Wednesday 26 December 2012

सच में सुधार जरूरी है ...?

सुधार जरूरी है शुरुआत हों संस्कारों से ,
गृहधर्म निर्वाह ,कर्म और विचारों से .
हिस्सा हम भी है तुम भी इसी समाज का ,
शुरू करना सुधार है अपने ही परिवारों से.
क्यूँ चूक गए हम और चूक कहाँ हुयी हमसे ,
देखना होगा हमे खुद के व्यवहारों से .
गलती करें और गिर के सीखे जरूरी नहीं है ,
दूसरे को गिरते देख सबक ले किरदारों से .
खरीद फरोख्त का बाजार है खुला हे नुक्कड़ पे ,
क्या गलत सही सीखना होगा गुनहगारों से .
जानकर दलीलें क्या वक्त बदल जायेगा ...
इंसानियत का रंग भर,सीख लेना समाज के ठेकेदारों से ...!!
.- विजयलक्ष्मी

चाहते तो सब है ...


"चाहते तो सब है ईसा का दुनिया में आना ,
घर मेरे आये तो सहेंगे कैसे बेटे का सूली चढ जाना .
चाहते तो सब है दुनिया का बदल जाना ,
घर सूना न हों इसलिए ईसा मेरे घर मत आ जाना .
चाहते तो सब है सबका मिलकर रह पाना,
घर से किसके हों शुरुआत ,कौन चाहेगा अपनाना ".
-- विजयलक्ष्मी

एक आग्रह ..

"पुलिस वालों से जनता का एक आग्रह, क्या होगा स्वीकार ,
कुछ शर्म आ जाये शायद कर दो सबके चेहरे सरे आम ..
समाज में कुत्सित लोगों के चेहरों को पहचान करें बहिष्कार , 
क्यूँ छिपाते हों बतलाओ तो उनके नाम और पहचान ..
गर डर होता है बदनामी का क्यूँ करते हों फिर ये दुर्व्यवहार ,
तिरिस्कार मिलेगा जग में फिर शायद न करे ऐसा काम "..- विजयलक्ष्मी

वो छू गए तन को दुनिया तार तार करती है मन को ..

"काश समझ लेता कोई मन, खबर के बाद क्या होता है हश्र ,
लिखने वाला लिख कर खो गया ...शब्दों में उडाकर ,
तैरते है वही शब्द हवाओं में पल पल हवा के संग ,
लिए दर्द को संग वारदात का कैसे जीते है उड़े से रंग ,

कुछ पल जब चिपकते है जीवनभर को संग करके बेरंग ,बेबसी के संग ,,
कैसे समझे कोई ...पल पल मरते पल को पलको पर ठहर जाता है जो ,
जख्म तन के भर जाते है पर मन के जख्मों का क्या ,
वारदात ....काश ...!महज एक वारदात होती तो अच्छा था ,
छीन लिया हर रंग ,जीने का ढंग ,करके बेरंग हुआ बदरंग ,
बहुत बेजा हरकत उसपर माफीनामा ,,,सरकार का रंग दिखाना ,
सजा को माफ़ कर .....उनकी राह को पुख्ता कर जाना ,
अनदेखा कर दर्द को सरेबाजार जीवन को नर्क बना जाना ,
तन के साथ मन को जीवन से जीते जी जुदा कर जाना ..
हठधर्मी बिन कारण ही बलात बलात्कार से बेहतर है मर जाना ..
वो छू गए तन को दुनिया तार तार करती है मन को ,
फिर "वो " हर रोज हर पल सिर्फ मरती है ..जीते जीते जीवन को ".- विजयलक्ष्मी

Tuesday 18 December 2012

आगाज ए कयामत ,यूँ मालूम न था ..

न पूछ मुझसे यूँ बार बार कयामत हों जायेगी ,
सोच ले इक बार फिर ये जिंदगी किधर जायेगी .

यहाँ बहुत है जो तस्वीर के दीवाने हुए फिरते हैं ,
रुखसत जो खुशी हुयी, बारात ए गम किधर जायेगी.
सोच ले ....

डूब जायेगा सफीना भी जब कभी ,ए जिंदगी बता ,
टूटी पतवार लिए ,कि टकराकर तू भी किधर जायेगी .
सोच ले ..


मान जा कहना मेरा आज भी वक्त अभी काफी है ,
एकबार जो उतरी आसमाँ से सितारों की कसम सिहर जायेगी .
सोच ले ....

