Thursday 30 October 2014

" ................. अन्यथा अकविता समझ लेना .."

" कविता भूखे किसान का क्रन्दन भी है 
कविता माँ भारती का वन्दन भी है 
कविता देश-प्रेम का चन्दन भी है 
कविता आगत का अभिनन्दन भी है 
कविता जिन्दगी और मृत्यु का अटूट बंधन भी है 
कविता यदि नैसर्गिक है तो कविता है अन्यथा अकविता समझ लेना
जिसमे अहसास शब्दकोश से उतारे जाते है
बड़े बड़े भारी भारी शब्द उकेरे जाते है
जिन्हें साहित्य के शिखर की तमन्ना है वही लिख पाते हैं
हम जैसे तो साँस के साथ गुनगुनाते हुए जीवन को भी नहीं कह पाते है
माँ की आँखों में ममता तो होती है डर भी होता है
माँ पत्थर सी दिखती जरूर है उसमे एक दिल भी होता है
वो माँ भारती हो या बच्चे की माँ ...
उसका हर गुजरता लम्हा कविता होता है
जब वो बिक जाती है बच्चे के दूध की खातिर
या मार डालती है बिटिया की इज्जत की खातिर
कविता तो जिन्दगी है जिन्दगी के साथ बहती है
कविता न निरपेक्ष न सापेक्ष बस कविता ही रहती है
"---- विजयलक्ष्मी 

Tuesday 28 October 2014

" ममता देखे बावरी न चादर न सोढ "

" एक तरफ भूखे बिलख बच्चे सोते गगन को ओढ़ 
तीन दिन में फिल्म पर मिलते इक सौ आठ करोड़,

इक आँख में नींद नहीं .. बेघर बैठे हैं पैर सिकोड़ 
कुछ नींद खाए बीमारी घर की कीमत साठ करोड़

बेसुध सोये पड़े ममता देखे बावरी न चादर न सोढ
भूख नींद लालच में दबे दौलत जिनपे लाख करोड़ " --- विजयलक्ष्मी 

Sunday 26 October 2014

"बहुत प्यास है समन्दर की देखो "

ए जिंदगी चल वक्त हों चला ,
डूबती उतरती है कश्ती नदी में ||

बहता है जो बीच धारा सा बनके ,
लहरों का उठना गिरना नदी में||


बहुत प्यास है समन्दर की देखो,
यादों का झरना मिलता नदी में ||

खिलते गुलों सा तसव्वुर को देखा ,
कमल भी देखा खिलता नदी में ||

बचकर भला कैसे पार हम उतरते,
पतवार छूटी, ख्वाब बहता नदी में|| .....विजयलक्ष्मी 

" मुर्दा शब्दों को जिन्दा बस्ती नहीं मिला करती "

" कुछ वृक्षों पर कभी ओस नहीं गिरा करती ,
कुछ वृक्षों की डाली कभी नहीं फूला करती ||


कुछ कंटक चुभा करते है कदम कदम 
कुछ जख्मों पर पपड़ी नहीं जमा करती ||


कुछ बिखरी पड़ी टूट शाख से इधर उधर
पत्ती पीली होकर गिरी,, नहीं जुडा करती ||


धारा बह निकली थी पहाड़ो से वक्त और था
बहती धारा ..तालाब पर नहीं रुका करती ||


हूँ अदना सी बूँद, वजूद नहीं कुछ भी मेरा
टूट गिरी इक बार नजर से नहीं उठा करती ||


न महक है न रंग.. बेरंग स्याही कलम की
मुर्दा शब्दों को जिन्दा बस्ती नहीं मिला करती |
| "--------- विजयलक्ष्मी 

Friday 24 October 2014

" गजल शब्दों का मकां होता तो शब्दकोश कम कैसे "

