलनी होनी चाहिए
न दर्द बिखरा न आंसूओं का सैलाब आया
जिन्दगी जिंदगी में अंतर क्या फानी होनी चाहिए
यहाँ भी फूल थे आंगन के यहाँ भी जिन्दगी खोई किसी के लाल ने
दरारे खींचने वालों तुम्हारी अदाकारी भी फजीहत होनी चाहिए
दौलत के पुजारी बने मिडिया वाले सभी
सत्य को उजागर करे मिले मान्यता वरना मुमानत होनी चाहिए
----- विजयलक्ष्मी

" हवस की खोपड़ी है इंसानी देह पर "

कलम चली रंग दुनिया का लेकर
वही हर कदम नया इतिहास घडते हैं

खौफ ए मौत दरमियाना कद करले
उनके कदम हर लम्हा आगे ही बढ़ते हैं

सत्य की लकीरे झूठ को लील डाले
वक्त के साथ ऐसा इतिहास घडते हैं

रौशनी रूह की फरमान उपरवाले का
इंसानियत के झण्डे मुहब्बत पर पलते हैं

भूख उगने लगती है जब दिमाग में
तब कातिल ही तलवार के भेंट चढ़ते हैं

हवस की खोपड़ी है इंसानी देह पर
रौशनी और रोशनाई अपनी घडते है ---- विजयलक्ष्मी

Sunday 21 December 2014

" रंगीन लिबासो में लिपटा सच चुभता नहीं है "

मार कर खुद को चलो जिन्दा हो जाते हैं ,,,
तोडकर पिंजरा छोडकर देह ... गगन में उड़ जाते हैं 
रूह बनकर इस दुनिया से गुजर जाते हैं 
करने दो इन्तजार दुनिया को ...हम फिर मिलने से मुकर जाते हैं 
जिन्दगी मुर्दों की बस्ती दफन है और हम जिन्दा से दीखते लोगो में मुर्दा 
चलो लाशो को खुला नहीं छोड़ा जाता ...सडन उठती है
नश्वर दुनिया का सच ........नग्न आँखों से देखो
रंगीन लिबासो में लिपटा सच चुभता नहीं है
अच्छा किया प्रभु .............आत्मा को अद्रश्य बना दिया तूने
यहाँ सबका ही मगर बाजार लीग दिया
तू डाल डाल तो पात पात है इंसान
उसने कुछ नहीं छोड़ा ....... तू भी नहीं मिलता किसी से
डर लगता है कही तुम्हे भी किसी ने तो नहीं चुरा लिया
----- विजयलक्ष्मी

" मैं फरिश्ता नहीं हूँ "

" मैं फरिश्ता नहीं हूँ ,,
इन्सान हो नहीं सकता ..क्यूंकि 
उसके लिए शर्त है जिन्दा होना 
मुर्दा होता तो सड़ चूका होता ये तन 
बस पुतला हूँ .. एक 

हाडमांस का ...दीखता हूँ जिन्दा सा
दफन हो चूका हूँ कब्र में अपनी
वक्त आने दो ...
चार कंधो पर लेजाकर आखिरी विदा तो ...आग पर ही होगी
क्यूंकि अभी धर्म नहीं बदला हमने
".
---- विजयलक्ष्मी

Friday 19 December 2014

" साहित्य तो साहित्यकार लिखते हैं "

" हम मन का उबाल लिखते है ,
जीवन का अंधकार लिखते है
दुनियावी व्यापर लिखते हैं
वतन की ललकार लिखते हैं
साहित्य तो साहित्यकार लिखते हैं


हम तो दर्द लिखते हैं
पहाड़ो पर जमी बर्फ लिखते है
दिल की जमी पर जमे हर्फ लिखते हैं
इंसा कमजर्फ लिखते है
कब वक्त को बना थानेदार लिखते हैं
साहित्य तो साहित्यकार लिखते हैं

