Sunday 29 November 2015

" तुम निरंकुश स्वच्छन्दता के तलबगार ठहरे "

" बहुत कुछ गिर रहा है ,,
सोने की कीमत
इंसानी हिम्मत
अहसास से इंसानियत
मन से दया
चेहरों से मुखौटे ..
दिमाग से जमीर
सभ्यता की जंजीर
ईमान से फकीर
स्वार्थ में नेता
मतलब में धर्म
देशप्रेम से धर्म
जीवन का मर्म
आँख से शर्म
हया का पर्दा
लोन में कर्जा
फर्ज खो गया
ईमान सो गया
खुद्दारी अहंकार में तब्दील हुई
जिन्दगी ऐशगाह में रंगीन हुई
इंसानियत एके 47 संगीन हुई
मरो मारो..झूठ को सच के सामने उतारो
दर्द सहकर चुप रहो..
बोले तो ...बोलेगा फिल्मकार
कोई साहित्यकार
मिलकर कोई गद्दार
असहिष्णुता बढ़ गयी है यार
कैसे होगा व्यापार ..
हाँ भाई ...असहिष्णुता बढ़ गयी है...
कभी खुद के गिरेबान में भी झाँक ..
मुझे स्वतंत्रता भी नसीब नहीं ..और,,,
तुम निरंकुश स्वच्छन्दता के तलबगार ठहरे "
----- विजयलक्ष्मी

Saturday 28 November 2015

" कर्तव्य की सीख और आशा की उम्मीद "


1.
एक बेटा अपने वृद्ध पिता को रात्रि भोज के लिए एक अच्छे रेस्टॉरेंट में लेकर गया।
खाने के दौरान वृद्ध पिता ने कई बार भोजन अपने कपड़ों पर गिराया।
रेस्टॉरेंट में बैठे दुसरे खाना खा रहे लोग वृद्ध को घृणा की नजरों से देख रहे थे लेकिन वृद्ध का बेटा शांत था। खाने के बाद बिना किसी शर्म के बेटा, वृद्ध को वॉश रूम ले गया। उसके कपड़े साफ़ किये, उसका चेहरा साफ़ किया, उसके बालों में कंघी की,चश्मा पहनाया और फिर
बाहर लाया।
सभी लोग खामोशी से उन्हें ही देख रहे थे।बेटे ने बिल पे किया और वृद्ध के साथ बाहर जाने लगा। तभी डिनर कर रहे एक अन्य वृद्ध ने बेटे को आवाज दी और उससे पूछा " क्या तुम्हे नहीं लगता कि यहाँ अपने पीछे तुम कुछ छोड़ कर जा रहे हो ?? "
बेटे ने जवाब दिया" नहीं सर, मैं कुछ भी छोड़ कर नहीं जा रहा। "
वृद्ध ने कहा " बेटे, तुम यहाँ छोड़ कर जा रहे हो, प्रत्येक पुत्र के लिए एक शिक्षा (सबक) और प्रत्येकपिता के लिए उम्मीद (आशा)। "
दोस्तो आमतौर पर हम लोग अपने बुजुर्ग माता पिता को अपने साथ बाहर ले जाना पसँद नही करते और कहते है क्या करोगो आप से चला तो जाता नही ठीक से खाया भी नही जाता आपतो घर पर ही रहो वही अच्छा होगा. क्या आप भूल गये जब आप छोटे थे और आप के माता-पिता आप को अपनी गोद मे उठा कर ले जाया करते थे, आप जब ठीक से खा नही
पाते थे तो माँ आपको अपने हाथ से खाना खिलाती थी और खाना गिर जाने पर डाँट नही प्यार जताती थी फिर वही माँ बाप बुढापे मे बोझ क्यो लगने लगते है???
माँ बाप भगवान का रूप होते है उनकी सेवा कीजिये और प्यार दीजिये...
क्योकि एक दिन आप भी बुढे होगे फिर अपने बच्चो से
सेवा की उम्मीद मत करना..
वो भी तो आप से ही सीखते हे।

" असहिष्णुओ के बीच रहकर भी सहिष्णुता तमाम लिखती हूँ "

" मैंने कलम उठाई राष्ट्र का स्वाभिमान लिखती हूँ ,,
किसी से मतलब कैसा बस हिन्दुस्तान लिखती हूँ,,
बहुत खोया हुआ जमीर है जिनका इम्तेहान लिखती हूँ 
खो न जाना कलदार की चमक में सावधान लिखती हूँ ..
मुहब्बत महबूब से जाँ औ जिगर जनाब लिखती हूँ,,
मेरे लहू मे घुलने दो आब ए हिंदुस्तान लिखती हूँ ..
जन्नत की जरूरत औ चिंता जिसे हो हुआ करे साहिब
कलम से अपनी मुकाम ए हिन्दुस्तान लिखती हूँ ..
मुझे मारने से क्या हासिल होगा बंदूक वालों सोचो ,,
असहिष्णुओ के बीच रहकर भी सहिष्णुता तमाम लिखती हूँ "
--- विजयलक्ष्मी




..