फिर न कहना , आगाज ए कयामत , यूँ मालूम न था,
लौटना मुश्किल न हों जाये कहीं मौत ए कब्र संवर जायेगी
.- विजयलक्ष्मी

Monday 17 December 2012

सच है मगर ...

ए मुहब्बत बता तुझको आवाज दूँ कैसे ,
बंद दरों के उस पार आवाज अपनी पहुचाऊं कैसे .

है गुनाह झांकना भी जिस गली में मेरा  ,
बताओ खुद ही उस जगह आशियाना बनाऊँ कैसे .

बेसबब कह दूँ  याद आते नहीं गर तुम,
पूछ लो दिल से झूठी ये बात तुमको कह जाऊँ कैसे.

बंद है हर गली के मुहाने जान लो तुम ,
हाँ मुहब्बत हों गयी,कहो ये बात तुमको बताऊँ कैसे.

मुस्कुराना चाहती हूँ मैं भी ,सच है मगर  
मुस्कुराहट पाकीजा शबनम सी लबों पर लाऊँ कैसे.
--विजयलक्ष्मी 

दूध पीकर बड़े हुए जिस गाय का खुद ही ....

"वादे मुबारक और जज्बात बदल जाते हैं ,
माटी के पुतले क्यूँ नहीं माटी में बदल जाते है ,"

"माटी से निकाल माटी पुतले ही बना जाते हैं ,
जब कोई पार न बसी तो उन्हें खुदा बता जाते हैं ."

"भूख से बिलखते बच्चे नहीं दिखते जिनको ,
उन अमीरों की गोद में कुत्ते औलाद बन जाते हैं."

"दूध पीकर बड़े हुए जिस गाय का खुद ही ,
आखिर में उसी को खुद कसाई को बेच आते हैं ."

"जन्म देकर शायद गुनाह किया था जिन्होंने ,
वो जन्मदाता भी बेटों पर ही बोझ बन जाते हैं ."

"गिरगिट सा रंग बदलने की बात क्या करना ,
पलभर में खुदा औ यमराज सा रंग बदल जाते है
.
"
- विजयलक्ष्मी

राह विकास की बढते रहे हर पल ..

क्या लिख डालूँ एक पैगाम देश के नाम ,
जिसमे लिखी हों हम देशप्रेमियों की मुहब्बत तमाम .
आँसू न लिखा हों पलकों का एक भी ,
ख्वाब लिख डालूँ दिल के पलकों पर सजा कर तमाम .
भोर के सूरज सा रोशन हों नित्य प्रति ,
लिख दे जीवन के पल सब अपने प्यारे से देश के नाम.
स्वार्थ से परे ,जीवन यापन हों अपना भी ,
खत्म हों राष्ट्रद्रोही सब और राह की अडचने तमाम.
उपवन सा खिल्जाये इन्द्रधनुषी रंगों में ,
परचम फैले देश का अपने गर्वित हों ,दुनिया में तमाम . 
राह विकास की बढते रहे हर पल ,
पहुंचे मंजिल पे अग्रणी हों,अनुसरण करे दुनिया तमाम.
-- विजयलक्ष्मी

रंगीनियाँ छाई हों गर ...

"घर दलालों के रंगीनियाँ छाई होगीं गर ,
ये जरूरी है कि देशभक्तों के घर अँधेरा काबिज हों
." - विजयलक्ष्मी

बीतती है जिंदगी तन्हा ,यूँ दीपक बनाने में .

"ए जिंदगी ,माना गम बहुत है जमाने में 
लगी रहती है दुनिया भी, आजमाने मैं .

वक्त का सिला उसमे भरम अपनों का हों 
तो क्या रखा है भला ऐसे जीने जिलाने में .

पत्थरों के बीच इंसान रहेंगे कहाँ सोच तो 
पत्थर तो रहेंगे मशगूल उसे पत्थर बनाने में .

शिला न पूज ,हर शिला शिवाला नहीं जाती 
जिंदगी लगती है कोई एक मूरत बनाने में .

नादानियां न कर यहाँ अँधेरा ही अँधेरा है
बीतती है जिदगी तन्हाँ, यूँ दीपक बनाने में."- विजयलक्ष्मी

मुझे तो कत्ल होना ही था ...