" वो कोई और होंगे चेहरे पे गजल कहने वाले ,
उजला मन चांदनी छलकी तब गजल बनती है

दौलत की दुनिया में सुना है बिकती हैं गजले
रंज की महफिल गरीबों की भूख गजल बनती है

लबों की लाली पर गजल को न कहना मुझको
लहू बिखरता सरहद पे हौसले की गजल बनती है

बरसती बरसात पर लिखी गजले गजलकारो ने
सहमी वो लडकी दुनियावी निगाहों से गजल लगती है

गजल शब्दों का मकां होता तो शब्दकोश कम कैसे
भीगते हैं अहसास जब दिल के गजल बनती है
"--- विजयलक्ष्मी 

Wednesday 22 October 2014

"आपको भी दीपावली की ढेर सी शुभ एवं मंगलकामना "



सुर संगीत से सजी दीपावली 
स्नेहरस में पगी दीपावली 
खुशियों से भीगी दीपावली 
रीतो में ढलकी दीपावली
अपनेपन से छलकी दीपावली 
मलय सी बहकी दीपावली 
चिरैया सी चहकी दीपावली 
पुष्पित शाख सी महकी दीपावली 
पलको में निखरती दीपावली 
ह्रदय आगार में उतरती दीपावली 
इन्द्रधनुष से रंगती दीपावली 
तारो संग अम्बर में टकती दीपावली "

--- विजयलक्ष्मी 



"दीप तो दुनिया जलाती है ,जलती रहेगी ,
इन्ही दीपो से क्यूँ न मशाल जलाई जाये 
सत्य की रौशनी बिखरे कदम कदम पर 
झूठ की लाश हर आंगन से उठाई जाए 
बहुत गंदी सी तस्वीर जिसपर धुल जमी 

स्वच्छ भारत की नई तस्वीर बनाई जाये
"
------विजयलक्ष्मी 




दीप जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं ---
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".
राम भक्तों के अनुसार दीवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी मे आज भी लोग यह पर्व मनाते है।
कृष्ण भक्तिधारा के लोगों का मत है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था।इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और प्रसन्नता से भरे लोगों ने घी के दीए जलाए। 

एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था[5] तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए। 

जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही है।

सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में १५७७ में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था।और इसके अलावा १६१९ में दीवाली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था।

नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है।


पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली |
 महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की।
 दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने ४० गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।"

"दीपावली शुभ और मंगलमय !!"

" दीपक और बाती वाले से
 न चिक चिक न खिटखिट ..
और तुम ....
रौशनी जैसे भी करो ...
मगर ..याद है न ..
पूजा तो माटी के दीप से ही होती है
उसका दिल दुख तो ..
पूजा व्यर्थ ..
मेहनताना तो पूरा दो
वो प्रभु और तुम्हारे बीच तारतम्य स्थापित करता है
उसके आंसूं निकले तो ..
मुस्कान नहीं आंसू ...हिस्सेदार होंगे
याद रखना ..
पूजा .
.माटी के दीप
और ...
मुस्कान...मतलब
"आपको भी दीपावली की ढेर सी शुभ एवं मंगलकामना " "
 ---- विजयलक्ष्मी


"अफ़सोस ,,, मुझे नहीं बुझाने वाले को हो तो ...क्या बात हो "