हमारा क्या कुछ शब्द उकेरते हैं
दिल के कुछ जख्म उधेड़ते है
व्यर्थ के कुछ मौसमी राग छेड़ते हैं
न मिले अपना तो उधार लिखते है
साहित्य तो साहित्यकार लिखते हैं

बच्चो की गिल्ली डंडा लिखते हैं
परीक्षाफल में बैठा अंडा लिखते है
छब्बीस जनवरी का झंडा लिखते हैं
कभी ताजमहल तो कभी कुतुबमीनार लिखते हैं
साहित्य तो साहित्यकार लिखते हैं

चूल्हे पर पकती भूख लिखते है
सरकार औ साहूकार का झूठ लिखते हैं
बंदूक में लगी लकड़ी को मूठ लिखते हैं
छाती छलनी करती बंदूक लिखते हैं
हमकलम के किस्से सिलसिलेवार लिखते हैं
साहित्य तो साहित्यकार लिखते हैं

हम पीड़ा मन की लिखते हैं
बिमारी समाजिक तन की लिखते हैं
मुश्किले जीवन की लिखते हैं
इंसा का बनाया बाजार लिखते हैं
साहित्य तो साहित्यकार लिखते हैं "
----- विजयलक्ष्मी

" ये कलयुग है जी"



" ये कलयुग है ,,द्वापर नहीं ..
कृष्ण बनने की चाहत लिए सभी हैं 
राधा भी चाहिए ..लेकिन ..
उसका नेह नहीं उसकी देह लगे प्यारी
अवसर चाहिए ..
राह कोई भी हो ..चाह यही है
हाँ ...यह कलयुग ही है ..
यहाँ राधा तस्वीर में पुजती है
मन्दिर में पुजती है
ईमान में नहीं पुजती
पुज भी नहीं सकती
कहा न ...ये कलयुग है
यह नेह रस नहीं देह रस के आकांक्षी हैं धरा पर
इल्जाम हैं हर ईमान पर
यहाँ राधा हो ही नहीं सकती
हो भी जाये तो जी नहीं सकती
क्यूंकि ...वह तो व्यभिचारिणी हैं
कलंकिनी ...अशुचिता औरत है
कृष्ण बनने की ललक तो है ..लेकिन
न राधा का चरित्र पाच्य है
न कृष्ण का सुंदर मन .
चलो बहुत हुआ ,,
यहाँ बंधन और तलाक होते हैं
बाजार में सब हलाक होते हैं
दोस्त और दोस्ती के रंग चाक होते हैं
समझ नहीं आई न अभी ----
ये कलयुग है जनाब "
यहाँ रावण और कंस मिलेंगे हर देह में
जीवन अपभ्रंश मिलेंगे नेह में
न्यायालय हैं... वकील हैं
कागजी दलील हैं
कुछ लिखी हुई तहरीर हैं
मकान हैं लिबास हैं ..
बस गुनाह नेह का अहसास है
कहा न ...
ये कलयुग है
मीरा की खातिर नाग है
मोमबत्ती का राग है
स्त्री होना अभिशाप है .
अत्याचार बलात्कार हाहाकार सबकुछ है यहाँ
हर चौराहे पर खड़ा बाजार है यहाँ
हर कोई खरीददार हैं यहाँ
बिको या न बिको
कीमत लगती है बाजार में
सबको इंतजार है यहाँ
बोला न सबको ...
ये कलयुग है जी"
----- विजयलक्ष्मी

Thursday 18 December 2014

" तू सोया है कहाँ ? "



