Thursday 26 March 2015

" जी तोड़ मेहनत करके भी भूखा मरता किसान "



" गर्मी सर्दी सब सहता औ धूप में करता काम 
दाने दाने को उपजाता तपाता जीवन तमाम

यही है अन्नदाता और धरती पर भगवान
मेहनत इसकी.. पेट भरता हर इंसान

धरती के सीने को चीर करता अथक परिश्रम 
इक इक दाना खून-पसीना हरियाता खलियान

साहूकारी कर्ज के नीचे बीज पानी का इंतजाम 
कभी अकाल कभी बाढ़ से मर जाता है किसान

राजनैतिक झमेलों से दलाल मौज उड़ा रहे 
जी तोड़ मेहनत करके भी भूखा मरता किसान
---- विजयलक्ष्मी

Tuesday 24 March 2015

" वाह रे कलयुगी इंसान .....स्वारथ के धंधे सारे ".

" सच है ,सत्य लुभाता है ,मगर पेट झूठ से भर रहा है ,
शायद इसलिए... सत्य भी ...धीरे धीरे मर रहा है ".------ विजयलक्ष्मी


" चुभन शूलों की महक उसूलों की ,
अंधेरों की सियासत और षड्यंत्र सूरज को भी डूबने पर किया मजबूर 
खारा सा समन्दर रोकता है कबतक उजाले को आने से 
पाक दामन पर भी कोई नहीं चूकता दाग लगाने से 
उसपर नारी होना ...कुलक्षणी है ,कलकनी बदजात ..
कुछ बाकी बची तो तिरयाचरितर लिए होना ..
सुना है देव भी डरते थे उस रूप से ..
फिर भी देवी को ही संकट में पुकारते थे ....
वाह रे कलयुगी इंसान .....स्वारथ के धंधे सारे "...विजयलक्ष्मी 

" हम बहुत है बरबादियों के साथ चलने को"

" खो गयी सहर हमारी ,दीप अब बुझने लगे 
कोशिशों के बाद भी ,डगर कुचली गयी 
नयन नीर है मगर बंजर हुआ मन 
आस अब कोई छूती नहीं अहसास को 
दर्द बहता है नदी सा और गुल मुरझाये से 
उसी में हम बैठे हुए है नहाए से
घरौंदा उजड़ा सा है खो गया मेरा पता
अब चहकते हुए पंछी नहीं भाते हमे
जल चुके है चिंगारी भी दिखती नहीं
बस बकाया ठंडी पड़ी सी राख है
महको तुम ,तुम्हारा जहां आबाद हो
हम बहुत है बरबादियों के साथ चलने को
" - विजयलक्ष्मी 

Monday 23 March 2015

"मैं औरत .... मधुमक्खी बन जाती "



" मैं , औरत ..

गर स्वभाव से...
 मधुमक्खी बन जाती 
उसी ताल पर ..
गर प्रभाव से ..
अपना अलग समाज बनाती 
जनती इक्का दुक्का पुरुष ही ,,
गर अपने हिसाब से .. 
अपनी ही वंशबेल बढाती ,
बढ़े न कोई और समस्या 
गर मनमुटाव से ..
मधुमक्खी जैसे ही उसे मारती औ खा जाती 
अपना जीवन आप चलाती 
गर टकराव से ...
अपनी सेना ,अपना धर्म बनाती ..
अपना ही बस रंग जमाती
गर जमाव से ..
बना शहद सी मीठी दुनिया ...इस दुनिया से छुट जाती 
" फिर कोई पुरुष न कहता ..
जितने भी स्त्री पुरुष है जिनसे समाज बना है
उन्हें औरत ने जना है "
औरत की यूँ दुर्गति न होती 
सम्भवतया इससे तो बेहतर जिन्दगी होती ..क्यूंकि 
जिस औरत ने जन्म संग अधिकार दिया 
उसी पुरुष ने उसी औरत को बाजार दिया "
 ----- विजयलक्ष्मी


" लाश लावारिस पड़ी है आजकल "

" फिर वही धमाके 
फिर वही मौत के मंजर 
फिर वही आस्तीन के सांप 
फिर वही जहर उगला गली गली 
और हम ढूंढते फिरे कहीं तो जिन्दा मिले 
जो मर रही है सरे शाम चौराहे पर घड़ी घड़ी
कभी धर्म के नामपर
कभी सम्प्रदाय के नामपर
कभी सियासती हथकंडों में
कभी रियासती फंदों में
टूट रही है सांस
खोती जा रही है आस
मालूम हुआ लेटी है आई सी यु में
आखिरी घड़ी का
और दम तोड़ गयी
कभी शब्दों में
कभी जज्बों में
कभी इंसानी जहन में
कभी जिन्दगी के सहन में
तन्हा थी पहले बिकी
फिर फांसी चढ़ाई गयी
शवयात्रा में उसकी
शामिल सभी हुए
मैं ..तुम .तुम्हारे .वो .उनके ...हम ...हमारे
लाश लावारिस पड़ी है आजकल ..
तुम जानते हो उसे
कौन थी वो
..
वही तो थी ...
इंसानियत !!
" - विजयलक्ष्मी 

