Sunday 26 June 2016

" महंगाई महंगाई की चीख पुकार पड़ी है चारो तरफ "

" महंगाई महंगाई की चीख पुकार पड़ी है चारो तरफ ...आलू बीस से पच्चीस हुआ और शोर शुरू ...........चालीस पर तो अफरातफरी मच जाती है ........ टमाटर साठ से अस्सी और सौ रूपये किलो की अफवाह उडी ...मेरे शहर में कल चालीस रूपये किलो ही बिका ..... ..महंगाई का रोना सब्जी दाल आटे तक की सिमित क्यूँ है .........ये बात समझ नहीं आई ......... अरे ब्रांड के कपड़े देखो कितने महंगे है .........जो शर्ट कपड़ा लेकर सिलवाने में चारसौ रूपये की पड़ेगी उसे दौ हजार में खरीदकर ख़ुशी से पहनते है ...और सोचते है स्टेटस बढ़ गया ..... एक घर में तीन गाड़ियाँ होसकती हैं .......सोफा एक लाख रूपये का आ सकता है ............क्रोकरी दस हजार का डिनर सेट आ सकता है ...........साडी पञ्चहजार की पहनेंगे...क्रीम दो दो हजार की इस्तेमाल हो सकती हैं ....... लेकिन आलू दस रूपये किलो ही चाहिए ........उससे ज्यादा कीमत तो सरकार बदल दो ......... उसपर तुर्रा ये किसान क्यूँ मर रहा है ........... फांसी लगाकर ........लगाएगा ही फांसी क्यूंकि तुम लोग ही सब उसके जिम्मेदार इसके लिए ...........बंद करदो ब्रांड की दूकान क्यूँ खरीदते हो .......कोल्डड्रिंक नींबू-पानी पियो न ...किसान को मिले कीमत ....... सरकार के खिलाफ लामबंदी करनी है तो उन के खिलाफत में करो जो जो माल को दबाकर बैठे हैं .......जो किसान को रोटी को तरसा रहे हैं ........ सरकार को कहो किसान से सीधा खरीदे ....और सबलोग उसी दुकान से खरीदे जहाँ से किसान को सीधा लाभ मिलता हो .....अजी क्यूँ लेकिन .........सब्जी भी मॉल से खरीदेंगे ,,,,,,,ठेली वाला तो सब्जी में जहर मिलाता है जैसे .......अरे अछूत जैसा व्यवहार करते हो और गाली सरकार को देते हो ........ कहो सरकार से महंगा खा सकते हैं ...लेकिन शर्त यही ..लाभ बिचौलियों को नहीं किसान को मिले ......... जगाइए अपने जमीर को हिन्दुस्तानी खाने की तरफ लौटिये ......... हफ्तों पहले बने पिज्जा ...महीनों पुरानी तैयार पैक्ड सब्जियां क्यूँ ........ ओह किट्टी जाना है .......अरे तो जाइये न लेकिन बच्चे को कुछ संस्कार भी सिखाइए ......अन्यथा बिगडती पीढ़ी की जिम्मेदारी भी आपकी है और अन्नदाता का भूखे पेट फांसी लगाने में भी हिस्सेदारी है आपकी ........... राष्ट्र जागरण से सरकार को कोसने से पहले अपने गिरेबान में तो झांकिए ........ आप किसे बढ़ावा दे रहे हैं ..........किसानो की जिन्दगी की तरक्की को या दलालों की मुनाफाखोरी को .........आपको ही सोचना है .....क्यूंकि धरतीपुत्र किसान के सुख में ही हमारा-आपका सुख निहित है दलालो के हित में नहीं उसकी तिजोरी भरती रहेगी .......... आप चीखते रहेंगे .......सरकारे बदलते रहेंगे ...... लेकिन सरकार से अपने दिए टैक्स का हिसाब भी लीजिये ......... न हो सब्सिडी में बांटकर हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाये और जिस विकास के नाम पैसा दिया ........ वो समय से पहले जर्जरहोकर नेस्तनाबूत हो जाये ..... सोचिये ....सोचिये ,,,आँखे खोलकर बंदकर के उलटे लटक कर सीचे भटक कर ..........लेकिन सोचिये जरूर ...ये रास्ता भी हमे ही खोजना होगा ||
अंतर्राष्ट्रीय पटल पर खड़ा भारत उसके नागरिको केकारण औंधे मुहं नहीं गिरना चाहिए ...स्वस्थ रहने के लिए दाल के प्रोटीन की आवश्यकता होती है मुनाफाखोर दलालो औ आढ़तिए की नहीं ,, वैसे आप खुद बहुत समझदार हैं
| "-------विजयलक्ष्मी