"युद्ध होगा तो रक्त तो बहना ही था ,
हर चेहरे को रक्तरंजित तो होना ही था ,
सूख जाती है नमी ,धरती धरती को बंजर होना ही था ,
असलहे पहुंचे की धंस गए भीतर तलक ,
आग न उठती क्या .. कायरता का गहना पहना नहीं था ,
तलवार की धार कुंद नहीं होती ,वार ए खंजर होना ही था ,
पाकीजा नहीं था तथाकथित वारदात का असर होना ही था ,
देशप्रेम पर कोई ऊँगली उठाये ,,,मुझे तो कत्ल होना ही था . "- विजयलक्ष्मी

देह मर चुकी दफ्न करना है बाकी....

"खामोश दरख्तों की आवाज सुनी कभी ,
खला को चीरकर निकलती है जब कभी ,
अहसास करना शब्द हल्के लगते है कभी कभी अहसास के ,
मेरी मौत तो निश्चित हों चुकी ..
पूजा का एक दीप जलता है तारीकियों का नाम लेकर ,
हर संगीत मौन में धर दिया तुम्हारे शब्दों ने ,
तुम ढांढस बंधा दो बहुत है बाकी ,
आँसू सूख जाते है एक दिन ,
लकीरें हाथ की कैसे बदल डाले ,,
बता कैसे हम काफ़िर हों गए ,,
बेवफाई तो नाम लग चुकी हमारे ..
शाहदत पर नाम लिखा है उँगलियों ने जिस रोज से ..
तूफ़ान का मंजर है ..हमे इजाजत नहीं अब घर से निकलने की ..
हम उस ऊँगली को देखते है क्यूँकर हुआ ये कत्ल हमसे ,,
समझ से परे है अब ..
खंजर खामोश सा हों गया क्यूँ ..
इत्मीनान भी नहीं है ..वक्त भी वक्त देने को तैयार नहीं है ...
विदा करनी है बेटी अभी घर से ..
कैसे मुख मोड लूँ फर्ज से ,
वक्त कम है बहुत ..
यूँ जिंदगी में गम है बहुत ,
मगर खुश हूँ ....मैं बहुत ,
देह मर चुकी है दफ्न करना है बाकी ..
रूह भी चीख कर चुप सी हों गयी .
बाकी तुम सुनाओ अपनी कहानी ,
भागती दौड़ती जिंदगी की रवानी ,,
- विजयलक्ष्मी

ढूंढकर तुम्हे लाऊं कैसे ...



"सहर होने को है ,
बता सूरज को आवाज लगाऊँ कैसे .
परेशान है वक्त ,
तुमको घर से बता अब बुलाऊं कैसे .
क्या भूल जाओगे ,
गर भूल चुके बता याद दिलाऊँ कैसे .
कशमकश है क्यूँ ,
परेशां हाल दिल है ढांढस बँधाऊँ कैसे.
खोया न करो तुम !!
निकल घर से ढूँढकर तुम्हे लाऊँ कैसे."-विजयलक्ष्मी

जग जाओ सोने वालो ,अभी वक्त कहाँ है ...

"जाग जाओ सोने वालों ,अभी वक्त कहाँ है ,
देश जल रहा है अपनों के हाथों से ,
दिखावा देश प्रेम का ,देश को छलने की बातों से ,
जो अपने से दिखते तो है मगर होते नहीं ,
देश की नब्ज टटोलते तो है मगर रोते नहीं ,
शब्द आरक्षण काश शब्द ही बन गया होता ,
जिन्हें आरक्षण मिला ये नेता उनसे देश चलवाते नहीं ,
स्वार्थ की दूकान चल रही है आजकल ,
सफर लम्बा है यात्रा जरूरी है ये ...
जिंदगी की राहे कुछ जरूरी भी है ये ,

फिर न कहना हम तन्हा है यहाँ ...
देश के नाम पर रोने बहुत कम है यहाँ ,
प्रेम तो है मगर देश से कम है ,,,
कलदार अगर मिल जाये तो चोरी भी करम है ,,
नए किससे तमाम लिखूँ कैसे ,
लकीरों पे कोई नाम लिखूँ कैसे ..
मेरी झोपडी में एक चिराग जला है ,,
उसमे देश प्रेम का बस एक ही राग पला है ,
तलवार खंजर कृपाण सबसे हुआ क्यूँ गिला है ,
जिंदगी फलसफों के बीच हकीकत का काफिला है ,
और हम बेदम से इन्तजार में ...
काश तुम भी यही हों तो देश की कोई नई खबर नुमाया हों जाये ..
ख्वाब जो पलकों पे सजे थे ,,,,सरमाया हों जाये
."
.-
विजयलक्ष्मी

Tuesday 4 December 2012

क्या मिला इस तरह दिल दुखाकर ..

















