Saturday 26 April 2014

" आओ,उसे बेदखल करे "

बेच रहा है जो देश को ,
आओ,उसे बेदखल करे

सत्य की राह पर चल ,
बता क्यूँ पैदा खलल करे

लो परीक्षा की घड़ी आई है ,
न हो ,अब कोई नकल करे

तोड़ दो ख़ामोशी चीख से ,
मुस्कुराहट न विकल करे

शब्द शब्द लिख ह्रदय से ,
मिल कलम को सफल करे

तस्वीर अहसास से बना ,
जो रंग भरे सब असल भरे.- विजयलक्ष्मी

" पत्थर पे चोट की तुमने जख्म इसबार ठहर गया साहिब "



"बोलो ,अब ख्वाब कहाँ समाये ,जब नींद ही खो जाये ,
हमारी पलकों पर तो बस इन्तजार ठहर गया साहिब !!

मुखर होकर झूठ खड़ा दिखता है,हो काँधे सवार सच के,
सच की आँख में तो बस इन्तजार ठहर गया साहिब !! 

खिलते गुलों पर निगेहबानी की चाहत लिए बैठा है जो ,
नासूर, दर्द औ चुभन दिल में बेशुमार ठहर गया साहिब!! 

गाथा इश्क की सुनती नहीं जो आत्मा भी झकझोर उठे ,
अब देह पर नजर बन दिल का इकरार ठहर गया साहिब !!

रेतीले महल बनेंगे तो ढह जायेंगे हर लहर के साथ साथ ,
पत्थर पे चोट की तुमने जख्म इसबार ठहर गया साहिब !!

रमता जोगी हूँ तेरी मुकद्दस चौखट का कदम दर कदम ,
पथरीली सी राह मगर.. ये गुनहगार गुजर गया साहिब !!-- विजयलक्ष्मी

"लोकतंत्र का गूंजता हुआ मन्त्र कहीं खो गया "

इस जमी पर रहते हैं 
हिन्दू मुस्लिम इसाई सिक्ख बौद्ध 
इस जमीं पर और भी है 
ब्राह्मण राजपूत बढई भंगी 
स्त्री पुरुष हैं भी या नहीं लेकिन 
यहाँ किन्नर भी रहते है 
झुग्गी झोपडी ...कच्चे पक्के मकान है ..
महल हैं दुमहले हैं 
मुर्दा हुयी देह लथेड़ते बुत मिलते हैं 
जो लड़ते है ...स्वार्थ के लिए 
बांटते हैं ..खुदा भगवान गोड को
उनके घरों को
यहाँ भ्रष्ट ..आचार के लोग रहते हैं
क़त्ल ख्वाबों के हत्यारे रहते हैं
मरोड़ते तोड़ते हैं उनकी बताई राह को अपने लाभ के लिए
अपने वंश के अमृत्व को
हर जगह ढूँढा ..नहीं मिला ..
एक भी इंसान ..
जागता जमीर
जिन्दा सी जिन्दगी
घर का निशाँ
उजला सा दिल
प्रेम ..स्नेह ..
मिली देह ...बिखरता नेह
टूटी-फूटी आत्मा ...तडपती जलती घुट्ती हुयी अन्तरात्मा
सूरज रोज निकलता है यूँ तो कहने को
नहीं मिलती मगर ...मुकम्मल सुबह
मिलती है धर्म की कलह
इंसानियत रोती मिल जाएगी तुम्हारे ही शहर के किसी चौराहे पर
किसी दूकान पर ,,,चमकते हुए मकान पर
मेरा देश ..मेरा हिंदुस्तान खो गया इनके बीच कहीं
सोन चिरैया सा बदन था खो गया
जन्नत कहूँ या स्वर्ग को भी मात देता मेरा भारत कहीं गुम हो गया
चुनावी अखाड़े के अहंकार में लहुलुहान है बहुत
लोकतंत्र का गूंजता हुआ मन्त्र कहीं खो गया
जन गण मन देश का क्यूँ कैसे कब सो गया .-- विजयलक्ष्मी

Friday 25 April 2014

"सीप तुम ,समझलो अब और जरूरत ही नहीं "

हम जिक्र भी करे तो शोर कत्ल का ,
यूँ कत्ल हुए पर्दादारी की जरूरत भी नहीं .