Friday 20 March 2015

" भारतीय नववर्ष की शुभ एवं मंगलकामनाओ के साथ ...शुभ नवरात्र "

आपको नवसम्वत्सर की शुभ एवं मंगलकामना ..
.ईश्वरीय आशीष और स्वत:स्फुरित ज्ञान में वृद्धि हेतु कामना सहित ..
हर कदम मंजिल और भी नजदीक हो .--- विजयलक्ष्मी



जय भवानी !
धर ले विकराल रूप माँ !
जय काली कपालिनी असुर विनाशिनी माँ !
हर लो कष्ट कृपामयी तुम ,पाप नाशिनी माँ !
कर दे उद्धार माँ ,हो जाये बेडा पर माँ !

हे सिंह वाहिनी माँ !
हे दर्प विनाशिनी माँ !
जगदम्बा जग जननी मैया ..
हे कल्याणी ,हे भवदुःख हरिणी माँ !
हे मुक्ति दायिनी ,जय भवानी माँ !
तुही दुनिया से तार माँ ,दुष्टों का कर संहार माँ !
भक्तों से करलो प्यार माँ पाए तेरा दुलार माँ !
-- विजयलक्ष्मी




नव वर्ष नववृन्द 
नवगीत नवछ्न्द
रागिनी गाते पक्षीवृन्द 
क्या भोर का सूरज सचमुच मे सुबह लायेगा 
क्या भोर का उजाला जीवन में उजाला लाएगा 
क्या भोर का सूरज भविष्य के माथे पर सज पायेगा
क्या खौफ निगाहों का रूठ जायेगा
क्या वक्त वक्त की सरगम पर लहराएगा
क्या इन्साफ का झंडा फैहरायेगा
नववर्ष नवजीवन लायेगा
उम्मीद की किरण कोई दिखायेगा
--- विजयलक्ष्मी 





हे कृपाण धरिणी !शत्रु विनाशिनी !
हिंसा विदारिणी ,हे सुरेश्वरी देवी !
रक्ष कवच दायिनी ,रौद्र रूपा धारिणी !
माँ कालिके मयूराक्षी !हे भय विनाशिनी !
हे शत्रु हन्ता माँ !हे दुर्मति हारिणी !
हे भवानी ! मोक्ष दायिनी माँ ,हे दर्प हरिणी !...
हे महिषासुर मर्दिनी !हे काल नाशिनी !
हे मुंड माल धारिणी! हे जगतजननी माँ कपालिनी !
हे भवानी प्रसन्न भव ,रोग विनाशिनी !
हे कालिके ! जगदम्बिका माँ कष्ट निवारिणी !
हे मर्दिनी ! हे जगदीश्वरी !हे सौंदर्य स्वरूपा माँ ,हे जीवन दायिनी !.
- विजयलक्ष्मी




" निशुम्भ शुम्भ गर्जनी, प्रचन्ड मुण्डखण्डिनी।
वने रणे प्रकाशिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी।।

त्रिशूल मुण्ड धारिणी, धराविघात हारिणी।
गृहे-गृहे निवासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी।।

दारिद्र दुःख हारिणी, सदा विभूति कारिणी।
वियोग शोक हारिणी, भजामि विन्ध्यवासिनी।।

लसत्सुलोल लोचनम् लतासनम वरम प्रदम्।
कपाल-शूल धारिणी, भजामि विन्ध्यवासिनी।।

करौ मुदा गदा धरा , शिवाशिवम् प्रदायिनी।
वरा-वरानना शुभम् भजामि विन्ध्यवासिनी।।

ऋषिन्द्र जामिनीप्रदम्, त्रिधा स्वरूप धारिणी।
जले-थले निवासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी।।

विशिष्ट शिष्ट कारिणी, विशाल रूप धारिणी।
महोदरे विलासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी।।

पुरन्दरादि सेविताम्, सुरारिवंशखण्डिताम्‌।
विशुद्ध बुद्धिकारिणीम्, भजामि विन्ध्यवासिनी।।"

Thursday 19 March 2015

" आज फिर खाली हाथ चली आई शाम "

आज फिर खाली हाथ चली आई शाम ,
कुछ रूठी सी लगी कुछ शरमाई शाम
आज फिर ..
कुछ यादे भी है और आवाज भी यहीं
बहती नदी सी अहसास ए तन्हाई शाम
आज फिर ...
नमी तो नमी बादल भी गरज रहे है
दिल की जमी पे बिखरी बलखाई शाम
आज फिर ...
पलको पे ख्वाब ठहरे औ साँसों में नाम
जिन्दगी कौन डगर तन्हा घबराई शाम
आज फिर ...
कुछ सहमे सहमे से लम्हे भी गुजरे है
साहिल को ढूंढती निगाह इधर आई शाम
आज फिर खाली हाथ चली आई शाम , ---- विजयलक्ष्मी

" विरोधी न बन सहयोग कर ..यही नहीं रुकना है मुझे "

