Monday 15 October 2012

अब चौराहे पे खड़े इस बाजार के ..

रूह को रोका ही कब था ,
देह गिरी पड़ी है द्वार पर ,
चौखटों का फासला दिखता है बाकी ,
तुमने दरों को ही बदला डाला अपने ,
हवा पानी बंद कर तुम भूख मुझमे बाकी कह गए ,
कितने ही अहसास तभी छोड़ मुझको धरा पे ढह गए ,
मर चुके से जीव हैं ,जल समाधि ली और तर्पण कर दिया ,
चरित्र भी अब कोई बचा बाकी नहीं ,
न खता कोई थी फिर भी युद्धरत ही रहे ,
तो करो अब ,उठाओ हथियार और मुझ शेष को भी मार जाओ .

अब चौराहे पे खड़े इस बाजार के ,
न राख दिखती है कहीं ,कुछ पुष्प हैं अंगार के ,
क्या जलेगा ,कुछ न बचेगा ..मौत भी नाराज है अब तरह ,
गर पुकारूँ साँस भेज देती है किसी उधारी की तरह .-- विजयलक्ष्मी

कैसे रखे सम्भालकर ...

सैलाब गर उठा जो अपने पूरे उफान पर ..
कहना न फिर नजर लग गयी तूफ़ान पर 

बह जायेगीं लहरें किनोरों को तोड़ कर 
कदमों तले जमी न मिलेगी उठान पर 

रहने दे थमा सागर को न देख क्या होगा 
जज्बा ए सुनामी न रख दे घर उजाड कर


अमीत जिंदगी मिटा जाती है लहरें गर
जन्म भी कम पडेगा कैसे रखेंगे सम्भाल कर .-विजयलक्ष्मी 

अंदाज दुनिया का ...

खामोशियाँ मैरी फसाना दुनिया का ..
क्या शातिराना अंदाज दुनिया का 

चकनाचूर करना अंदाज दुनियां का 
सपना मैरी आँखों न भाना दुनिया का 

कुछ भी करे न करे कोई यहाँ पर कोई 
किस्मत आजमाना यहाँ दुनिया का 


मुस्कुराहट भी मंजूर नहीं उसको मैरी
उसे भी छीन जाना दुनिया का

खतरा दर कदम कहाँ नहीं होता अमीत
सहरा सा समंदर हमें बनाना दुनिया का

मंजिल मैरी नज़रों के सामने रही पल पल
मगर मुझसे ले जाना दुनिया का

मौत को बुलाना चाह हैं अब हमने ..
सब छीनकर भी साथ न देना दुनिया का .-विजयलक्ष्मी 

जिन्दा है कहने को ...

.

बरसेंगीं ये आंखे उम्रभर यूँ हीं..
उसने तो न मिलने की कसम खायी है 

जख्म गहरे है कितने क्या बताएं हम 
रवायतों की जंजीरें पहनाई हैं 

चांदनी रात दिल पे असर करती नहीं 
सूरज की तपिश भी नहा के आई है 


जिन्दा हैं कहने को अमीत जिंदगी खोई है
वो दुनिया के लिए है मुझसे पराई हैं .-विजयलक्ष्मी 

सिर्फ तुम .

एक इच्छा 
तुझसे मिलने की ..
एक आरजू ..
तुझमे बसने की 
एक याद 
तेरे साथ गुजरने की 
एक लम्हा ..
तुझमे होने का 

एक अहसास
तुझमे जीने का
एक पल
सिर्फ तुझे पाने का ..
एक जिंदगी ..
तुझमे जीने की
और कुछ ..
सिर्फ तुम तुम और तुम .-विजयलक्ष्मी 

बे वादा साकी मय बन गए ...


मुझसे बेरंग हस्ती ढूंढ रहा है तो ढूंढ ले ..
कोई मुझसा मिल जाये ज़रा मुश्किल है 

उम्मीदों का मेला बिछड़ा ,टूटे सितारों सा 
हकीकत बनी लहुगर्द तमन्नाओं सा साहिल है 

बहारों का ख्याल भर नागवार गुजरता है अब 
रुसवा इस कदर कि दिल की उजड़ी महफिल है 


न जाम हिस्से है बेवादा साकी मय बन गए
आंसू ही आँसू है अमीत और तमन्ना ही मुश्किल है .-विजयलक्ष्मी 

कोई दुआ नहीं ...