Thursday 16 June 2016

" अहसास उतरते हैं मन की पगडंडी से "

" अहसास उतरते हैं मन की पगडंडी से
जैसे नदी कोई दौड़ पड़ी हो पर्वत की चोटी से
कुलांचे भरती हुई अनथक ...
अल्हड सी कोई बाला ..
बेबस सी बेसुध जैसे कस्तूरी महक रही हो
कदम है कि ठहरने को तैयार नहीं
गड्ढे मिले ..पत्थर मिले रोकते रास्ते
कही तो पहाड़ ही रख दिए जैसे
लेकिन ...अहसास नद है कि रुकने को तैयार नहीं
यहाँ लाभहानि का व्यापार नहीं
किसी गोदाम के लाचार नहीं
कोई मंत्री-संतरी का इलाका नहीं
वोट का कोई वादा नहीं
कम या कोई ज्यादा नहीं
बस विश्वास है ..
इक सफर का
तन्हा होकर भी तन्हा नहीं
लगती है तपिश याद की जैसे आग जली हो जंगल में
हर इक जीव झुलस रहा हो जैसे
भगदड़ सी मची लगती है
उमस है तपिश है...
और सूरज सा जलता हुआ मन
यहाँ आतताई की जरूरत ही कहाँ हैं
जब अपने ही अपना घर लुटाने पर तुले हो
जिन्हें माँ की ममता में कुटिलता लगती है..भला वो
गंगा की कदर कैसे करेंगे ,,
जिसने औरत को जिस्म मानकर भोग हो ..
उसे क्या जरूरत है सम्मान की
उनके लिए तो ये सौदा है
कुफ्र हुआ करे जिसके लिए है
वृक्ष काटने से मुझे लाभ हैतो मैं तुम्हारा क्यूँ सोचूं भला
मुझे तुम्हारी साँस से क्या लेना भला ..
अच्छा है बंद हो तो सारी हवा पर मेरा कब्जा होगा
हर गली नुक्कड़ कब्जाने के लिए फ़ौज और कब्जा जरूरी है
उसकी क्या कमी है ...
क्यूंकि ...
चाहे भूखे रहो ..चाहे झुग्गी में रहना हो
लेकिन फ़ौज बढनी चाहिए ...
फ़ौज की चिंता तुम मत करो ...सरकार करेगी ..
उसने गरीबी हटाने का संकल्प लिया है..
और हमने...
जनसंख्या बढ़ाने का कृतकल्प ,,
धरती कम पड़नी चाहिए एक बार ,,
फिर..
उसके बाद...
जब सबकुछ अपना होगा ..तब नजर बंद कर देंगे आधे तो
आधे मरे जायेंगे ..आधे बाद में देखे जायेंगे ..
लेकिन ..भूलना नहीं ..
मुझे ..उसी राह पर हूँ..
कुछ ख्वाब जो धर दिए थे तुमने पलकों पर ,,
चीखते हुए सन्नाटे है ..
और दूर तक रस्ते अनजान ,,
मेरे थोड़े से अहसास ..
मेरे जीवन की प्यास बन चुके हैं..
कुछ तो है इस वतन की हवा में ...
फिर सोचती हूँ ...ये गद्दार क्या होते हैं ..
क्यूँ होते हैं ,,
कौन सा कीड़ा है जो दिमाग घुस जाता है ..
जो इंसान इन्सान को मारने काटने पर उतारू हो जाता है ,,,
और मर जाते है अहसास ,,
क्यूँ मर जाते हैं ..लोग ,,जीते जी ,
खींचते हैं चीथड़े हुए मन को लाश बनाकर
आखिर क्यूँ ...?
" ----------- विजयलक्ष्मी

Wednesday 15 June 2016

" वाह रे कलयुग के न्याय ......तेरी भी जय || "