" अधूरी सी तमन्ना भली तो थी ,,मगर ,,
तेरी जुदाई की हद तक तो नहीं ,,||
माना रुठते थे तुमसे हम भी ,, मगर ,,
तेरे बिछड़ने की हद तक तो नहीं ,,||
धुंधलका साँझ का भाया तो था ,, मगर ,,
सूरज के छिपने की हद तक तो नहीं ,,||
बिखरते रहे खुशबू गुल बनके हम ,, मगर ,,
पंखुड़ी बिखरने की हद तक तो नहीं,,||
असहिष्णुता का राग बड़ा लम्बा हुआ ,, मगर,,
देश बंटने की हद तक तो नहीं ,,||

चुप्पी ठीक नहीं गूंगो को जुबाँ मिले ,, मगर ,,
स्वच्छन्दता की हद तक तो नहीं ..||"
 ---- विजयलक्ष्मी

Thursday 26 November 2015

" नजर बचाकर मेरी झाँका हो जैसे तुमने .. ||"



" साँझ ढल गयी थी,,सूरज सोने चला गया ,
मैं देखती थी चाँद ,,दिल मेरा छला गया ,
बादलों की ओट से कुछ यूँ झांकता था वो ..
नजर बचाकर मेरी झाँका हो जैसे तुमने .. ||
इक हवा का झोंका उड़ा छूकर इसकदर ,
बगिया खिली खिली और घूमता भ्रमर ,
नृत्य करती तितलियाँ इठलाती थी कभी
चंदा बन गगन से ताका हो जैसे तुमने ...||
अहसास इक रूहानी छलका सा आसमां,
गिरती थी ओस नयन पर ,, चाँद राजदां ,
भीगी सी चांदनी आंचल छूकर गुजर गयी ..
लगा तन्हाई को मन की आंका हो जैसे तुमने ||
"
--- विजयलक्ष्मी

Wednesday 25 November 2015

" अभी तक क्यों रखा है नाथूराम गोडसे की अस्थियाँ ...??"

अभी तक क्यों रखा है नाथूराम गोडसे की अस्थियाँ ...??
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नाथूराम गोडसे एक अखबार के संपादक थे। उन दिनों उनके पास अपनी मोटर गाड़ी थी। उनका और मोहनदास करमचन्द गांधी का कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं था। वो पुणे में रहते थे जहाँ देश विभाजन का कोई असर नहीं हुआ था। गोडसे फिर भी गांधी का वध करने गए। क्या कारण था? नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने अपने पुस्तक के माध्यम से उन कारणों का जिक्र किया है जिसके कारण गाँधी का वध किया गया। नाथूराम मानते थे कि पंजाब और बंगाल की माँ-बहनें मेरी भी कुछ लगती हैं और उनके आँसू पोछना मेरा कर्तव्य है।
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15 नवंबर 1949 को जब नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी के लिए ले जाया गया तो उनके एक हाथ में गीता और अखंड भारत का नक्शा था और दूसरे हाथ में भगवा ध्वज। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि फांसी का फंदा पहनाए जाने से पहले उन्होंने ‘नमस्ते सदा वत्सले’ का उच्चारण किया और नारे लगाए।
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नाथूराम का अंतिम संस्कार?
गोपाल गोडसे की पुत्री हिमानी सावरकर ने बताया कि ‘हमें उनका शव नहीं दिया गया। वहीं अंदर ही अंदर एक गाड़ी में डालकर उन्हें पास की घग्घर नदी ले जाया गया। वहीं सरकार ने उनका अंतिम संस्कार किया। लेकिन हमारी हिंदू महासभा के अत्री नाम के एक कार्यकर्ता पीछे-पीछे गए थे। जब अग्नि शांत हो गई तो उन्होंने एक डिब्बे में उनकी अस्थियां समाहित कर लीं। हमने उनकी अस्थियों को अभी तक सुरक्षित रखा है।
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हर वर्ष 15 नवंबर को गोडसे की पुण्यतिथि का एक कार्यक्रम गोडसे सदन में आयोजित किया जाता है। शाम छह से आठ बजे तक। वहां उनके "मृत्यु-पत्र" को पढ़कर लोगों को सुनाया जाता हैं। गोडसे की अंतिम इच्छा भी अगली पीढ़ी के बच्चों को कंठस्थ है।
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गोडसे परिवार ने उनकी अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए उनकी अस्थियों को अभी तक चांदी के एक कलश में सुरक्षित रखा गया है। हिमानी कहती हैं, ”उन्होंने लिखकर दिया था कि मेरे शरीर के कुछ हिस्से को संभाल कर रखो और जब सिंधु नदी स्वतंत्र भारत में फिर से समाहित हो जाए और फिर से अखंड भारत का निर्माण हो जाए, तब मेरी अस्थियां उसमें प्रवाहित कीजिए। इसमें दो-चार पीढ़ियां भी लग जाएं तो कोई बात नहीं।”