खू का बहना और सुर्खी में आना जुदा नहीं ..
आइना दिखा गया सूरत मगर जुदा नहीं 

बुलंदियों की चाहत मुझे न हों सकी अमीत 
आता कर दिया फर्ज इज़हार ए दिल इल्तजा यही 

दरिया को बहना मुहब्बत की खातिर दर्द की 
बेनकाब चेहरे पे दर्द की शिकन ,क्यूँ दुआ नहीं 


मेरे मोहसिन ने माँगा ही इतना याद में तडप
तडपना याद कर इसके सिवा कोई दुआ नहीं ..-विजयलक्ष्मी 

Friday 12 October 2012

बरसात भाती है ,







बरस जितना भी बरसना बरसात भाती है ,

रिमझिम सी फुहार जब भीगती है धरा ...
मुस्कुराती है ,रंग बिरंगे पुष्प खिलाती है ,
महक उठती है नाचती और गाती है धरा .
खिलखिलाती है, कायनात ही रंग जाती है ,
सुनहरी याद के पंखो पे सैर कर आती है धरा .
----विजयलक्ष्मी

Thursday 11 October 2012

जहर मीठा देकर जिंदगी ...

खेलते रहे हर डगर वो ,हर रंग से हमे लुभाते रहे 
हम नादाँ न समझे हकीकत,गमों में भी मुस्कुराते रहे .
खेल बना कर रख दिया मेरे हर एक जज्बात का ,
देकर खिलौना इन्तजार वक्त बस आजमाते ही रहे .
न सोचा क्या होगा हकीकत का रंग खुलेगा ,
जहर मीठा देकर जिंदगी हमारी,हमसे ही चुराते रहे.
आज कहकर हर सरोकार ए हादसा चले गए ,
आजमाइश ए रंग हों गर बाकी बता ,हम भी आजमाते रहें . - विजयलक्ष्मी

बस एक ही नाम लिखा था ...

क्या क्या छोड़ दूँ ए वक्त तेरे साथ के बिना ,
याद ,अहसास ,सफर या वो ठिकाना जिस पर तेरा नाम लिखा था .
कदमों को क्या कहूँ उक जाऊं बेसबब ,
या डूब जाऊं नदिया नाव सी जिस मझधार एक पैगाम लिखा था .
कत्ल होती सहर तारों के विदा क्यूँ हों ,
दिन की मौत के बाद इन्तजार ए सहर है जिसपर नाम लिखा था .
कदम चल दिए रोकने के बाद भी यूँ ,
उस एक छोर पर जैसे सूरज ने गगन पर कभी वो नाम लिखा था .
अब छल रहा क्यूँ वक्त मुझको बता ,
वो पैमाइश ए तहरीर बनी वसीयत पे तो बस एक ही नाम लिखा था .- विजयलक्ष्मी

सब कबूल उसे छोड़ कर मुझे ..

न रख तमन्ना अब कोई मुझसे ,खुद से सरोकार खत्म हों गया ,
ए जिंदगी !जा चली जा अब तो ..राह अपनी छोडकर मुझे .

टूटेंगे सही तारे मगर गिरेंगे नहीं उन्हें आदत हों चुकी टूटने की ,
चाँद ने इनकार किया चमकने से ,चल दिया छोड़ कर मुझे .

आज सियासत ने रंग दिखाने की कोशिश की थी थोड़ी सी यहाँ ,
रियासत पे लिखे नाम से सब वाकिफ थे एक छोड़ कर मुझे .

मेरी दोस्ती मंजूर न थी उसे सलाम कबूल हुआ बज्म में उसकी ,

जाने किस खौफ से वाबस्ता है ,सब कबूल उसे छोड़ कर मुझे .

चैन से चैन की खबर पूछेंगे, शाम ए ख्याल ने कहा यूँ कुछ ही ,
चटक न जाये तस्वीर सम्भाल जरा,सब है उसमे छोड़ कर मुझे .-- विजयलक्ष्मी

Tuesday 9 October 2012

तो क्या होता ...



चलो हमने किया माफ़ मगर अपने दिल से पूछो,
गुस्ताखियाँ यही गर हमने की होती तो क्या होता.

सोचो मुहब्बत है कितनी हम खुद को भूल गए ,
इस हाल हम गर तुमको भूले होते तो क्या होता .

खुद  को याद रखने का वक्त न रहा क्या बताए,
अजब सा वक्त है तुम भी होते संग, तो क्या होता.