डूबे हैं समन्दर की गहराई में इस कदर
उबरना चाहूँ अब इसकी जरूरत ही नहीं .

क्या करेगे पतवार भलाडूबने के बाद हम 
लहर हुए सवार तो कश्ती की जरूरत ही नहीं 

स्वाति बूँद बन गिरू मैं उसी समन्दर में 
सीप तुम ,समझलो अब और जरूरत ही नहीं

दरिया कहूं या स्रोत तुम्हे अमृतजल का
अनवरत सी ये प्यास बुझाऊँ जरूरत ही नहीं - विजयलक्ष्मी 

" मुस्कुराहट की आहट पर कदमबोशी में पगी सी जिन्दगी"

वो मेरी थी जल गयी बस्तियां ,धुआं धुंआ सी जिन्दगी ,
उसकी तो दिल्लगी हुयी हमारी दिल की लगी सी बन्दगी .

लकीरें हाथ की पढनी नहीं आई उसकी पैरहन बनी लकीरे 
वाबस्ता जिस गली से थे जर्रे जर्रे से ही बंधी सी जिन्दगी .

दर्द ए बयार उठती लगी थी आज चमन के फूल गुमशुदा 
कलियों, तितलियों को बसन्त बसन्ती ढकी सी जिन्दगी .

हरजाई कह दूं अहले वफा को कैसे बेमुरव्वत है जमाना 
दर औ दीवार भी बन्दगी से बा-दस्तूर रंगी सी जिन्दगी .

गम ए राह में गुमराह यादें समन्दर की लहरों सी तहरीर
मुस्कुराहट की आहट पर कदमबोशी में पगी सी जिन्दगी .-- विजयलक्ष्मी 

Wednesday 23 April 2014

इन्तजार क्यूँ राहों पर जल उठे जगमगाहट के लिए

सरहद पर सीमा-प्रहरी थे सरफरोश हम सीना तानकर ,

सत्ता के भूखो ने ही कटवाए सर हमारे गुलाम मानकर .-- विजयलक्ष्मी





वतन पर मिटने की चाह हम सिरफिरों को सरहद तक लायी थी 
सरकारी हुक्मरानो की जिद... काटनी थी गर्दन जिसकी उसी से कटाई थी-- विजयलक्ष्मी





भटकते हैं लोग सरल सी एक मुस्कुराहट के लिए ,
खिले चेहरा, नजरे भी टिकी है उसी आहट के लिए .

दीप बना खुद को तेल से पूरित हो बैठे है साँझ से 
इन्तजार क्यूँ राहों पर जल उठे जगमगाहट के लिए.- - विजयलक्ष्मी

Sunday 20 April 2014

"....भला कैसे !!"

कहो,हद ए जुनूं पर आके खाली लौट जाऊं ,भला कैसे |
वक्त ए सुकून को पाके खत उसके जलाऊ ,भला कैसे ||

बेरुखी उनकी रुलाती है और मैं रूठ जाऊ ,भला कैसे |
जो ख्वाब था हकीकत हुआ वो भूल जाऊ भला कैसे ||

इस दर्द ए दुनिया से रिश्ता ही तोड़ जाऊ ,भला कैसे |
बकाया ही कहाँ हूँ मैं औ तुम्हे भूल जाऊ ,भला कैसे ||

रंग ए वफा नहीं मालूम बेवफाई निभाऊ भला कैसे |
तुम बसे हो आदत की तरह, बदल पाऊ ,भला कैसे ||

रंग देखे हैं बहुत जमाने के यूँही भूल जाऊं,भला कैसे |
मंजिल दूर सफर लम्बा मैं घर लौट जाऊ ,भला कैसे|| -- विजयलक्ष्मी 

Friday 18 April 2014

" अजब कशमकश हुयी दिल को ,उड़े भी ठहरे हुए से "

इन्तजार मिला जिन्दा , हमे भी उन्हें भी ,आमद हो 
अजब सी प्यास बहती है,हुए इक दूजे में बरामद वो !!