"
दीप को बुझना ही होगा किसी तौर भी ,
काश बुझते समय मुस्कुराहट बड़ी हो और भी 
अफ़सोस मुझे नहीं बुझाने वाले को हो तो क्या बात हो ,
बुझना मतलब रोशन होगा जहां ,
दीप की जरूरत न रहेगी बकाया 
खुद सूरज बन चमकने लगोगे ...या
दीप बन खुद ही जलने लगोगे
या खो जायेगा अँधेरा
जब हो जायेगा जिन्दगी का अनवरत सवेरा
मेरा क्या ....यूँभी मुर्दे खामोश होते हैं जुबाँ नहीं होती उनके ..
संज्ञान तो लिया होगा ..
खामोश सी ख़ामोशी सहमकर खामोश ही है
तुम तो जानते ही हो ...
चिरैया चहकी ..
देखा गिद्ध ने..
संधाना सिद्ध ने,
खाल उतारी प्रसिद्द ने,
क्यूंकि उसकी आवाज चुभती थी कर्णप्रिय नहीं थी ,
विरोध ..अनुरोध ..या महज विनोद ..
शब्द शब्द ..प्रारब्ध ...समय से आबद्ध ,
डूबा आकंठ ,बन बैठा नीलकंठ
विषपान तो कर लिया ..अब आगे क्या
दीप को बुझना ही होगा किसी तौर भी ,
काश बुझते समय मुस्कुराहट बड़ी हो और भी
अफ़सोस ,,,
मुझे नहीं बुझाने वाले को हो तो ...क्या बात हो "! ---- विजयलक्ष्मी
 



Tuesday 21 October 2014

"दीपावली शुभ और मंगलमय !!"

दीपक और बाती वाले से न चिक चिक न खिटखिट ..
और तुम ....
रौशनी जैसे भी करो ...
मगर ..याद है न ..
पूजा तो माटी के दीप से ही होती है
उसका दिल दुख तो ..
पूजा व्यर्थ ..
मेहनताना तो पूरा दो
वो प्रभु और तुम्हारे बीच तारतम्य स्थापित करता है
उसके आंसूं निकले तो ..
मुस्कान नहीं आंसू ...हिस्सेदार होंगे
याद रखना ..
पूजा .
.माटी के दीप
और ...
मुस्कान...मतलब
दीपावली शुभ और मंगलमय !! ---- विजयलक्ष्मी

Friday 17 October 2014

" चेतो ए मानुष !"

मेरे जख्मों पर 
समय धार पर बैठी प्रकृति 
रखना चाहती है मरहम 

लेकिन मैं मानुष 
कर बर्बाद उसी को जड़ से 
देता जाता हूँ कितने गम 



ताल तलैया नदिया सागर 
जीवन देते हमे उम्रभर 
करते दूषित उनको ही हम 

काट काट कर वृक्ष 
नग्न धरा कर डाली 
फिर रोते फिरते धरती हुई गरम

पहाड़ काट समतल धरती 
कैसे सुरक्षित हो सकता है 
वृक्ष विहीन जीवन 

सारी धरती लगेगी सहरा 
नागफनी का झाड उगेगा 
मिट जायेंगे उपवन 

चेतो ए मानुष !
चंदा सूरज तारे अम्बर सब होंगे 
बस नहीं बचेगा मानुष जीवन !

------ विजयलक्ष्मी 

" भीगते रहे हम यूँही..जज्बात से "

" दर औ दीवार भीगे बरसात से
भीगा करे हम..बीती कई रात से

सूरज उग आया शहर में लेकिन
तरबतर हूँ मैं ..उसकी बात से

वो बादल तो खो गये कहीं
बहुत सख्त-जान हूँ.. जज्बात से

हैराँ है लोग दुश्मनाई करतब से
गरीब कब मरता है गुरबती ताप से

भूख मरती नहीं जिन्दा रखती है
खंजर चलता है.. जज्बात से

ये बरसात यूँही बरसे खुदारा
भीगते रहे हम यूँही..जज्बात से "
 --- विजयलक्ष्मी 
अब हवा बन उड़ गया गम ...नजरों से दीदार हुआ जब |
तुमबिन दर्द भी बरसा बादलों सा तेरा इंतजार हुआ जब ||

तुमको कितना अपना कह दूँ मुश्किल इजहार हुआ अब |
तुम बिन इन सांसों का आना, जीना ही बेकार हुआ अब ||

मतलब क्या समझाऊँ तुमको ,पल पल बेकरार हुआ जब |
नयनों को दर्पण कर बैठे हम ,नजरों से इजहार हुआ जब ||

जख्म करीने से बैठे थे मन के आँगन में सत्कार हुआ जब |
झूल गया मन सागर बन, ख्वाब रुपैहला पतवार हुआ जब ||

चटक चाँदनी बिखरी अंगना ,खुद अपना संसार हुआ जब |
नाच उठा मन मयूर, पतझड बिछड़ा जीवन बहार हुआ जब ||....विजयलक्ष्मी 

" मर जाऊं पर ख्वाब हकीकत कब होगा मेरा ...?"