लीजिए हमारे एकाउंट को खोलने के लिए भी लीजिए शब्दों की माला ...
..
खाता खोलने की कोशिशे क्यूँ बेकार में कष्ट किया .
जो पूछना है ,वो तो पूछ लेते हमसे सामने आकर .
क्या मिल जायेगा बोल इस तरह से नजरे छिपाकर .
हमसे कुछ न पायगा कभी भी इस तरह से आकर .
क्या लाभ मिला या खुशी बता दे ,अब तो आकर .
राज नहीं खोलेंगे हम कुछ नहीं बोलेंगे ,समझाकर .
अब तो बता दे क्या मिला इस तरह दिल दुखाकर. - विजयलक्ष्मी

जिंदगी एक वाकया ..

क्या होता गर ये जिंदगी वाकयो में ही बँटी होती ,
वक्त में सहर से शाम तक की जिंदगी लिखी होती. - विजयलक्ष्मी


जिंदगी एक वाकया नहीं ,लगती लम्बी कहानी सी ,
झूठी होकर भी क्यूँ ,सत्य की कसौटी पर सुहानी सी .- विजयलक्ष्मी



जिंदगी के वाकये, वाक्यों के फलसफों में ,
हमशक्ल थी तो क्या , वो सत्य भी तो थी .- विजयलक्ष्मी

बस टूटते हैं रिश्ते रिसता है दर्द .

बहुत मतलबी हों गया इंसान ,
जब देखिये जरूरत से शैतान या हैवान ,
हर एक में है जिन्दा राम के साथ रावण ,
झांकते नहीं खुद में हर गलती बस दुसरे की मान ,
ख्वाहिशों का अम्बार लगा है ,
रिश्तों को निभाना सबको भार लगा है ,
हर किसी को अपनी आजादी लगती प्यारी ,
गर लगे कोई बंधन तो बसर करते न्यारी ,
किसकी करें बात क्या पुरुष और क्या नारी ,
समझते नहीं है नहीं दोनों का गुजारा ,

हर एक रिश्ता होता है खुद में प्यारा ,
झुकने से कोई भी छोटा नहीं होता ,
अहं का मगर कोई अंत नहीं होता ,
बस टूटते है रिश्ते और रिस्ता है दर्द .-- विजयलक्ष्मी

यहाँ कुछ भी बिकाऊ नहीं है ..

आवाज जब खला में खलिश घोलने लगी है ,
बाजार में कच्चे चिठ्ठे बिकने लगे है ,
घर बरसात में गिरने लगेंगे इस तरह ,
उड़ जायेगा सब शक के तूफ़ान में ,
शक के बिना पर घर नहीं बनते ,
चीखों से झूठ सच में नहीं बदलते ,
सन्नाटे भी सत्य के लगते है प्यारे ...
बेआवाज होकर भी रहते है हमारे ,,
चलो बहुत बाजार लग चुका ..तुम्हारा ...
यहाँ कुछ भी बिकाऊ नहीं है .- विजयलक्ष्मी

दर्द छलकता है जब दिल की गहराइयों से ,,,

गजलों की तहजीब तवायफों से ही मिली है ,
पुरुष की दखलंदाजी जब बेलगाम होकर स्वार्थ पर चलती है ,

दर्द छलकता है जब दिल की गहराइयों से ,
शब्द शब्द निखत है मोती तब एक गजल बनती है 
औरत की आबरू सर ए आम उछलती है ,
रहते हैवानियत के साथ इंसानी शक्लों में भेडिये ,
उनके ही इशारों पर तवायफों की बस्ती बसती है,
किसे गुरेज है घर की आबरू में रहे ,दामन हों पाक सबका ,
फिर एक ही मछली पूरा तालाब गंदा करती है ,
कुछ होती भी नहीं मगर दुनिया तो सबको बदनाम करती है .

दर्द छलकता है जब दिल की गहराइयों से ,
शब्द शब्द निखरता बन एक मोती तब एक गजल बनती है .- विजयलक्ष्मी 

जन्म देकर शायद गुनाह किया था ...

वादे मुबारक और जज्बात बदल जाते हैं ,
माटी के पुतले क्यूँ नहीं माटी में बदल जाते है ,

माटी से निकाल माटी पुतले ही बना जाते हैं ,
जब कोई पार न बसी तो उन्हें खुदा बता जाते हैं .