खता तो हुयी थी मंजर अलग सा था अहसास का
मुझमे इजहार ए दुआ बसी , रहे यूँही सलामत वो !!

हया का घुंघट उतरता नहीं औ दिल बेजा परेशाँ है 
क्षितिज के उस छोर बैठे न जाने कब कयामत हो !!

कुछ शब्द लबों पर आकर ठहरे रहे ,पत्थर हुए से 
कुछ बैठे हैं इन्तजार ए दर ,थोड़ी सही इनायत हो!!

अजब कशमकश हुयी दिल को ,उड़े भी ठहरे हुए से
इक उम्र बीती ,इक बकाया है बस तेरी अदावत को !!

अजब मतवाली हिम्मत है बेघर भी हुए रुसवा भी
कदम ठहरे गर साँस गयी दर दर की हिमाकत को !!

बेआबरू करके निकाला धक्के देदेकर खुदा ने खुद
मोहरा शतरंजी हम,गुल रखे दुनियावी इनायत को !!

मौत आ जाती तो अच्छा था नामुराद रुसवा वो भी
पलपल मरना हंस हंसकर बेवफाई की अदावत को !!-- विजयलक्ष्मी 

" रो रो नैना सावन बन गये फिर भी न प्यास बुझे"

रिमझिम बरखा अंगना मेरे ,बदरा खूब सजे 
रज रज बरसे सावन सा मन संग हम भीगे 

न शोर मचा रे बदरा दिल मोरा काप उठे है
नयन पुलक बाढ़े मनमन्दिर गीत सज उठे 

ओ सावन तुम यूँ न बरसों मुस्काओ भर नैन
तुम संग भीगू कैसे सजन संग मन भीगे

ब्रह्मानन्द बने परमानन्द सांवरिया तेरी गली
गोकुल मथुरा मन मेरा बनया मुरूली सा बाज उठे

आओ सांवरिया दरस दिखाओ मन तरस गया
बैठ के अम्बर बदरा बनकर धरती सा भीगे

स्वर नहीं सजते साज टूट गये मनवीणा कमजोर हुयी
आओ प्रभु अब आ भी जाओ ...दरस न जाने दीखे

नयन भी बरसे प्रभु मन भी तरसे पुष्प बने है भाव
रो रो नैना सावन बन गये फिर भी न प्यास बुझे -- विजयलक्ष्मी 

" अब क्यूँ बैठा हैं तू , ...आँख में उजाले की आस लिए "




चल उठ अब प्यासे की प्यास का इंतजाम हो गया ,
मुहब्बत मिल गयी अजीज़ की तू बदनाम हो गया |

मापना था समन्दर तेरे अहसास का गहरा कितना 
उथला ही निकला तू भी ...गन्दला तालाब हो गया |

मैहर सूरज की हुयी तो .. इन्तजार करना सहर की 
अंधेरो से निकल मुंडेर हुयी सुनसान संसार सो गया|

अब क्यूँ बैठा हैं तू , ...आँख में उजाले की आस लिए 
घर पत्थर के हुए अब क्यूँ दिल से अहसास खो गया |

जिसके सजदे में ईमान गया तिरा.चातक हुआ मन
टिटहरी की चीख सुन उसका गुम आफ़ताब हो गया |
--- विजयलक्ष्मी 

" मालुम है ये नंगा सच भी जनता को .."