" हमने कब सापेक्ष समाजों की कविता लिखी नहीं ,
तुमने लगता है बात अभी समझी नहीं ,
हर शब्द वाबस्ता हों ये तो जरूरी भी नहीं ,
बोला था अहसास कलम को नहीं छूते मेरे ,
कत्ल हुयी सहर का सूरज आ पहुंचा घर मेरे ,
मुझसे ही मरहम माँगा है उसने ..जो जला हुआ है भीतर से ,
क्या दवा क्या दारू ,क्या अस्पताल क्या शिक्षालय ,
सबकी मजहबी चाल पुरानी है ....
जिसके भीतर झांक रहे हों हर हवेली बिलकुल वीरानी है ,
न जज्ब हुए जज्बे मरते हैं ,न जवानी आज देश की दीवानी है ,
मेरे हाथों में कलम तलवार बन गयी गर उसे देखकर क्यूँ नीर बहते हों ,
तुम अपने घ्ब्दों से सोचो कितनो को घायल कर जाते हों ,
आबादी का रोना रोते रोते ...युग बीत गए धरती पर ...
कर कन्या भूर्ण हत्या इतिश्री हुयी इसी धरती पर ,
ये जज्बा जाने कब होगा पूरा ,,,
मर जाऊं पर ख्वाब हकीकत कब होगा मेरा ...
फिर परचम लहरा जाये मेरे भारत का ...
करे आराम ,थके थके से सूरज को भी वक्त तो चाहिए
फिर चलना है नया सफर है ...
अभी पड़ाव बहुत है और मंजिल दूर खड़ी है ....
वक्त की बेबाकियाँ ही हर मोड पर खड़ी है ..
जला है वक्त कितना और जलना है ...
जिंदगी बस अब आगे सफर पर भी चलना है ,
बता इजाजत मिलेगी किस छोर पर ...
है कुछ यहाँ भी ...जो चले जाते यूँ बिन खबर के छोड़ कर" ..
.विजयलक्ष्मी 

Wednesday 15 October 2014

" फिरभी पहुंच अपनी दिल ए नादान पर है आजकल "

" मेरे पैर जमी पर ही रहे तो अच्छा है ,
ख्वाब ऊँची उडान पर है आजकल 
चूल्हे की आग बस्तियों में जा पंहुची 
सामाजिकता ढलान पर है आजकल 
आसमां से भी नजर मिला तो लूं मैं 
बजता राग आसमान पर है आजकल
इबारत की इमारत पर गुल टांकने हैं मुझे
महकती खुशबू मेहरबाँ उजड़े से मकान पर है आजकल
कुछ फूल उगाये थे माटी के गमले में हमने
जब से महके हैं वसंत के गुमान में हैं आजकल
यूंतो रिश्वतखोरी से सख्त नाराजगी है उन्हें
फिरभी पहुंच अपनी दिल ए नादान पर है आजकल
"----- विजयलक्ष्मी

'लो इक रक्तिम सा उनवान तुम्हारा हुआ "