" नहीं हूँ मैं यहाँ 
करूंगा भी क्या रहकर यहाँ 
जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं 
बचपन भी क्या एक धोखा नहीं 
सुना था ईश्वर रहता था यहाँ कभी 
आज गोलिया है संगीनों के साए है 
मौत नाचती है सीने पे रोती हुई माए हैं 
फिर भी ...फिदायीन आजाद है 
इंसानियत आज बर्बाद है 
मरने वालो की ज्यादा तादाद है 
कभी गर्भ में रहते माँ को मारा 
कभी मेरी धरती रंगी लहू से अपनों के 
कभी मेरे लहू से 
ए खुदा तू ही बता ...क्या तूने लकीरों में बदा
तू सोया है कहाँ ?
या थी तेरी ही मर्जी दामन तेरा भी लहू में रंगा जाये 
क्या तेरी प्यास बुझी नहीं जल से 
लहू की तलब तुझको उठी क्यूँ 
ये दीन कैसा ...कैसा ये मजहब 
इंसानियत मौत की खातिर होती तलब 
यही इंसाफ गर तेरा ...तो सुन ,,
क्या है तेरी दुनिया में जो इस दुनिया में देखू 
खून खराबा मारकाट ,,दहशतगर्दी या बेशर्मी 
सरहद में बांटता ..
समन्दर में बांटता 
पर्वत में बांटता ..
सहरा में बांटता ..
प्यार से बांटता ...यूँ नफरत न बांटता 
तेरी बनाई मूर्तियों ने ही तेरी बनाई मूर्ति तोड़ दी 
इंसानियत की साडी हदे ही तोड़ दी 
ईमान बिक रहा है चौराहों पर 
औरत को खेत इंसा को रेत ..बच्चो पर मौत नचाई 
कैसा खुदा है तू ..है ये कैसी तेरी खुदाई 
क्या तुझे मानु क्यूँकर तुझे पहचानू 
या कहदू तुझे भी ..ए खुदा--- होगा तू जिसका खुदा होगा 
तू मेरा खुदा नहीं ... क्यूंकि इंसान हो गया हैवान और...

 तुझे पता नहीं "

.-- विजयलक्ष्मी

" पूछते हो ,,कयामत आने का सबब "


" गीले से रंग देकर मुझे दिल के,
पूछते हो,, मुस्कुराने का सबब||

मेहँदी में ख्वाब पलको में सुरत
पूछते हो,,आंसू बहाने का सबब||

अरमानों की महफिल लगाकर
पूछते हो,,दामन उड़ाने का सबब||

लहर उम्मीद की अहसास की कश्ती
पूछते हो ,,डूबने उतराने का सबब||

गुजरे तूफ़ान औ सुनामी सा छूकर
पूछते हो ,,कयामत आने का सबब|| "
---- विजयलक्ष्मी

" मेरी वंश फसल में कल भी गीता रामायण ही विरासत होगी"

"अब पढ़ा जायेगा दर्द इबारत बनाकर 
फिर फैले होंगे हाथ इबादत बताकर 
फिर संगीने उगलेगी आग मेरे वतन की छाती पर 
कोई कोहराम यूँही देखेंगे सभी आदत बनाकर 
मोहताज लगने लगी दुनिया लहू की लहरों की 
रहेंगी यूँही रोएगे जबतक दहशतगर्दी को शाहदत बताकर
मर जाएगी इंसानियत सुबक कर देखा किये तमाशा
हथियार उठा खात्मे की गर नहीं इजाजत होगी
कभी मेरे हिन्दुस्तान की धरती लहू रंगती देख दुखी नहीं होते तुम
सोचकर देखना वही सूरतेहाल लिए सीरत की जलालत होगी
कुछ मासूम हुए शहीद तुम्हारी करनी पर ए जालिम
न सम्भल, जिन्दगी पनाह मांगेगी चमन में तेरे वो कौन हिमाकत होगी
जज्ब जज्बात इंसानियत के होते तो कुछ और बात रही होती
मेरी वंश फसल में कल भी गीता रामायण ही विरासत होगी"
---- विजयलक्ष्मी

Thursday 11 December 2014

? मैं तुम्हे तुमसे ही मांग लू "