खाद्य सुरक्षा ,क्या खूब कही ,
बर्बाद करदो हर मेहनतकश को 
खेत बेचो भुमिमफियाओ को 
कंगाल करते रहो भूमिहारो को 
जमी में बीज की जरूरत क्या है बंजर हो जाने दो 
किसी अडानी किसी वाड्रा को बेच देना कमीशन तगड़ा मिलेगा
सापेक्ष और निरपेक्ष की बाँसरी बजाते रहो ...ऊंट किसी करवट तो बैठेगा
लेखक से कलम ..किसान से जमी ,गगन से फलक छींनते लोगो ..
याद रखना ..हर कतरा चीखेगा लहू का मेरे ..
जब रसूल महसूल वसूल करेगा ...हर कत्ल हुए जज्बात का
मेरी कटी गर्दन तुम्हारे सामने होगी ...सत्य की लाश लिए
खेत चीखेंगे ...आसमान पर आवाज होगी ..तब कान बंद कर लेना अपने
बीज रोते मिलेंगे बिखरे राह में शब्द शब्द से टूटे हुए
क्या गिद्ध ..क्या सिद्ध ..व्यर्थ कर रहे हैं गंगा जमुनी तहजीब स्वार्थ के अर्थ में
हर शातिर भारी है सियासत की शतरंज पर
देश के लिए कोई नहीं मरने को तैयार ...आमादा हैं मिटने को शतरंजी खेल पर
प्रेमचंद को मालूम था शायद ये भविष्य का सच ...आईने में बो गये थे .
हम मजदूर की देह और हथियार जंग लगाने की जुगत में लगे हुए लोगो ..
कितना उधारी डोगे ..फिर से ..गुलाम बनाने की तैयारी पूरी है तुम्हारी
तुम देश के राजा हो बुर्के की हकीकत जानते हो ..
देखना है ये बुरका कब खींचा जायेगा ...भीतर छिपा चेहरा कब सामने आएगा ..
और एक नया इल्जाम चस्पाया जायेगा ..
जब तक शहंशाह की नजरे इनायत हैं उतनी ही जिन्दगी ,,
फिर ...फिर वही खल्लास पुरानी तर्ज पर ,,
और खबर अखबार में छपेगी ..काली स्याही से पुती तस्वीर लिए ..
मालुम है ये नंगा सच भी जनता को ..
दुआ में क्या मांगूं अब ?..पर्दा या हकीकत की लम्बी उम्र !!.--- विजयलक्ष्मी

Tuesday 15 April 2014

एतबार रख अपने पास ........गहरता तूफ़ान है ये

"दीवानगी ये कैसी ,हम खुद से लापता हो चुके हैं 
कैसे रुकेगा तुफाँ ......जब दिल में ही सुराग है ये 

दम घुटने से नहीं मरेंगे ,न यूँ इन्तजार से खुदारा 
मिटता नहीं जो मरके भी ...देखो वहीं ही दाग है ये 

पाकीजगी रही सदा ,पूजा औ अकीदत ए तमन्ना 
जलता सूरज ...रूह के सीने में जलता अलाव है ये

याद की कश्ती है ,सवार बिन पतवार लहर लहर 
एतबार रख अपने पास ........गहरता तूफ़ान है ये

बुझेगा हर रोशन सितारे के एतमाद ए करम होकर
अँधेरी राहो में जलता .............. वही चिराग है ये "- विजयलक्ष्मी

"संजय बारु का बारूद ,पलीता लगा गये पारीख ,

"संजय बारु का बारूद ,पलीता लगा गये पारीख ,
चर्चा गर्म अखबारी हुई ,जनता लगाएगी तारीख़ .

बंद कली सा चटखने लगेगा मनमोहन का मौन
कौन शातिर कौन मासूम,जनता लगाएगी तारीख .

मरता नहीं कोई भूख से थी डॉक्टर की यही रिपोर्ट .
आंतें सूखी हैं लाश की ..लिख ,पड़ जायेगी तारीख़

नजर की कमजोरी से दिमागी जनाजे उठ चले थे 
सत्य खामोशी से मरा, दुनिया पा जाएगी तारीख .

सियासती राह भी झूठ संग खड़ी मिली दर कदम
मौत की बिसात पर ,,जिन्दगी पा जाएगी तारीख."-- विजयलक्ष्मी

सोचते है जब भी मंजिल पास है मालूम हुआ.. थी मारीचिका की क्यारी


हमे आग से न डराया कर ,इस आग से भूख मरती नहीं हमारी ,
रोटिया कम पडती है और नदिया सी अनवरत प्यास बढती हमारी 
सुरसा सी गरीबी मन में छाई ...देह ढकने के जतन सब कम पड़ गये 
बिन ब्याही माँ की बदनामी जैसी रहती है जज्बात ए हालत हमारी 
तुम नहीं रुकोगे ..कभी मुडकर भी नहीं देखोगे ...दूर का सफर ठहरा 
सोचते है जब भी मंजिल पास है मालूम हुआ.. थी मारीचिका की क्यारी .--- विजयलक्ष्मी

अम्बेडकर जयंती ..