" नसीबों की बात है सब ...वाकई नसीबों की बात है..इसीलिए तो 75बरस बाद दसर कुम्भ हुआ ... झेलम चिनाव गंगा के तट पर .... लाखों होते थे जहां वहाँ हजारों भी न दिखे .... ये कैसी गंगा-जमुनी तहजीब है ..... अमां इतने साल में तो आदमी पैदा होकर खिसक लेता है दुनिया से .... अच्छे-अच्छों को देखा है कूच करते हुए ...कूच करने से याद आया ...कैराना ...कांधला.. आसाम.. बंगाल..पूर्णिया ..मथुरा और अयोध्या ... हाँ भूल गये क्या इतिहास गवाह है..... विदेशी आतंकी आये देश को रौंदा नोचा-खौंचा फिर कब्जा जमाया जजिया लगाया ...पर्दा लागु किया ... जनेऊ उतारे गर्दन उड़ाई ...पूजा-स्थल कब्जाए .... और फिर गंगा-जमुनी तहजीब के गीत गाये ........वाह री तहजीब ...गोधरा याद है किन्तु क्यूँ हुआ गोधरा याद नहीं झूठ की बिना पर सालो से जिन्दा है ... और जिन्दा रहेगा ...भूल गये तो महाराणा को भूल गये दुर्गावती याद नहीं ... विक्रमादित्य तो जैसे गायब हो गया ... अपने घर के द्वार पर हनुमान जी की मूर्ति लगाने पर मुकद्दमा ठोकना पड़ता है ... वरना पुलिस वाले भी कुछ नहीं कर सकते ...... अरे ये कौन सी गंगा-जमुनी तहजीब है... भाई आओ रमजान मनाये इफ्तारी जरूरी हैतो दीवाली के दीपक कैसे पर्यावरण के साथ बदसलूकी करने लगे ... शेर को बचाने में लगे हो कुत्ते बिल्ली चूहे सब प्यारे हैं...... भाई लोगो बकरे और गाय को क्यूँ नहीं बख्शते ... कुर्बानी अपनी दी जाती है ...अपनी कमियों की दी जाती है ..और अपनाया जाताहै समभाव ...... किन्तु टीवी तो कुछ और बोल रहा है ...आज ही देखा ..".मुहं काला "का नया मुहावरा .......... "" झूठ का बोलबोला सच का मुहं काला ""वाह रे कलयुग के न्याय ......तेरी भी जय ||" -------- विजयलक्ष्मी

" आंगन से पर्यावरण ..."