भूख से बिलखते बच्चे नहीं दिखते जिनको ,
उन अमीरों की गोद में कुत्ते औलाद बन जाते हैं.

दूध पीकर बड़े हुए जिस गाय का खुद ही ,

आखिर में उसी को खुद कसाई को बेच आते हैं .

जन्म देकर शायद गुनाह किया था जिन्होंने ,
वो जन्मदाता भी बेटों पर ही बोझ बन जाते हैं .

गिरगिट सा रंग बदलने की बात क्या करना ,
पलभर में खुदा औ यमराज सा रंग बदल जाते है .- विजयलक्ष्मी

हर सहर के साथ जलता है मेरे मंदिर का दिया ....

उदास सी रात ,
उनींदे से कोहरे सी सौगात ,
मुंडेर पर बैठी चिरैया ,सूर्यकिरण का इन्तजार ,
चाँद की बिंदी लगा , चाँदनी पहने थी रात ,
भोर के सूरज से पूछ लेना कल कहाँ खोया था वो ,
दिन मुकर्रर कौनसा था तस्वीर कुछ लाया था वो ,
जा रही है रात मंथर ,दिन निकलेगा न जाने कब ,
रिश्तों की ओढ़ बैठी हूँ ,सच से मुख मोडू कैसे बता ,
तिरोहिता भी तो नहीं हूँ ,
तुम सच हों मैं भी सच ,झूठ तो कोई नहीं ,
हूँ मगर जिस छोर बैठी गलती कोई तो मिले ,
छान मेरी छोटी सही पर बनाई अपने हाथ से ,
नहीं कर सकती कभी जुदा अपने साथ से ,
काश न मिलते कभी दौर तो न आता ये ,
तुम भी खुश थे उस दौर में ,
तुम बुझा दो जलते दीप सा मुझे ...
हर सहर के साथ जलता है मेरे मंदिर का दिया .
एक नदी सी बह उठी क्यूँ .
क्यूँ बादल बरस गए इतने ,
क्यूँ छान उड़ा तूफानों से ,
क्यूँ ममता बह गयी मरूथानो में,
ये कौन सहर जो आज हुई कोहरा सा दिखता नैनों में .. - विजयलक्ष्मी

Monday 3 December 2012

मेरी सुध किसी को हों तो सही ..

मेरे अपने अँधेरे मिटे तो 
सोचूं दुनिया की खातिर ,
मैं दीप बन जलूं कैसे, बतला ,
मेरे पेट की आग बुझे तो सही ,
कभी पैटोल जलाता है मुझको ,
डीजल या कैरोसीन की क्या बात कहूँ,
जलता हूँ तेल बन सरसों का ,
दुनिया की बात अब क्या करूं ,
खीज रहा गेहूं पड़ा मैदानों में ,
भंडारों की बात मैं कैसे कहूँ ,

नहीं भूख आटे के कनस्तर की मिटती मेरे ,
भोज की बात मैं कैसे करूं ,
पीर बिवाई मैंने सही
उजालों की बाट मैं कैसे निहारूं,
मुस्तकबिल की सोचूं भी कैसे भला ,
मुझे अपने आज का पता तो हों .
तारीकियों का अंजाम क्या ढूँढू ,,
अदना सा आम आदमी हूँ ,,,
मेरी सुध किसी को हों तो सही ..
मुझे फुर्सत खुद की खातिर नहीं ,,
बता ,,,इन्कलाब मैं कैसे करूं.- विजयलक्ष्मी

धरती से धुआँ आकाश तलक पहुंच ही गया .

हर झूठ भी सच बन गया है मिलकर तुमसे ,
चरित्र जी कर भी जलने की चाह रखे हुए थे .- विजयलक्ष्मी



मैं जल गया था अंधेरों से भी रूठकर ,
वो बुझ रहा है मुझे रोशन करने के बाद.- विजयलक्ष्मी



तारीकियों पर लिखे फलसफे जले जब ,
धरती से धुआं आकाश तलक पहुंच ही गया .- विजयलक्ष्मी