संवैधानिक सुरक्षा ,भोजन का अधिकार ,राष्ट्रीय सुरक्षा कानून ..गरीबों ..किसानों ..मजदूरों के हित ..आरक्षण ..पिछड़े ,सूचित अनुसूचित वर्ग को सारे अधिकार सोनिया और राहुल की सरकार ने कानून बनाकर दिलवाए ...फिर ..ये बाबा भीमराव अम्बेडकर कौन थे ...इन्होने इस देश का कौन सा संविधान बनाया ...इसी कशमकश में उन्हें दिनभर श्रद्धांजली भी नहीं दे सके ...
हम गलत हैं या नहीं ...जो भी हो ..
सम्विधान के प्रणेता और पितामह ...बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर जी को सम्पूर्ण राष्ट्र की तरफ सदर नमन!! -- विजयलक्ष्मी

Thursday 10 April 2014

""देखो स्मगलिग़ पे सियासती वरदहस्त है ""

"यारों, चंद बातो से हर इंसान त्रस्त है ,
जनता है रिश्वत गलत है मगर भ्रष्ट है .

रोटी पूरी नहीं पड़ी होगी इमानदारी में 
रोजगार के बाद भी उसे मिलता कष्ट है

सभी को मालूम है दर्द बिछड़ने का भी
मगर मुडकर नहीं देखता और मस्त है .

कन्या कत्ल करता है औरत के पेट में

लालच ने दहेज-दानव किया जबर्दस्त है

कालाबाजारी गोरखधंधे फलेफूले हैं
 खूब
देखो स्मगलिग़ पे सियासती वरदहस्त है "--- विजयलक्ष्मी

Tuesday 8 April 2014

" जो मुहं से बोल दिया ...भगवान का हुक्म हो गया हमारे वास्ते "

आज की रोटी का इंतजाम तो हो गया जैसे तैसे 
कल जिन्दा रहे तो कोशिश जरूर करेंगे 
गर किसी दिन साँस लौट कर नहीं आई तो 
क्या आप हमारा माफीनामा कबूल करेंगे 
वैसे अर्जी लगाई है खुदाई दरबार में भी 
इक अहसान ये, कब कितना वसूल करेंगे
मेरे मोहसीन हाथ और जज्बात काट लिए गये मेरे 
ताज मुमताज का हुआ ..क्या मेरा सलाम कैसे कबूल करेंगे .
यूँभी हम गरीबों की औकात इतनी ही है 
चीखते भी ज्यादा है पिटते भी ज्यादा है 
मरते भी हैं पर जड़ से खत्म नहीं हुए
खेत में खड़ी खरपतवार देखी है न ..हम वोही हैं
ये जो कौम हैं न हमारी ..
साली मरती भी नहीं ..इन्हें न तो अटैक आता है
न रक्तचाप सताता ...
उलटे बढ़ा देता होगा आपसे जहीन लोगो का
निरे गिरे हुए दिमाग के लोग ...
औकात दो कोडी की नहीं ..बघारते है आसमान को छूने की तारे तोड़ने की
सच बात तो ये साहब ..चाँद को छूने की भी सोची तो मैला हो जायेगा
क्यूंकि हम गंदे लोग ..
क्या जाने ...ज्ञान की बाते ..क्या करे ..
स्कूल के आगे पीछे से गुजरे हैं बस
भीतर नहीं गये कभी ..
फिर पढ़ाई लिखाई कैसी
कला अक्षर भैंस बराबर ..
जो मुहं से बोल दिया ...भगवान का हुक्म हो गया हमारे वास्ते --विजयलक्ष्मी 

" सियासत की जरूरत से दुनिया बदलती है"

