Sunday 7 June 2020

उजड गए हम अपने मकान से

उजड गए हम अपने मकान से उनकी मेहरबानी हुई ..
वो रोज बुलाते थे हमे आवाज देकर ,


हम न समझे उनकी रंजिशें ,बेदिली भी रास आने लगी 
चल दिए अब वो हमसे मुह फेरकर .


उन्हें क्या कहें अब दिल रोता भी नहीं रिसता भी नहीं 
देखता वो दर..जिसे गए वो भेड़ कर ,


मेरी मुहब्बत तमाशा ही हो गई अब तो, क्या छुपाऊँ
नाम न आयेगा, जुबां चली अहद लेकर.


छोड़ दिया मेरी गली आना और आवाज लगाना भी ..
थक गयी जिंदगी भी उन्हें आवाज देकर.


रोशन उजाले किसी और छत पे हों कोई गिला नहीं
मेरी मुडेर से सूरज चला रौशनी लेकर ,


सिमटने की जरूरत ही खत्म हुई अब उजड़ने दो हमे
मर भी न पायंगे हम, बदनामी देकर.


रोशन रहे दुनिया, दुआयें जो सुन सकें कही अनकही
नासूर हुए हम नामुराद चाहतें लेकर .
---विजयलक्ष्मी
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