Friday, 27 September 2013

यादें फाख्ता होती तो उड़ जाती

यादें फाख्ता होती तो उड़ जाती किसी छोर न आने की खातिर ,
हाँ जुगनू सी टिमटिमाकर कह देती होंगी भूल जाने की खातिर .

मगर होती है कुछ बेरहम सी चली आती है छोड़ कर किनारा ,
अब न पुकारेंगे , कभी यादों को हम भी याद आने की खातिर.

अच्छा हों तस्वीर पे रस्म ए मुजस्सम तश्विया ही हों जाये अब 
न आँसू न लहू बिखरेगे कभी , गीले से हुए आंचल की खातिर .

हूँ कौन बता ..क्या मेरा पता है ..ढूँढूँ खुद को अब मैं कौन गली 
चल पड़े कदम ,किस डगर कहूं, मिले कौन मुझे किसकी खातिर.

एक चाल अजब सी चल गया वक्त भी ,जो मेरा है मेरा ही नहीं
पूछ रहा मुझसे ही खड़ा..बता ?देह पीर जगी या नेह की खातिर. -- विजयलक्ष्मी

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