"भगदड़ 
शब्दों की ...
या भावनाओ की 
या अहसास की 
या उतरते चढ़ते हुए साँस की 
या बस मौत की आस की 
या जीवनभर के प्रयास की 
या टूटते हुए दर्द के साथ की 
या चीखते परिंदे की चीत्कार सी 
या खरीदते हुए खरीददार सी 
या फड पे लगे बाजार सी 
या दुल्हे पीछे चली बारात सी
या दुल्हन विदाई के बाद की
या इम्तेहान के बाद की
या खुशिया मिली जो आज की
या टूटते दिल की आवाज थी
या धडक उठी धडकन से नाद थी
या पन्द्रह अगस्त सी आजादी मिली
या गणतन्त्र से लगे संविधान की
या चुनाव के आगाज की
या जो कुछ उस अंजाम की
या नई दुनिया के दर यूँही खुले थे ..संगीत वाद्य सब बज उठे थे
या नये संगीत तुमको आदत नहीं अभी
या अदावत अभी पूरी हुयी ही नहीं
या कली कोई अब तक खिली ही नहीं
या और शातिर चील कोई मिली नहीं
या दोस्तों ने वजह ही छिपाली
या बताओ हकीकत न गयी तुमसे सम्भाली
या रिसने लगे है जख्म कुछ पुराने
या खो गये बरसाती शामियाने
या गुने नहीं गये तराने
या लहू पानी हो गया
या किसी की निगेबानी में खो गया
यूँभी सत्ता की सीनाजोरी चलती है
सियासत की जरूरत से दुनिया बदलती है"-- विजयलक्ष्मी

Sunday 6 April 2014

औरत की रूह बसती है सिंदूर की बस्ती में



सिंदूर ,
क्या सच में ..मात्र रंग ही हैं ,
क्या ये मन का रंग नहीं होता ..क्या उसका लहू से नाता नहीं होता ?
रंग का नाम देकर हर रिश्ता चीन के सामन सा बना दिया तुमने 
तुम्हारे लहू का सिंदूर जिस पर वारा तुमने ,
तब तो तुम उसी के हुए 
हम ही गलत थे न ..
ओह ..सिंदूर मांग में भरना था किसी और की तुमको 
क्या हमारी मार्फत ..तो भेज देते हैं उसे ही ..
सजाकर डोली में बिठा लाते हैं उसे ही 
उलाहना अब नहीं देंगे ..न तुम्हारी शहादत जाया ही होने देंगे
लगाओ तुम तिलक माथे करों श्रृंगार दुल्हे सा ..
चले जाओ ..जहां जिन्दगी बैठी है इंतजार में तुम्हारे ..सेज फूलों की बिछाए
तुम्हारी बहन वो थी नहीं मेरी कभी बनी नहीं ..
घर जाकर भी देखा उसके ...बेइज्जत करके निकाला था
मगर फिर भी चुप ही थे ....
हम ही हर बार गलत थे ..तुम उसी तरफ खड़े मिले सदा
गलत हुआ ...हमे समझना था
हम एकेले हुए नितांत ..मौत आन बैठी राह्पर
बुरा हुआ ..मौत भी डरकर चेहरा दिखाकर चली गयी मुझे ..
नहीं मालूम था रंज होगा तुमको
और हम तुम्हारी शहादत का हथियार दिखेंगे तुमको
जहां खुशियाँ मिले चले जाओ ..
हमे रंग नहीं लगा ..उफ्फ् !गुनाह हुआ
हमने सोचा था वफा का रेशमी धागा जिसको
वही नागपाश बन गया गर ..तो तोडना अच्छा
जो बन जाये सांस पर भारी उन रिश्तों का छोड़ना अच्छा
इबादत खुदा की करती है दुनिया ..गलत किया जो तुमने ..
अभी तक जिन्दा से थे मगर इल्जाम लगाकर मार दिया तुमने
हर मुमकिन कोशिश मगर नागवार गुजरी सदा ..
वाह री किस्मत ..बहुत खूबसूरत धोखा हुआ ..
शहादत नहीं चाहिए किसी भी कीमत पर ..
मुझे नफरत में धकेला जिसने ..बताओ कौन है वो
हर कहानी चलचित्र सी गुजर गयी पल में आँखों से
तुम करो तो चुहल हम करे तो घर से निकला ..
शुक्रिया ...साहिब अच्छा हुआ ..
आज ये फलसफा जो तुमने सुना डाला ..
हम माफ़ी के काबिल भी नहीं रहे
तोडकर सपने किसी की आँख के
इतनी बड़ी गलतफहमी कैसे हो गयी हमको .
मगर ये सच है ...हम संकुचित मन के प्राणी ..
सुहाग नहीं बांटते किसी भी कीमत पर ,
मौत मंजूर है ..चाहे कितने भी मजबूर हो
तुम्हरे फैसले का इंतजार कर लेंगे उम्रभर
मगर याद रखना सिंदूर रंग नहीं होता ..
मान होता है मानिनी का
स्वाभिमान होता है भामिनी का
मर्यादा होती है
संस्कृति है ये हमारी ,
जिन्दगी होती है..
साँस की आस होती है
अहसास बसते हैं
पिया की आस सजती है
तभी कोई औरत
औरत बाजारू नहीं ....इज्जत होती है घर की
कदम को रोकती है देहरी लांघने से
गलती पर टोकती है
करती है जौहर इसी के नाम पर
औरत की रूह बसती है सिंदूर की बस्ती में
इसलिए
औरत ..बाजार मे पैसो में जो बिकती है सिंदूर को ही तरसती हैं
ज्यादा नहीं... सिर्फ... एक चुटकी भर !!
..
..
गैरतमन्द हो अगर थोड़े से भी
फिर मत कहना
आज के बाद
किसी औरत को ये शब्द "सिंदूर ..बस रंग है " .. !!-- विजयलक्ष्मी