दर्द ए दिल औ दर्द ए दुआ भी दिखने लगा असर,
यादें है तुम हों हम है कोई न होता तो क्या होता ,

सफर तन्हा कैसे कहे अब  तन्हा भी नहीं हम,
हाल ए दिल हमारा, तुम्हारा हुआ होता तो क्या होता.-- विजयलक्ष्मी  

न आवाज दी कभी तुमने ...

आंसूओ का हिसाब तो अभी माँगा ही नहीं तुमसे ,
और तुमने मुकरने की ठान ली ,खफा होने के डर से .

न बहा आँसू इसकदर , बरसात भी खौफ खाने लगे ,
कर लिया बंद पलकों में मुझे , मेरे बिखरने के डर से.

गर हवा मैं बन जाऊँ और उडती फिरूं जहाँ में सारे ,
न रोक लेना तुम सांस अपनी ,मेरे खो जाने के डर से.

खौफ तारी रहा क्यूँकर ,क्यूँ मिटाते रहे नाम खुदका ,

न आवाज दी कभी तुमने , मेरे बिफर जाने के डर से.

ए जिंदगी बरस अहसास भर के सावन से खुद में ,
पहाड़ी जल का सोता सा , ठहरा है बह जाने के डर से.-- विजयलक्ष्मी

Friday 5 October 2012

सातवाँ सिलेंडर ...




कोटा ....कोटा ..
अब कहाँ जाये ,
रोटी पर पाबंदी हों गयी ..
जेब सबकी मंदी हों गयी ..
नियत सरकार की कितनी गंदी हों गयी ..
विरोधियों की तरफ से...
 एक दिन की बंदी हों गयी ..

क्या ये सब समाधान की खातिर ही लामबंदी हों गयी .
सरकारी नीतियों से रसोई की ...भी हदबंदी हों गयी .- विजयलक्ष्मी 

एक अहसास ..

मुहब्बत में तो पत्थर हों जाते है लोग ...
हंसना रोना क्या खुद को भूल जाते है लोग .-- विजयलक्ष्मी


बहते हैं आंसूं पत्थरों में आजकल ,
देखने को उन्हें भी नजर चाहिए .-- विजयलक्ष्मी


भूलता नहीं किसी को अंधेरों में भी दरकार ए यार हों,
देर से ही सही मगर अहसास पहुंचते जरूर है गर प्यार हों .-- विजयलक्ष्मी


क्या कम था कि वो चले आये ..कुछ सकूं तो मिला 
न आते तो सोच आँखों को क्या दिल भी सकूं न पाता .-- विजयलक्ष्मी


वक्त ए ख्याल जन्नत क्यूँ सोचता है दिल ,
गर वो नहीं यहाँ तो दोजख हुयी महफ़िल ..-- विजयलक्ष्मी


कोई भी एक लम्हा जो जुदा किसी तरह ,
जन्नत का क्या करेंगे ,लगे है दोजख की तरह .-- विजयलक्ष्मी

निस्स्वार्थ सूरज रोशन हों रहा है ..




























शर्तों के पायदानों पैर रख चढने की चाह ,
बिना शर्त कदम भी बढाकर देख जरा ,
माना खौफ रहता है गिरने का जमीं पर ,
मगर उससे इतर कोई गिरा भी नहीं सकता ,
भरोसा खुद का और खुद से ही खो जाये ,
राह मंजिलों की फिर क्यूँ न खो जाये ..

खाद पानी बरसात के अलग भी कुछ चाहिए ..
खेत में खड़ी फसल को खरपतवार खाती है बिन किसान के
नेता है हेराफेरी करेगा जरूर ..कोई नहीं उस जैसा ...नेता वही तो हों
न्याय के लिए रास्ता भी सीधा नाप ..
यूँ तो न्याय भी बिक चुका बाजार में
गोदाम का रास्ता मुश्किल है मिल सके...
खरी दूकान पर मिलता टका सा जवाब ,
पवित्रता मिली न गर क्यूँ राह माप ले ..
भूख कितनी है बाकी थाह नाप ले ...
निस्स्वार्थ सूरज रोशन हों रहा है
जल रहा गगन में खुद भी ,धरती को जीवन दे रहा..
पहने हरित बाना सज रही धरा ..-- विजयलक्ष्मी

Thursday 4 October 2012

दीवानगी ए अफसाना गुनहगारभी हम है ...