" आंगन से पर्यावरण ...
.
तपती धूप में राहत देता रहा
बचपन झुलाता रहा गोद में
कभी दौडकर चढ़ते 
कभी पत्ते तोड़ते
कभी पकड़ कर मुझे झूलते तुम
तुम अकेले कब होते थे
पूरी चौकड़ी थी
धमाल था ..
एक या दो दिन नहीं
घड़ीभर या घंटे दो घंटे का नहीं
कोई समय ही नहीं था
तुम्हे न दिन सूझता था न सांझ
बस मन मचलना चाहिए ..
कितना लड़ते थे
मेरी एक टहनी पर बैठने के लिए तुम
याद है एक बार तुम गिर भी गये थे ...
फिर भी...कब माने थे तुम..
मेरी घनी छाँव तुम्हे सकूं देती थी न
भरी दोपहरी ..
कितने बेपरवाह थे तुम सूरज से ..
मेरी गोद में बैठकर जैसे चिढ़ा रहे होते थे सूरज को
और ...
कहते रहे होंगे ...ले तप ,,जल कितना जलेगा ..
तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता
तुम्हारी शैतानियाँ ..और मैं
मुस्कराहट आ जाती है आज भी तुम्हारी शरारतों पर
याद है ..जब तुम्हे माँ ने मारा था उस एक दिन भी ..
तुम आये और मुझे पकडकर रोने लगे थे ,,
तब लगा था ...मैं तुम्हारा सबकुछ हूँ..
माँ..पिता ..दोस्त सखा ..
तुम्हारे संग बीता हर पल आज भी आँखों में तैर जाता है ..
मैं झुमने लगता ..
लगता ..जैसे जिन्दगी को ही दुबारा से जी रहा हूँ,,
इस आंगन में बरसों से खड़ा हूँ तुम्हारे बिना ही ..
लेकिन ...कल तुम्हारा आना मुझे मार गया ..
और..मैं सूखने लगा हूँ ..
तभी से ..जब तुमने मेरी कीमत लगाई ..
अब मैं बूढा बेकार लगता हूँ ..
आंगन गंदा करता हूँ..मेरे पत्ते तुम्हे नहीं भांते अब
मेरी हवा भी तुम्हे ठंडी नहीं लगती ..
तुम्हे घर को बड़ा करवाना है..
अपने लिए जिम और अपने बेटे के लिए अलग कमरे की दरकार है
और इसका इलाज तुम्हारे पास है मेरी जिन्दा मौत ..
तुमने मेरे (सूखने) मरने का भी इंतजार न किया ,,
कितने स्वार्थी हो गये हो तुम..
मैंने तुम्हे ताज़ी हवा ..सुनहरा स्वच्छ बचपन दिया और तुमने ..
मुझे जिन्दा मौत..
मैं मर रहा हूँ ...अब ,,
क्यूंकि मैं जिन्दा था तुम्हारी यादों से
तुम्हारे न होने पर भी तुम्हारे साथ से ...
तुम ....कभी नहीं सुधरोगे ..
तुम्हारी माँ तुम्हे कितना कहती थी सहेजने कीआदत डालो
लेकिन तुम ..मुझे न सहेज पाए ...
कैसे सहेजोगे ...
ये पर्यावरण ..ये शुद्ध हवा ,,
ये ..संतुलित बरखा ...
और अपना असंतुलित भविष्य .....??
मैं मर रहा हूँ ...तुम चिंतित नहीं हो .
किन्तु ...मुझे चिंता है आज भी
हरीभरी धरती के बंजर होने की ,,
जलविहीन होने की
आग सा तपने की ..
वो तपिश आने वाले तुम्हारे वंश के लिए कितनी खतरनाक होगी ...
तुम नहीं समझ रहे हो अभी ...
जब तुम्हे समझ आयेगा ..
देख लेना ...उस एक दिन ..
बहुत पछताओगे तुम ...
हाँ ..तुम ...
याद रखना मुझे ...
क्यूंकि तब मैं नहीं रहूँगा ...तुम्हारे पास ....
और आज ....
मेरे आंसू समझने की तुम्हे न फुर्सत है न जरूरत
...|| "------ विजयलक्ष्मी


Friday 10 June 2016

" झूठ बोल रहे...." इन्सान हैं... किन्तु पशुवत ही चरते हैं""

" कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं मानव को मिटाने में,
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए है किसानों को मरवाने में 
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं आदिवासियों को ललचाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं जोरजबर्दस्ती धर्म बदलवाने में 
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं भूखे नंगो को नुचवाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं झूठ को सत्य बनाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं झूठ बोलकर सत्ता हथियाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं औरत को खत्म करवाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं हया शर्म मिटाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं न्यायालय को व्यवसाय बनाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं गरिमा धर्म की मिटाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं झूठे स्वप्न दिखने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं शिक्षा को बिकवाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो तुले हुए हैं धर्मस्थल को कत्लगाह बनाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो भूले इंसानियत पहन वर्दी बैठे थाने में
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जिनके आँखों पर काले पर्दे चढ़े हुए
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो अधर्मी बने हुए
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो स्वार्थवेदी पर चढ़े हुए
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो बेटी को खेत रहे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो मानव को ही रेत रहे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको धर्मग्रंथो को तोल रहे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो खुद को धर्मगुरु बोल रहे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जिनको मानवता याद नहीं
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जिनकी सच्ची फरियाद नहीं
कभीधर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो मन में जहर को घोल रहे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो स्वार्थ की भाषा बोल रहे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो खंजर लेकर डोल रहे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो आतंक के आसन पर बैठे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको खुद खुदा ही बन बैठे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो दौलत पर हैं ऐंठे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जिनके मन खोट भरे
कभी धर्मग्रन्थ पढाओ उनको जो मानवता पर चोट करे ..
जो अहिंसा की गा गाकर हिंसा करते हैं ...
झूठ बोल रहे....." इन्सान हैं... किन्तु पशुवत ही चरते हैं" 
" ----- विजयलक्ष्मी

Tuesday 7 June 2016

" तुम बहुत खुश हो न ये रंग दिखाकर .."