इस तरह अपनालो ,,
न जुदा रहूँ कभी ,
मुझे इस तरह डूबा लो 
न सूख पाऊ कभी 
स्नेहरस इतना बरसा दो 
सहरा न बन पाऊ कभी
शूल बनू या पुष्प
बस महका करू हर कहीं
जिन्दगी की साँझ भी सहर सी लगे जो
जुदाई का कोई लम्हा तो टूट जाऊ तभी
ह्रदय की थाप संगीत बन गूंजती हो सदा
मिलने ऐसे प्रेम तरसता मिले खुदा
देह का नेह न हो नेह नेह का हो रहे
दूर हम कहाँ ...साथ इसतरह रहे
हम एक हो दो देह जैसे ..तटनी तट मिले
रात अमावस या पुरनम ,,
चाँद लाजमी खिले
मुझे दरिया सा बहाकर ..कुछ कमल से खिले हो
पंखुरियां जैसे भाव मन में खिले हो
न रंज हो कोई ..
चाहे तकदीर सो रही हो
अपने साथ प्रेम की भोर हो रही हो
गम के नजारे बंद हो दर्द भी पुष्प सा खिले
रक्त में हो आन शान ...मान भी मिले
तुम खुदा ...कह दिया
तुम बुततराश हो ,,
तराश दो मुझे इस तरह की तू ही साथ हो
क्या माँगना किसी और से ...तुमसे ही मांग लू
छीन लो मुझे मुझ से ही ..मैं तुमसे तुम्हे ही मांग लू
मैं तुम्हे तुमसे ही मांग लू "
--- विजयलक्ष्मी

" मुझे ईश्वरत्व नहीं इंसानियत देना "

जीवन का प्रवाह 
न सन्यास न उच्छ्लन्खता 
न सियासतदारी है 
न रियासतदारी है 
न त्याग की गाथा ही उतारती है उस छोर 
न स्वार्थ की कामना 
न इश्वर से होने वाला सामना
न इश्वर तुल्य होने की इच्छा 
न कृष्ण न शिव होने की उत्कंठा 
न पर्वत सी पीर न समन्दर के तीर 
न दर्द सुमेरु बनने की 
न उत्कंठा आकंठ भरने की 
क्या करना महान बनू मैं बहुत 
न गणना पुष्पित डालो की 
न चिंता सांसारिक भालो की 
न उद्वेलित मन विरानो सा 
न चाहा बागों सा खिलना 
विरानो के काँटों में पुष्प बना 
घनी धुप में वृक्ष घना 
सहरा में बदली सा होकर बरस बरस बरसा दे मना 
जब रात अँधेरी चंदा सा चमकू 
चमक चांदनी रौशनी भर दू 
मुस्कान बना सूखे होठो की 
उलझे लट जख्मी आहटो की 
बन नदिया सा बहना सिखला दो 
मुझको थोडा पत्थर सा बना दो 
न राह अधूरी कुछ जीवन की मारामारी 
पर्वत पर बर्फ सा थोडा संघर्ष सा 
करता विमर्श सा 
नफरत को ताले में बंद रखना 
प्रेम की धारा को नदिया सा हौसला देना 
वृक्ष की खोखर में पंछी का घोसला बनेगा 
तिनका चिड़िया दाना ..
जाल पंख जीवन का खेला 
जिसको लेकर भी मन चले अकेला 
बन सन्यासी त्याग करू जमघट का 
लेकिन इच्छा हो वासी जैसे मरघट का 
कभी मिलना हो गर प्रभु से अपने 
लालसा मुझसे ज्यादा हो 
हर बार साथ का वादा हो 
जब बिछुडू नमी आँखों में 
इंतजार बातो में 
रास्ता कटे रातो में 
दिन याद में जिन्दगी के साथ में
मयूर से नाचते हो मन के जंगल में 
गुरबत हो या सत्ता न हैवानियत देना
मुझे ईश्वरत्व नहीं इंसानियत देना 
जीवन का प्रवाह 
न सन्यास न उच्छ्लन्खता 
न सियासतदारी है 
न रियासतदारी है 
न त्याग की गाथा ही उतारती है उस छोर 
क्षितिज के उस और मिलना 
जहां रिश्ते भी फरिश्ते से होकर आँखों में तिर जाते है --- विजयलक्ष्मी

Monday 8 December 2014

" चुभन थी मीठी सी "