कुछ मुस्कुराती जिंदगी मुर्दा होती है इसतरह ,
फूल खिलते है किसी ताजमहल पर जिसतरह .
मौत आकर फरमान सुना नहीं सकती जिन्हें ,
बादे सबा गली उनकी नहीं गुजरती उस तरह .
बख्त ए वफा बेवफा सी देखती है समन्दर को ,
प्यासी प्यास की तलब बुझेगी अब किस तरह .
दीवानगी ए अफसाना गुनहगार भी हम हैं यहाँ ,
वादा किया कब, निभाया था उसने जिस तरह .
ए जिंदगी मुस्कुरा कि तसल्ली तो रहे सांसे हैं , 
जेठ की दोपहरी दिखती है ठंडी छाँव जिस तरह .-- विजयलक्ष्मी

Wednesday 3 October 2012

चुप बिखरते रहे उसपे भी हंगामा बरपा रहे हों ...

नयन में ख्वाब मेरे खोए से दिखे ,
ललकार दूँ तो झंकार सी उठे ,..
जाने कौनसा समन्दर जो प्यासा सा बैठा है ,
रेत की तहरीर सी उडकर चुभती है क्यूँ भला ..
शिलापट्ट पर लिखे को भी गुमनाम तुमने कहा ,
लड़ते कोई गैर होता,,, तो सीने में चाकू उतार देते ,
गिरते हों शबनमी से अहसास बता कैसे भौक दे छुरी ...
शाहदत लिखी हों जिसके नाम पर आइना सी नजर में ..
चमक उठे नयन नम होकर भी पलको के घूंघट में ,
जख्म मिले, मिटाने की 

तमन्ना खत्म हों ...
दर्द का अहसास इतना जब दर्द को भी दर्द न लगे ..
बस मुस्कुराकर छोडना अच्छा ....
परिधि पर खड़े हों अपलक निहारना ,
तुम रह कर भी नहीं रहते मगर बरसते जरूर हों ..
झुरमुट की ओट से अक्सर छिपकर देखते हों...
नयन भर भर नीर बुझाते थे आग को ,
आ जाते हों कुरदने चिंगारी दबी जिसमे ,उसी राख को ,
क्रांति का शौक हुआ चरागों के संग ,
माचिस का जलाना और जलना संग संग ...
टूटो तुम..रजा नहीं हमारी ,वर्ना तोडकर बहा दिया होता ,
रश्क हुआ क्यूँ खुद के नसीब से ,
ए जिंदगी खुशनसीबी समझ कि सलामती रहे ...
वाह दौर कैसा ..चमक से खुद की आंखे भी बंद कर ली ...
तमाशा देखते हों ? तमाशाई भी बना दिया
वाह रे !मरघट पे पहुंच और चिता भी जला ....
सत्य को मार डाला, दलाली भी दी राह ए मंजिल की जानिब ...
चुप बिखरते रहे उसपे भी हंगामा बरपा रहे हों ...
सभ्यता को ही सभ्यताई तहजीब सिखा रहे हों ..वाह री दुनिया
धूप में सुखा मन,..खौफ में मत जी ..-- विजयलक्ष्मी

वसीयत नामा


बहुत तहजीब औ तरीम के साथ मुकम्मल से शब्दों में ,
मेरे खुद के वसीयतनामे पर हस्ताक्षर लेकर मुझे ही जीते जी , 
शुक्रिया कह गया वो ...जिसके नाम तहरीर लिखी थी मेरी .
- विजयलक्ष्मी

गुलाब का बगीचा सजायेंगे .



दफना दिया आज खुद को हमने फिर एक बार ,
ऊपर से कब्र के गुल ओ गुलाब का बगीचा सजायेंगे .- विजयलक्ष्मी

दिल आइना सा है ..

मुश्किलें यही है कि दिल आइना सा है दिमाग सोचता बहुत ,
अन्धरें में अक्स और रोशन हुए विचार तूफ़ान बहुत लाते है ..-- विजयलक्ष्मी


जब कुछ जीवन के फलसफे अनछुए से रह जाते है...
आँखों की सरहद पर शबनमी मोती बिखर जाते है,
घिरती है जब जमीं सहरा के समन्दर से दूर तलक ,
कोई अंकुरण फिर पनप जाये ,मगर आसान भी नहीं .
जिंदगी थमती नहीं मगर ,उजड कर भी बसती है अगर ...
अपने सूरज के साथ जिंदगी नृत्य करती जरूर है .-- विजयलक्ष्मी



यहाँ अब कोई नहीं आयेगा ....