" वो कातिल सी पदचाप 
आहत होती सी आहट
ये कौन है 
छिपकर बैठ गया 
मुझमे 
जैसे सुबह से घबराकर 
अँधेरे ने 
चटकनी बंद कर ली हो 
क्या तुम बता सकते हो 
मुझे ..मेरी ही आवाज नही सुनती 
फिर 
छटपटाकर रह जाती हूँ 
क्या तुमने सुनी ..?
धडकनों में धडकती रागिनी 
लहू के संग 
उसी में रंग 
बह उठी है जो 
'लो इक रक्तिम सा उनवान 
तुम्हारा हुआ "
सूर्य रश्मि सा  
कल किसने देखी है 
मगर फिर भी 
आस का दीप 
जलता रहता है 
"अखंड ज्योत सा ""--- विजयलक्ष्मी 

" अनुवाद भाषा का या आशा का "

सन्नाटा कयामत बनकर गहर जाए 
जिन्दगी की हर आहत सी आहट संवर जाये 
कुछ शिलालेख उभरते है धडकन की तर्ज बनकर 
जीवन संस्कृति महकती है उसी क्षण 
खुशबू से महक कदम बहकते क्यूँ है 
मेरे होश बेहोश होते क्यूँ है
स्वर उठते है क्यूँ गहरा के तुम्हारे मेरे परित:
कौन सा सेतु है जो टूटकर भी टूटा
कोई किनारा दुसरे छोर जुदा सा रहता है कही
बह उठती है नदी लहरों पर ख्वाब सम्भाले हुए
बस व्ही इक अहसास चांदनी लिए फिरती है रातो को
चाँद बदली में छिप गया ..और मैं तन्हा अकेले
निद्रा के डेरे घेरे हुए कुछ अनुनाद करती होगी
सुन पाओ तो बताना मुझको
अनुवाद भाषा का या आशा का .. यादों का ह्रदय में उगते सम्वादों का
वही राह ..वहीं चौखट वहीं नजर दरवाजे पर टिकी
------ विजयलक्ष्मी 

" मगर जड़े पैठी गहरे हैं "

वक्त इतना बदल गया ,
मगर हम वहीं ठहरे है 
यूंतो लहू नहीं गिरा 
मगर रंग बहुत गहरे है
कच्ची ठहरी छान 
मगर धरती से रिश्ते गहरे है
पत्थर ही रहू अच्छा है
मगर घाव मिलते गहरे हैं
चाहत तो खरीदी न गयी
मगर नफरत के साथ ठहरे है
चुभता हूँ तीखा हूँ दर्दीला सा
मगर सदियों से ठहरे हैं
गमले बहुत होंगे आंगन में
मगर जड़े पैठी गहरे हैं
मोहताज हूँ भी नहीं भी
मगर पैरो के जख्म गहरे है
-- विजयलक्ष्मी 

" शिफत होती गर हुनरमंदी की करीने से दिखती "




" ताजमहल तुम्हे देता होगा पैगाम ए मुहब्बत 
मुझे तो कब्र ही नजर आती है इंसानियत की ||


आसमान में अटकी हुई दो रोटियां लुभाती है 
देखली किस्मत से किस्सागोई रूमानियत की ||


उडती पतंग मुस्कुराहट लाती है चेहरों पर सदा 
उलझ अटकी फटी रंगत डोर मशरूफियत की ||


दर्द ए निगार निगाह बख्शी ख्वाब ओ अलम यूँ 
मचे शोर दैर ओ हरम देहलीज महरुमियत(1) की ||


शिफत होती गर हुनरमंदी की करीने से दिखती 
फजल ठहरा तौर ए राह ख्वाब ए रूहानियत की ||" 

 ----- विजयलक्ष्मी 
(1) ----> . the tiniest chance, its only purpose is to glorify the meaning of human existence.