" जब मन धधकता है चिंगारी सी सुलग उठती हूँ ये सच है
जलाकर रख कर दूं कायनात सारी मशाल बनकर ये सच है
लेकिन मुझे मालूम है किसी के कहने से नहीं बदलता वजूद मेरा
मैं औरत आधी दुनिया मेरी है और बाकि बकाया आधी ..को जन्मना है मुझे
ये भी सच है ...इस दुनिया को बदलना भी है मुझे
संवारकर धरा को संवरना भी है मुझे
ओ पुरुष ,,स्वर्ग का निर्माण धरा पर भी करना है मुझे
विरोधी न बन सहयोग कर ..यही नहीं रुकना है मुझे "--- विजयलक्ष्मी

" यूँ तो मौत से निकाहनामा पक्का है हमारा "

 "इक ख्वाब संवरने दे ए जिन्दगी पलकों पर ,
यूँ तो मौत से निकाहनामा पक्का है हमारा "--- विजयलक्ष्मी

Saturday 14 March 2015

ए औरत ..बढ़ चल मंजिल की और

" ए औरत कौन करेगा इज्जत तेरी ..?
गर . हत्या की आरोपी होगी
गर ..दहेज़ की खातिर पिता को तिल तिल जलाती होंगी
गर ..भ्रूणहत्या की भागी होगी
गर ..बेटी के लहू की प्यासी होगी ...
गर ..झूठे किस्से घडती होगी
गर ..माँ बाप को बेघर करती होगी
गर ..बहु को जिन्दा जलाती होगी
गर ..बेटी को कमतर समझती होंगी
गर औरत होकर भी औरत को निचा दिखाती होगी
गर और औरत होने पर शर्माती होगी
गर लाज चौराहे उडाती होगी
माना औरत होना दुष्कर बहुत है ..
आजादी मिलना कठिन कर्म है
पुरुष प्रधान समाज प्रथम है
औरत को बढना भी मुश्किल
नई दुनिया घड़ना भी मुश्किल
फिर तू ही जीवनदायिनी
फिर भी तू ही मनभावनी
फिर भी तू ही जग अधिष्ठात्री
फिर भी तू ही मातृशक्ति ..
तू भैरवी तू ही काली
तू अन्नपूर्णा तू ही गायत्री
ममतामयी और सबसे निराली
पुरुष कहे कुछ नहीं होना ..
तुझ बिन कब मुमकिन धरती पर हरियाली होना
तू सम्बल तू ही सहारा ..
ये जग बस तूने ही संवारा
ए औरत ..बढ़ चल मंजिल की और
तुझ बिन नहीं इस दुनिया को ठौर
नदिया बनकर बहना होगा
सफर समन्दर तक करना ही होगा ---- विजयलक्ष्मी

तुम सम्यक कोण हो या पूरक ..

" तुम कौन हो ए जिन्दगी बताओ तो सही ?
तुम सम्यक कोण हो या पूरक ..
गति के मूल सिद्धांत हो या अनुपूरक
सवाल इक लिए ये जिन्दगी इतिहास हो रही है
अंको के गणित सी साथ चल रही ...

भावना की भौतिकी उलटी ही चली यहाँ
उठती भावनाओं से बना आंसू नीचे ही गिरा
बिन मिलाये रसायन खारा हुआ नैन-जल
बस कुछ उदासी भरे मिलाये थे पल
जब मुस्कुराये ...आलम फिर भी वही था
गमगीन आहटों से भी किस्सा रंगीन था
थोड़ी ख़ुशी तो थी कहीं पाने की ख्वाब में
पहाड़ सी जिन्दगी का तमाम भूगोल किताब में था
खिलता रहा गुलाब सा संग काँटों को लिए
ठोस अवस्था में बता कैसे लम्हे तमाम पिए
बहते रहे हम लेकिन नदी भी न बने
बैठे थे पेड़ के नीचे विपरीत भावनाए गुरुत्वाकर्षण के बल से थी
भावनाए उलटी दिशा में उठ रही थी
बहते थे आंसू तटबंध तोडकर
बाढ़ तो थी ...दुनिया अपने सिवा किसी की न बही ..
बांध भी इंटों से न बन सका
संत्वना के भरोसे था विश्वास पर टिका
दिख रहे विषय थे सब घूमते हुए
समाजशास्त्र में भी अर्थशास्त्र था घुसा
नागरिकता लिए शास्त्र लुटा जा रहा
बागवानी के सिद्धांत भ्रष्टाचार पर टिके थे
तुम समझ सको तो .....समझाना हमे भी ...
जीवनशास्त्र का रंग सबसे जुदा है क्यूँ 

 तुम कौन हो ए जिन्दगी बताओ तो सही ?
तुम सम्यक कोण हो या पूरक ..
गति के मूल सिद्धांत हो या अनुपूरक
 घरो में सभी के मनीप्लांट लटके थे
पैसो के पेड़ मेज के नीचे उगे थे ..
कागज पर बैठने को चिड़िया के दाने बिखरे थे मेजपर
".------ विजयलक्ष्मी