अंधेरों के खौफ से चलो घर में बैठ जाये ...
है कौन सी जगह बता ,जहाँ अँधेरे न आने पाए .-- विजयलक्ष्मी 


आजमाइशें न हों जिंदगी वीरान ही मिलेगी ,
किसी भी राह को कभी मंजिल नहीं मिलेगी .-विजयलक्ष्मी



कुछ शक्ल ओ शरारते कयामत लाती तो है मगर ,
रखना ख्याल वो राह में छोड़ कर मुकर भी जाती है अक्सर .-- विजयलक्ष्मी



मुश्किलें यही है कि दिल आइना सा है दिमाग सोचता बहुत ,
अन्धरें में अक्स और रोशन हुए विचार तूफ़ान बहुत लाते है ..-- विजयलक्ष्मी



यहाँ अब कोई नहीं आयेगा ..बस दिल ही दिल को समझायेगा ,
कोई भी न जान पायेगा ..दिल बंजारा भी शायद सम्भल जायेगा .-- विजयलक्ष्मी 

Tuesday 2 October 2012

शाहदत लिख दे साथ में कोरो पर अपनी ....























"पलकों के सपने काश झूठे से होते तो अच्छा था ,
हम उन सपनों से अछूते से होते तो अच्छा था ,
फ़िक्र जाने क्यूँ रहती है आज भी उनकी खुद में ,
वो जीते मुझसे जुदा ही तो शायद कुछ अच्छा था ,
बह गयी मैं भी पाटों के बीच किश्ती सा वजूद ,
मेरे नयनों में बसता है जाने क्यूँ अब उसका रूप ,
लगता है हाथ बढे तो छू लुंगी आसमां को भी ,
मंजर से कैसे करूं जुदा अब नम हुई आँखों को,
हाँ कहने में घबराता है न कहने में शोर मचाता है, 

हौले हौले मन मेरा कैसे सपनों में खो जाता है ,
सूरज का फेरा कर लेता है डेरे में संग जग लेता है,
खुद को रंग में रंग लेता है ,क्यूँ तन्हा सा रहता है,
मधुर मधुर सा ख्वाब सपनीला मदिर मदिर सा रंग ,
जाने कैसे कैसे रंग देखेगा दिखलाएगा कैसे ढंग ,
झूमती धरा तो हया लरजती है आँखों से क्यूँ ,
किस रूप को देखूं बतला महसूस करूं क्यूँ ,
शबनम पलकों पर लबों पर तबस्सुम पसरती है ,
ये दोनों नैना अब पलकों में दुनिया पसरती है .
वसीयत में यादों के लम्हे होंगे और बीती सी बाते ,
अलसाये से दिन और जागती सी होगी कुछ रातें ,
मेरे शब्दों में मैं खुद को काश पा जाती गर ...
पा जाती ये जिंदगी भी यूँ ही साथ में बसर ,
हम फिर भी वहीं खड़े पते है उसी राह पर ...
जिस राह छुटी थी साथ से जिस लम्हा अपनी डगर..
अब रुसवाई है पलकों में शबनम सी उतरती है सहर में ,
शहादत लिख दे साथ में कोरो पर अपनी...और ..
सिहर उठती उस बूँद में तो कांपती सी रही है मर ."-- विजयलक्ष्मी

Monday 1 October 2012

तेरे लबों पे मुस्कुराहट हों ....





सियासत का रास्ता काश ईमान से गुजरता ,
सर को यूँ झुकाने की शायद आदत न होगी .
समझते जो बेवफा हमको,समझने का शुक्रिया, 
अच्छा है रास्तों के साथ की दरकार न होगी .
तोड़ डाले वो आइना भी लिखा जिसपे नाम है ,
दर्द ए इनायत फरमाने की शिकायत न होगी .
नगमा ए दर्द छोड़ भौरों संग कहदो गुनगुना ले.
चमन को भी वीरानगी की कभी आदत न होगी. 
शबनम को पलकों पर ढलक जाने दो हमारी ,
तेरे लबों पे मुस्कुराहट हों , कोई वजह तो होगी.

--विजयलक्ष्मी .

काश !!हम बड़े न होते ...





