" भोर की महकती अलसुबह... और तुम
बहती सरल सुलभ पवन .....और तुम
गीली मिटटी सी यादें ...और तुम
कांच से मन में बसी तस्वीर .....और तुम
सृजन का सुघड़ होता इंतजार ----- और तुम
समय-हथौड़े का वार ....... और तुम
वो चंदा अमावस का लिए अधियारी रात ....और तुम
चांदनी बिन कुमुदनी उदास .....और तुम
ए जिन्दगी सुन,......
तेरी तमन्ना किसे है ..
बन्दगी किस्मत से मिलती किसे है
प्रथम बरखा का सौंधापन चखा जिसने है
सहरा पर प्रबंध और बाढ़ पर निबन्ध
सडक के दोनों मुहाने
चलते चलते रुकेंगे कहाँ कौन जाने
रुकने वाले ठहरे हैं....
राह के हमराह,, पैर के छाले ,,
हाथ के निवाले ..भूख का दरिया ..
जज्ब जज्बात ..बिलखती आवाज
सयाना कौन है ..
जो शहीद हो गया ..या देश बेच गया
इतिहास की गवाही ..
बिके हुए वकील ..
ताबूत की अंतिम कील
दीवाली के दिए और होली के रंग
देखा है न जिन्दगी को सुखदुख के संग
यही दो भाई है ...
लेकिन रहम की बहन नहीं संग
इसीलिए तलवार पर लहू से लिखते है अहिंसा
सोचकर देखा मरे हुए जिन्दा क्यूँ हैं...
और लिथड रही हैं जिन्दा लाशे चहुँ और
बछड़े के लिए रम्भाती गाय से मिले हो कभी ..जो दादरी में सो गया
पूर्णिया की झूठी गवाही पर जहां तगड़ा सा बबाल हो गया
JNU में उलट घूमते जुनू का बुरा हाल देखा
कुछ श्रम की बात दिल्ली वाले खा गये
कुछ बची खुची केरल में लतिया गये
नासमझ लोग बंगाल में पर्चे बाँट रहे हैं
शांति के पुजारी बंदूक बाँट रहे हैं
उत्तराखंडी सुना है दलित दलित बांच रहे हैं
डूब मरने की किसे पड़ी है ..
स्वार्थ की बेदी पर लक्ष्मीबाई खड़ी है
और प्रताप पर बिठाया अकबर महान है!!
भूले मान राजस्थान का गद्दारी की दिखती शान है
इसीलिए देश बांटने वालों के साथ जा रहेहैं लोग,,,
कुछ नहीं दिखरहा तो औरत को ही खा रहे हैं लोग
बेटे की बीवी को अपनी ब्याहता बना रहे हैं लोग
तुम बहुत खुश हो न ये रंग दिखाकर ..
तस्वीर ए जिन्दगी कैनवास पर सजाकर
कुछ तो समझा करो ..
सितारों भरी रात में शबनमी बरसात मन को बहुत भायी मेरे
||" ------- विजयलक्ष्मी

" वीर सावरकर को नमन ... अर्पित हैं श्रद्धा सुमन ||"

वीर सावरकर को नमन ... अर्पित हैं श्रद्धा सुमन ||
" जब जब लिखूं सत्य,, झूठ के कान खड़े होते हैं ,,

शहादत से कैसे कब कोई हैवान बड़े होते हैं
जो सत्ता को पाकर भी उपयोगित को उपभोग करे

बहुत कुछ करने भी याद रखना गैरों के पाँव खड़े होते हैं ||
किया देश की खातिर तो अहसान नहीं किया ..
तप उनका ही बड़ा रहेगा जिन्होंने निस्स्वार्थ बलिदान दिया
कितना भी मिलाये मिटटी में नाम शहीदों का हुक्मरान
जीते हैं रग-रग में लहू में जन-जन की नजर में तस्वीर जड़े होते हैं
सवाल जवाब सत्ता के गलियारों की शोभा पाते रहेंगे ...
देश पर मरमिटने वाले तो राष्ट्रियचमन में सूरज से जड़े होते हैं
||
"----- विजयलक्ष्मी

जयहिंद !! जय राष्ट्र के पुजारी !!