न 
मौन रहा मेरा 
न 
शब्द हुए मेरे
दर्द 
बिखरा सा  
किसी डाली पर जीवन-वृक्ष की
किसी डाली  
खुशबू खुशी की 
उडती सी 
मिलीं 
कहीं
 सिमटी हैं यादेँ 
कहीं 
अहसास बिखरे से 
कभी 
चोट फूलो से 
जख्म
 खारो के भले थे 
महकते तो थे 
चुभन 
थी मीठी सी 
तन्हा सा मौसम है 
तन्हाई में ,,
संवरे ....!! 
तो ..
क्यूँ संवरे ?"---- विजयलक्ष्मी

.जल्दी वर ढूंढो इसका ब्याह कराओ

बेटी ने घर में कदम रखा ..लगा 
जैसे.. बहार आ गयी आंगन में 
जैसे ..कलियाँ चटकी हो अभी अभी 
जैसे ..नव किसलय नव प्रभात का आगमन हुआ हो 
जैसे .. मोर नाच उठे हो जंगल में 
जैसे ..फूलो पर तितलियाँ थिरक उठी हो
जैसे ..भंवरे स्वागत राग गुजार उठे हो
जैसे ..बांस की पोरी को बांसुरी बना सरगम नाच उठी हो
जैसे ..आम के वृक्षों पर बोर ने मिठास हवा में बिखेरी हो
जैसे ..मन का मोर जंगल में मंगल कर उल्लासित हो
जैसे ..चंद्रमा मेरी गोदी में गगन से उतर आया हो
जैसे दग्ध धरा को पहली बरसात से मिली राहत तपती गर्मी से
जैसे ..कुंकुनाती धुप भोर की सर्दी के मौसम में
जैसे ..दीप जला हो पूजा का तुलसी के बिरवे पर
जैसे ..अभी परियां उतरी हो आंगन में मेरे
उल्लास चेहरे पर मन में रागिनी सी
माँ की जिन्दगी ..जीवन की संगिनी सी
इत्तेफाक से पीछे से एक पड़ोसन भी चली आई कुछ लम्हों के बाद
बोली ..बेटी सयानी हो गयी क्यूँ नहीं उठाती इसकी डोली
छन छन नाचता मन मयूर सहरा सा हो गया पलभर में
मेरी नाजुक सी सलोनी कैसे कब हुई इतनी बड़ी
मेरी आँखों ने क्यूँ नहीं देखा ..
मन घबराया ...नजरो ने तौला ...होठो ने बोला ..इतनी जल्दी ?
बोली पड़ोसन ..दुनिया खराब है .. जबतक दूर थी ..तुम भी मजबूर थी
समझो ..सयानी होती बेटी दुनिया की आँखों में चुभती है
हर आने जाने वाली की निगाहों में खुटती है
उम्र कम भी नहीं ...
बेटी नादान और कमसिन भी सही है
नादानी में न आओ ...जल्दी वर ढूंढो इसका ब्याह कराओ
अपनी नजरो से नहीं दुनिया की नजर का चश्मा पहनो देखो गर देख पाओ
जमाने की हवा खराब है
दुसरे पड़ोसी के बेटे का खाना खराब है
तीसरे वाले घर की बेटी के पीछे लफंगे पड़े हैं
जानती भी हो नुक्कड़ की पान वाली दूकान पर लडके क्यूँ खड़े हैं
मेरी जान धक करके रह गयी ..जितनी ख़ुशी थी सब काफूर हुई
मैं भी बेटी के ब्याह की फ़िक्र में चूर हुई
कोई लड़का नजर में हो बताना ...
ठीक कमाता हो थोडा सयाना हो
दहेज की हिम्मत नहीं है
लडकी पढ़ी लिखी है ..गृह कार्य में दक्ष है ,,
सुंदर है सलोनी है .,,
वो बोली ...दूल्हा बिकता है यहाँ तो ...सीधा बोलो कौनसा खरीदोगी
.-- विजयलक्ष्मी