Thursday 19 November 2015

" मेरा भारत सहिष्णु है आज भी.. क्यूंकि कुछ भी बोलने को तुम हो आजाद "




" ख़ामोशी चीखती है,
आंसूओ में ढलकर,,
कभी काश्मीर जाकर तो देखो
रोते हुए दुधमुहें बच्चे को दूध पिलाकर देखो
तुम्हे चिंता अपनी औलाद की ठहरी हुजुर,,
कभी वतन के जख्मों को सहलाकर देखो
हम असहिष्णु तो तब भी नहीं थे जब बाबर ने हमको धोखा दिया
जजिया लगाकर मुगलों ने हमारे ईमान को धोखा दिया था
छुरा घोपा था मीना बाजार लगाकर ,,
अपने स्वार्थ की खातिर जोधाबाई को ब्याहा था
असहिष्णु नहीं हुए हम गुलाम वंश ने भी भारत में गुलामी को रोपा था
दर्द से चीखे थे,,कोई साहित्यकार नहीं आया कलम का सर उठाकर
किसी फिल्म वाले ने भी तो दुश्मन को नहीं टोका था
जब चालीस मन जनेऊ उतरते थे हमारे सिरों के साथ ,,
जब चिनवा दिए थे औरंगजेब ने सिक्ख छोटे से दो बालक एक साथ ,,
जब गुरु का शीश टंगा था चौराहे पर दुश्मन के हाथ ,
असहिष्णु तो हम तब भी नहीं हुए थे जनाब ,,
तुम सोचो और बतलाओ ...
हम तो तब भी सहिष्णु थे जब हेमराज से जांबाजों के सर कलम किये दुश्मन ने
जब आतंकी आकाओ की खातिर न्यायालय चलवाए आधी रात
नहीं फब्ती दिखावे की फिल्मों में देशप्रेम की बात
रील की निकलकर असली हीरो बनो तो कोई बात बने ..
यूँ शब्दों को मत तोड़ो ठाली दौलत पर बैठ गाढ़ी कमाई हमारी नहीं भुने चने
काश्मीर पर दुश्मन देश के झंडों पर तो फतवा पढ़वाओ .
कितने पंडित थे जिनके बेटो को कलम किया था ,,
उठाकर औरतों को उनका दैहिक भौतिक शोषण किया था ,,
छोडो बाकी बातें तुमने प्रभु शकर का उड़ाया था मजाक ,,
इक बार जरा फिल्म बनाकर देदो पैगम्बर पर आज
सहिष्णुता की परिभाषा समझ आ जाएगी ,,
किसे कहते हैं आजादी बोलने की दिख जाएगी ,,
एक देश में दो कानून खत्म करने की बात करो ,,
जरा सडक पर उतर वन्देमातरम की लगाओ पुकार,,
मेरा भारत सहिष्णु है आज भी.. क्यूंकि कुछ बोलने को तुम हो आजाद " --- विजयलक्ष्मी




" मैं मणिशंकर अय्यर नहीं हूँ ,,
मेरा देश असहिष्णु भी नहीं है,,
न ही मैं सलमानखुर्शीद हूँ ,,
मुझे पाकिस्तान से कोई मतलब नहीं ,
हम अपने घर को आप सम्भाल लेंगे ...|
मुझे धर्म वाले नास्तिक कहने लगे,,
बस मुझे मेरे वतन का रहने दो ,,
मुझे खुद को टुकडो में न बांटो मुझे हिन्दुस्तानी रहने दे
मुझे सुहाती हैवन्देमातरम ,,मुझे देशराग गाने दो,,
लोकलुभावन वादे नहीं भाते मुझे हवा में घुल जाने दो,,
वतन को मुझमे मुझे वतन में समाने दो ,,
तुम नहीं समझोगे ... हाँ हिन्दू हूँ मैं,,
मुझे हिंदुस्तान बन जाने दो,,
सेकुलर के ठप्पे न लगाओ मुझपर,,,
सेकुलर नहिन्दू न मुसलमान है ,,
आधा पशु आधा इन्सान है,,
मुसलसल धर्म इंसा को इंसानियत सीखता है ,,
मानुष आतंकी हुआ स्वार्थ में और बदनामी धर्म पाता है  "
---- विजयलक्ष्मी

Wednesday 18 November 2015

" दुनिया कैसे जानेगी प्रेम पीर की जात "

नींद खोई नयन से हृदय पर आघात ,
भूल बैठे साँवरे , करते ही नहीं बात .
स्नेहिल पल मन ढूँढ़ता बीते जो साथ
भरे भवन बैठकर होती गुपचुप बात .
दुनिया कैसे जानेगी प्रेम पीर की जात
स्नेह अपवित्र औ छिनाल औरत जात .--- विजयलक्ष्मी


विष लगे कुम्भ में कितना भी डालो दूध ,,
हुई लहुलुहान मानवता तुम कैसे धर्मसुत
तुम कैसे धर्मसुत जरा सच को तो आंको
बैठ चौराहे धूर्तता के स्वाभिमान मत ताको --- विजयलक्ष्मी