Wednesday 2 April 2014

तू वृक्ष बना था जब एक घोसला था मेरा ,,

कभी सूखे हुए तालाब का चेहरा देखा है !
उगते हुए सूरज का रंग सुनहरा देखा है !!

भूख भूखी नहीं मिली होगी तुम्हे कभी !
क्या प्यासे समन्दर को तरसते देखा है !!

हथेली पर रेखाएं हमारी खींच दी किसने ! 
लिखा हुआ मिटते यहाँ किस ने देखा है !!

तू वृक्ष बना था जब एक घोसला था मेरा !
महक ढूंढती हूँ वही किसने उड़ते देखा है !!

गिनती होती है मुहब्बत में मालूम नहीं !
शून्य हूँ मैं क्या तुमने भी शून्य देखा है !!.--- विजयलक्ष्मी  

अर्थ ही व्यर्थ बता गया है ,,,,


हमे
जो नशा चढ़ा है 
उतरता ही नहीं ,
जाने ..
क्या मिला गया है पिलाने वाला !
ढूँढ़ता ही रहा 
मेरे कदमों की हदे वो 
हुनर ...
कत्ल भी रखता है जिलाने वाला !
भूख है 
दिल में
नजरों को प्यास भी है
चाल
सियासती खेलता है खिलाने वाला !
समझ से परे
है
तमाशाई रूह की
न मालूम
जहर या दवा है वो
रिश्ता दर्द का दे गया है सताने वाला !
स्नेहसिक्त थे
कदम
गड गये जमी में
महंगे हुए थे
शब्द 

अर्थ ही व्यर्थ बता गया है पढाने वाला !--- विजयलक्ष्मी 

मगर नागफनी के फूल निखरते ही जा रहे हैं ...



















लगी है आग देखिये चारों ही तरफ हमारे !
बसे हुए थे अब तक. उजड़ते ही जा रहे हैं !!

ख्वाब सजे  बहुत हमारी निगाह में हुजुर ! 
इन्तेहाँ ए दर्द देखिये बिखरते ही जा रहे हैं !!

आइना हो तुम अक्स मगर लापता सा है !
अहसास में ही तुम्हारे संवरते ही जा रहे हैं!!

अनजान सी डगर ये मंजिल है लापता सी !
रुकते नहीं कदम बस गुजरते ही जा रहे हैं !!

पत्थरों का शहर है बुत ही बुत है हर तरफ !
रंग ए वफा मे नहाकर बिगड़ते ही जा रहे है!!