Tuesday 14 October 2014

" ....... डूब जाते हैं "

" वो कोई और ही होंगे जो तिरकर निकल जाते है ,
हम तो हर लहर के साथ और भी गहरे डूब जाते है ||

चुप्पी हो तुम्हारी आवाज हो या साथ हो खुदारा
न पार हुए न किनारा ही मिला मझधार डूब जाते है||

खो चुकी हूँ यूंतो ढूँढने की तमन्ना भी क्या करूं
यादो का समन्दर है यहाँ तन्हा अकेले में डूब जाते है||

शिकवा ठहरा तन्हाई में उनको तो अकेलेपन का
तुम ठहरे तन्हा हम तन्हा तुम्हारी तन्हाई में डूब जाते हैं||

मैं बियाँबा भी हूँ जंगल भी हूँ तराना हूँ रहनुमाई का
बजते सितार से दिल की तार पे उन सुरों में डूब जाते हैं||
" --- विजयलक्ष्मी

Sunday 12 October 2014

" मैं इच्छाओ पर मर्यादा का ताला लगाती हूँ .."

" मेरे भीतर भी कोमल सा दिल था ,
जिसे फूलपर ओस भी सिहरा देती थी 
चटकती कलियाँ अंगड़ाई लेने को मजबूर करती थी 
भ्रमर की गुंजार इन्द्रधनुष संवार देती थी 
बच्चे सी अद्भुत मुस्कान थी 
जज्बात बहते थे नदी बनकर मीठे जल जैसे
उड़ान के हौसले थे नीलगगन से भी उपर उठने के सूरज को छूने के
एक आस थी उम्मीद थी मेरे अपने वजूद की
लेकिन उस दिन जब पैदा हुई ,,ओह लडकी ..सुनकर दम ठहर गया था मेरा
कदम बढाया तो कितनी जल्दी है इसे ..सुनकर रुकने लगी
स्कूल गयी तो ..ज्यादा मेलजोल अच्छा नहीं सुनाकर सिमट गयी खुद में
वय हुयी तो नजरे टेढ़ी थी सभी की..मैं उलझ गयी खुद में
पिता ने विवाह की बात चलाई ..खूबसूरत नहीं थी काली किसी को पसंद नहीं आई
दहेज का सामान मेरे गुणों को बढ़ा रहा था
रसातल की नार को शिखर पर बिठा रहा था
दहेज की गाड़ी मुझे आँखों का काजल बना रही थी
नोटों की गड्डी मेरी ख़ूबसूरती को चार चाँद लगा रही थी
क्रमश: मैं भीतर भीतर कठोर होती हुई पत्थर बन गयी
ये पत्थर होना भी रास नहीं आया मेरा
मेरे दिल पर इल्जाम थे सुरत जैसा ही दिल है मेरा और सीरत भी
जैसी काली थी वैसे ही काला जादू भी जानती हूँ
किसी ने कहा तिल की स्याही खुदा की गलती से गिर गयी चेहरे पर
इक मैं अकेली नार ...उसपर खड़े होते हजार सवाल
तिस पर उपहार में उपहास
और मैं मैं धीरे धीरे ..भीतर बाहर पत्थर हो गयी एक दिन
दिल भी धडकना भूलने लगा
और मुझे नवाजा गया पत्थर दिल के नाम से
कोयल की तारीफ़ हुई दिल खोलकर
कौए को पूजा गया पित्र मानकर
कुत्ता वफादार सबसे बड़ा
शेर दिलदार उस से भी बड़ा
सब तकदीर वाले थे जहां में
एक मैं अकेली ..जिसे हर कदम टोका गया
बंधकर जंजीर मर्यादा की मेरे हौसले को रोका गया
मेरे भीतर भी कोमल सा दिल था ,
जिसे फूलपर ओस भी सिहरा देती थी
चटकती कलियाँ अंगड़ाई लेने को मजबूर करती थी
भ्रमर की गुंजार इन्द्रधनुष संवार देती थी
बच्चे सी अद्भुत मुस्कान थी
आज मैं मर्यादित हूँ ..सब खुश हैं मेरी चुप्पी से
मैं इच्छाओ पर मर्यादा का ताला लगाती हूँ
तहजीब को बाँहों में भर लेती हूँ
नमी को पलको पर टोक देती हूँ
कदमों की बढने से रोक लेती हूँ
वाह री दुनिया ...वाह री दुनिया वाले
तेरे करतब सबसे निराले
" --- विजयलक्ष्मी 