Sunday 2 December 2012

समान शिक्षा का राग गुनगुनाती है सरकार



वैश्य की दूकान बनी है विद्या बिकती वैश्या समान ,
नोटों के बदले देखो खरीद ज्ञान को, करते बेडा गर्क ,
 सोच रहे कलदारपति भी कर लिया बहुत बड़ा है काम,
 अक्ल के कच्चों, अक्ल नहीं बिकती कैसे बनेगा स्वर्ग.
   अभी वक्त है समझो ,शिक्षा का बाजार न लगाओ तु
म ,
 कच्ची बुद्धि को बर्बाद क्यूँकर करते हों उसका बेडागर्क. 
     मेहनतकश बननेदो नौनिहालों को न लाचार बनाओ तुम .
   कच्ची नींव पर महल ठहरते नहीं है समझो इसका अर्थ .
  खुद के बालक अंग्रेजी स्कूलमें ,सरकारी का क्या अर्थ?.
   सब पढाकर देखो अपने बच्चों को बिठा टाटपट्टी के संग ,
 हाल बेहाल नित्य देखोगे तभी मालूम होगा अपना दर्द .
 - विजयलक्ष्मी

समान शिक्षा का राग बहुत गुनगुनाती है सरकार ,
मगर लाभकारी स्कीम दिखावे के सिवा कुछ भी नहीं यार.
देने का वादा दोपहर का खाना ,देखो तो चौपाए न खायेंगे ,
गरीब के बालक को मिडडे मील कह कर दिखाते है प्यार .
- विजयलक्ष्मी

नूर नैनों का चेहरे पर बिखर जाये ..

डरते ही रहे होंगे झूठे वादे भी 
न टूट जाये इंतजार ए रोशन शब में ,
न डूब जाये जिंदगी ...इंकार ए गम में ,
वादे भी करें वो भी झूठे ...
हाँ उम्मीद की किरण दीप सी गर जल जाये ..
झूठा किया वादा भी मुकम्मल हों जाये ,
चाँदनी रात तन्हा होकर भी संवर जाये ..
नूर नैनों का चेहरे पर बिखर जाये ..
तो झूठे वादे भी कर जाये .- विजयलक्ष्मी

Saturday 24 November 2012

रूह के अहसास को इतना छोटा न बना ,,,

न जाने वो पाक दामन भी थे कि नहीं ,,
निशानियाँ अक्सर खामोश ही रहा करती हैं .- विजयलक्ष्मी



नजरों से देखूं तेरी खुद को भला कैसे ,,
पलकों ने खुलने पर रूठने का वादा लिया है हमसे . - विजयलक्ष्मी



अहसास ए वफा ही बहुत है रूह की खातिर ,
यूँ जमाने में लोग बहुत मिलते है मंजिल की राहों पे .- विजयलक्ष्मी



रूह के अहसास को इतना छोटा न बना ,,,
खुद से नफरत लगे ,रूह को पाक रहने दे .- विजयलक्ष्मी

बहुत हैं ,जिन्हें हर रोज जलते दिए अखरते हैं ....

हम निगहबानी में हैं जाने किस किस की ,
मेरी दहलीज पे जलते दिए दूर तलक रोशन दिखते हैं .
बैठने दे अंधेरों में ही बिसात ए शतरज न समझ ,,
बहुत है जिन्हें हर रोज जलते दिए अखरते हैं .- विजयलक्ष्मी



रिश्ते कागज के, क्या सच है इनमे खुशबू नहीं ? 
बेख़ौफ़ जी लेने दे मुझे इनको मुरझाने का भी डर नहीं .- विजयलक्ष्मी



वक्त ने जब भी खंजर उठाया मेरी जानिब,,,
और भी करीब से देखा है ए जिंदगी तुझको .- विजयलक्ष्मी



नजरों की जबाँ के सब हर्फ सीखने की कोशिश थी ,
दुनिया ही भूल गए उन नजरों में ऐसी कशिश थी .- विजयलक्ष्मी



मेरी निगाहों से मेरे दिल कि बात मुश्किल में आ न जाना ,,
आम बात है गुलों के बगीचे के बीच सहरा सा मंजर नजर आना .विजयलक्ष्मी



ताज को निशाँ ए मुहब्बत न कहना ,,
जाने कितना लहू बहा है इसे बनाने में ,,
सब दुआएं ही हों मुश्किल कहना है ,,
बद्दुओं का हश्र ए सिला बुरा बुतखाने में .- विजयलक्ष्मी



यूँ आजमाने की कोशिश, माटी का पुतला माटी को देखने की चाह लिए ,
ताज खड़ा है मुर्दा सा दामन में अपने जाने कितनी मुहब्बतों की आह लिए .- विजयलक्ष्मी