बचपन के रंग,

सब सखा सखियों के संग ,
जीवन के सुंदर सलोने खेल
आपस का मीठा मेल ,वो रूठना मानना ,
कभी कुट्टी कभी अब्बा ,पतंग का उड़ाना ,
मिलकर साथ पढ़ना ,दिस्तों के बीच आना ,

दीवाने से बादलों से रिमझिम बरसता पानी,
इठला कर भीगना उसमे जैसे कोई दीवानी ,
यादों में आज भी ताजगी उन्ही पलों की,
अनजान थे दुनियादारी ,बहुत सुहानी जिंदगानी थी ,
खुशियों के मौजूं थे , नादानियों में भी रवानी थी ,
इंद्र धनुषी रंग बिखरे थे चहुँ ओर ,
कागज की किश्ती ,कंचों की ठौर ,
थोड़े से रंगीन कागज ,कुछ पुराने सिक्के ,रंगीन से डाक टिकट ,
पेन्सिल रंग कागज ,गेंद ,कुछ खिलते बगिया के फूल ...
हमारी रियाया हुआ करते थे ,
उस छोटी सी खूबसूरत दुनिया के हम ही शहंशाह,
हम खुद ही मुलाजिम हुआ करते थे,
काश !!हम बड़े न होते ...
उसी खूबसूरत दुनिया के आज भी शहंशाह होते .-- विजयलक्ष्मी

सूरज ली बज्म में सजदा हों कबूल अपना भी ..


जिन्दा रख मुझको अहसास में बहुत है ,
मशाल गर जलानी है चिंगारी ही बहुत है,
क्यूँ तलाशते हों बवंडरों को दुनिया में ...
खुद के भीतर भी कम नहीं तूफ़ान बहुत है.
मुश्किल में है इंसान इंसानियत रो रही ,
ढूंढोगे गर तुम ,मुझमे भी हैवान बहुत है . 
आम आदमी ,त्रस्त हों रहा महंगाई से, 
मौका मिले बता दे ,वो खास भी बहुत है .
ख़ामोशी ,इस हद तलक कि सवाल उठ रहे,
जज्बात जज्ब करने का जज्बा भी बहुत है .
नाप ले कितना नाप सकता है कोई देखेंगे ,
धरती की जिंदगी को सूरज का साथ बहुत है .
दर ओ दरख्तों पर सिद्धन्तों के किवाड़ हैं ,
झाँकने की कोशिश में गली से गुजरते बहुत है.
सितारों की तमन्ना क्यूँ, चाँदनी गुलजार है,
रोशन शमा हों गर जलते परवाने बेमौत है.
सूरज की बज्म में सजदा हों कबूल अपना भी,
पत्थर के सामने भी सर झुकाने वाले बहुत हैं .
 विजयलक्ष्मी

ख्वाब में भी ख्वाब का ही ख्वाब देखा करते है अक्सर,.


दीदार ए चाँद कि ख्वाहिश सभी रखते है अपने दिल में ,
चाँद से भी पूछिए क्या हसरत छिपाए है अपने दिल में .
ख्वाब में भी ख्वाब का ही ख्वाब देखा करते है अक्सर,
हकीकत,दर्द औ सितम से कब करती गुरेज महफ़िल में .

-- विजयलक्ष्मी

कदम बढा लेते हैं ...



आओ चलो कुछ देर ही सही मुस्कुरा लेते है .
भूलकर गम थोडा सा खुद को बहला लेते है .
झूम लेते है हवाओं के संग तरानों में उसके .
नदियाँ की लहरों के संग जरा इठला लेते हैं .
बरस लेते है बदरा संग अफसानों में बूंदों के 
चलो आज हम भी भौरों संग गुनगुना लेते है. 
गुलों सा खिल के महका देते है बगिया को , 
चलो कुछ देर चमन में पंछी सा चहक लेते है. 
जीवन की डगर मुश्किल होती ही है तो क्या ,
ठहरेंगे कहाँ मालूम नहीं, कदम बढा लेते है.
 विजयलक्ष्मी

कोई वजह तो होगी ...

"सियासत का रास्ता काश ! ईमान से गुजरता ,
सर को यूँ झुकाने की शायद आदत न होगी .
समझते जो बेवफा हमको,समझने का शुक्रिया, 
अच्छा है रास्तों के साथ की दरकार न होगी .
तोड़ डालो  वो आइना भी लिखा जिसपे नाम है ,
दर्द ए इनायत फरमाने की शिकायत न होगी .
नगमा ए दर्द छोड़ भौरों संग कहदो गुनगुना ले ,
चमन को भी वीरानगी की कभी आदत न होगी . 
शबनम को पलकों पर ढलक जाने दो हमारी ,
तेरे लबों को मुस्कुराने की, कोई वजह तो होगी."- विजयलक्ष्मी