" स्वार्थ में खुद को गद्दार किये है"

चाहत वफा की दरकार किये है ,,
नावाकिफी से भी प्यार किये है ||

समय-धार पर एतबार किये है
इश्क ही क्यूँकर लाचार किये है ||

आग का दरिया व्यापार किये है
जल बना लहू को शर्मसार किये है ||

जिन्दगी खामोश मजार किये है
झूठ पर खुद को निसार किये है ||

ख़ुशी कब्र सी गमखार किये है
तिश्नगी में जीना दुश्वार किये है ||

स्वार्थ में खुद को गद्दार किये है
मुलम्मा चढ़ा यूँ मक्कार किये है ||

नाम रहनुमा भी दागदार किये है
डोलता इमां है ...बेजार किये है || ---- विजयलक्ष्मी

Monday 6 June 2016

" जाने कहाँ गुम हो जाती हैं बेटियां .."



जाने कहाँ गुम हो जाती  हैं बेटियां ..
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बेटियां ....टॉपर बेटी हो तो पिता का सीना गर्व से फूला नहीं समाता ,,,परीक्षाफल देखकर सबके बीच में बोलता है ये है मेरी बेटी .....डॉक्टर बनेगी ,इंजीनियर बनेगी ,,नहीं मेरी बेटी अध्यापिका बनेगी ...शिक्षित होकर शिक्षा बांटेगी समाज में ,सामाजिक कल्याण का काम करेगी ,,साल दर साल यही बातें चलती आ रही है और ......शायद यूँही दोहराई जाती भी रहेंगी ,,,सिर्फ कुछ दिन ..आकडे देखे तो रिजल्ट बहुत अच्छे और काम सबसे कम ...
जाने कहाँ खो जाती है ये बेटियां ...कौन सी दुनिया निगल जाती है इन्हें ....और उनके सपने समाज की देहलीज पर दम तोड़ देते हैं और ... गुम हो जाती हैं ये टॉपर बेटियां ? कहां दफन हो जाते हैं उनके सपने ? , विभिन्न सामाजिक कारण .........धन की कमी लड़कियों के हिस्से ही आती है ..अभिशाप बन जाता है उनका लडकी होना |
वाह रे समाज
सपने भी उन्ही के छीनता है
और
गलती भी उन्ही की ...
ताकत थी जो कभी घर की
कब कमजोरी भी बन गयी ?
जिनकी एक मुस्कुराहट सभी के चेहरे खिला देती थी
उम्र के साथ
वही हंसी चुभने लगती है
आँखों में पिता की
....क्यूँ आखिर ?

जबकि किसी तरह पास कर गए बेटों को भी हमारा समाज किसी न किसी तरह उच्च शिक्षा में दाखिला दिलवा ही देता है। जबकि बेटियों को किसी तरह विदा कर देने की जिम्मेवारी समझने वाला समाज उसे साधारण शिक्षा दिलाकर उन्हें ब्याहकर ‘मुक्ति’ पा लेता है।और जिन्दगी बस यूँही..
गर्म रोटी
पालक ,सरसोंकेपत्ते बिनती
माँ का हाथ बंटाती
कब गोबर संग लीप गयी ?
सपने अपने
मालूम नहीं कितनी
डॉ ,इंजीनियर, वैज्ञानिक
घूँघट काढ़े रगड़ रही हैं बर्तन
गन्ने की पोरी सा
छीलो मत दर्द को
रिसकर
टपकने लगेगा आँख से
आवारा होकर ..
.

हां कई बेटियां आगे मनमुताबिक पढ़ पाती हैं। लेकिन उनमें से भी अधिकतर आगे चलकर घर-परिवार की जिम्मेदारियों (चूल्हे चौके ) में ही बांध दी जाती हैं/ बंधने को विवश कर दी जाती हैं। और इस तरह देश की जनगणना में कामकाजी महिलाओं वाले खाने में रहने की बजाये उनकी गिनती ही कहीं नहीं रह जाती है।
आखिर लडकियों की चाहतें हकीकत क्यों नहीं बन पातीं ? क्यों नहीं मिल पाता इनके सपनों को उड़ान के लिए आसमान ? सवाल सिर्फ एक है, वजहें कई-कई। और इनके जबाव न सिर्फ हमें तलाशने होंगे, बेटियों को जबाव देना भी होगा।
वही टॉपर बेटियाँ बन जाती है समाज पर बोझ !!.......आखिर क्यू...?
क्या है किसी के पास कोई जवाब ...यदि हाँ ...तो दीजिये न........
.||.- विजयलक्ष्मी