देखिये मरुभूमि में बादल यूँभी नहीं बरसते!
मगर नागफनी के फूल निखरते ही जा रहे हैं !! 

-- विजयलक्ष्मी



Tuesday 1 April 2014

" सार्थकता होती तो मिलती अहसास में ही कहीं ,"

सार्थकता होती तो मिलती अहसास में ही कहीं ,
मर्म समझा ही नहीं.. बहता रहा दर्द का दरिया.
मसीहा होकर जो दर्द नहीं समझा ,मसीहा कैसा 
हम गरीबों के अहसास में बहता है दर्द का दरिया .-- विजयलक्ष्मी

" देखिये , यहाँ हर कोई मौकापरस्त है "

आज तो आम आदमी हुआ त्रस्त है !
देखो सत्ता हुयी पूरी की पूरी भ्रष्ट है !!

चेतना औ आत्मा ...हो चुकी नष्ट है !
फुर्सत नहीं देखने की ...क्या कष्ट है !!

योजना कागजी.. जमी पर ध्वस्त है !
निज स्वार्थ में ही ये नेता गिरफ़्त है !!

हर कोई अपने में खुद हुआ व्यस्त है! 
हालात है बिगड़े हुए, जनता पस्त है !!

पूछना चाहते है हम....कौन मस्त है !
देखिये , यहाँ हर कोई मौकापरस्त है !! -- विजयलक्ष्मी

जानते हो . मैं हूँ तुम्हारी "समझ "दब गयी हूँ...

सच लिख दूं 
हाँ ...बिलकुल सच 
लेकिन 
क्या ठीक है 
इतनी साफगोई
क्या उचित है ..सच कहना 
वो भी उन लम्हों का ...
जानते हो न तुम भी ,
इसीलिए ..
रुक जाती है कलम 
रुंध जाती है आवाज
बजने लगती हैं थाप
और
बरसती है निगाह
निकलती है आह
ये कैसी चाह
कैसा निनाद
कौन हुआ बर्बाद
वो ...
जिसने ख्वाब दिखाए
या ...वो
जिसने देख डाले
डूब गये उन्ही में
भूल गये सबकुछ
कितने खुश थे न
कोई मायूसी नहीं थी
एक दृढ़ता थी
एक विश्वास
एक अनुशाषित सा सच
स्वतन्त्रता भी थी
आवारगी भी थी
फिर भी सकूं था
एसी भूख नहीं थी ..और आज ..
हर कोई भूखा है ..
कहने को ..सब जिदा हैं
लेकिन
मर गया इंसान के भीतर का ..
चरित्र
जला दिया जमीर
तिलांजली देदी ..नहीं ..नहीं
तर्पण कर दिया ..आत्मा का ..
क्यूँ न करते ..
बहुत टोकता था
हर गलती पर रोकता था
और अब
...आजाद हूँ ...पूर्ण आजाद
मनमानी करने के लिए
तुमने भी तो मुहं फेर रखा है न मुझसे
लेकिन ..तुम तो मेरी तमन्ना हो ..
मैं नहीं छोड़ सकती
आखिर तुमसे वजूद बनता है
मुझमे ..अहंकार ,मैं ,हूँ अनंत होती भूख ..और ये तृष्णा .तुमसे ही है
और वो लूट रहे जनता को
लो ...राजनीती के मायने ही ..
झूठ और फरेब
गुंडागर्दी
घोटाले
भ्रष्टाचार
साम्प्रदायिकता
मारकाट
अलगाव
नक्सलवाद
धरनावाद
और फिर
लूटो ,लूटो ...और लूटो ..
और ...
एश करो .
यही है बस
नागरिक नहीं वोटर को जिन्दा रखो ..
वो तुम्हे जिन्दा रखेगा
यार ...पिलाओ ..झूठ की लाठी को तेल
जनता का निकालो तेल
वोट मिलेगी रेलमपेल ...
लेकिन ...
मैं ...हूँ आज भी बस
मृतप्राय सी
जानते हो . मैं हूँ तुम्हारी "समझ "
दब गयी हूँ...
आज की गंदी और भौंडी होती राजनीती के बोझ तले ... --- विजयलक्ष्मी