Wednesday 8 October 2014

" उठो ,चलो कर्म पूजा करो "

" ख्वाब बंद कर लिए है पलको में ,
शब्दों की तलवार चलाओ उनपर 
गुनहगारी की सजा कोई होगी जरूर 
न्याय की गुहार लगवाओ उनपर
उठाओ गांडीव ...हे पार्थ !बढ़ चलो 
सिद्ध होवो गिद्ध की आँख है तुमपर
एक और महाभारत रच डालो
कोई द्रोपदी को छेड़े ,मरण कर डालो
दुश्मन को चेतावनी दो ,न सुने गर
सन्धानो बाण सटीकता से उनपर
चिंगारी उठे तो लक्ष्मीबाई सा युद्ध हो
देश जुड़े तो पटेल सा सिद्ध हो
देशवाद पनपे दिलों में भगत सा
आजाद सा भरोसा आजादी का
सुभाष सी फौलादी विश्वसनीयता लिए
अब्दुल हमीद बनने की तमन्ना
बचपन का वो चिमटा खरीदना माँ की खातिर
मिटाना होगा जड़ से ही वो शातिर
जो जमा है देश को उजड़ने की खातिर
आजादी का सही अर्थ जड़ता लिए है आज भी
विकास की राह मद्धम पड़ी है आज भी
उठो ,चलो कर्म पूजा करो
" --- विजयलक्ष्मी

" वाल्मीकि जयंती पर विशेष .."




वाल्मीकि जयंती पर उठते कुछ सवाल ||
क्या कभी इनका उत्तर मिलेगा या ..अनुत्तरित ही रहेंगे हमेशा ...राष्ट्रवाद का छायादार वृक्ष बड़ा होना चाहता है किन्तु ..कैसे ..सवाल देखने में छोटा सा है किन्तु बहुत बड़ा अर्थ छिपाए है खुद में मर्यादा पुरुषोत्तम के बच्चो को बचपन की सीख देने वाले सीता माता को राम के द्वारा त्याग दिए जाने पर पालनपोषण करने वाले  संत क्या सिर्फ एक दिन याद करना... उस समाज के प्रति आधुनिक समाजिक सोच कृतघ्नता नहीं लगती किसी को ..राम पूजित सीता पूजनीय संत और संत के अनुयायी अस्पर्श्य उससे बढकर ...कोई सुध भी नहीं लेना चाहता ..आखिर क्यूँ ?क्या रामायण का सृजन झूठ है या अछूता है समाज में ......रामचरित मानस कोई नहीं कहता सभी रामायण कहते हैं ...किसी ग्रन्थ के नाम में अथाह ज्ञान हो और अनुयायी उतने ही अज्ञानी ...कैसा अजीब सा बेतार का तारतम्य है |
..सोचकर देखना कभी फुर्सत के पलो में वाल्मीकि जयंती ..संत की तरह पूजा किन्तु ...इसी संत के अनुयायी आज भी निचले तबके के सबसे नीचले पायदान पर कहूं ..नहीं जमीं के भीतर ही खड़े हैं ...जिनके कन्धो पर स्वच्छता अभियान की नींव रखी है ..जो धर्म के निम्नतम स्तर पर खड़े होकर भी धर्म से विमुख नहीं है ..लेकिन उनकी और देखने वाला कोई नहीं है ......आरक्षण में भी निम्नतम पायदान ...यद्यपि कभी कभी लगता है ये स्वयम भी दोषी है लेकिन ....अशिक्षा ..पिछड़ापन ..अज्ञानता ...के कारण .. कुछ सोयी हुई सरकारे ..स्वार्थी राजनीती और हमारा समाज सभी दोषी है कही न कहीं ...एक छुट्टी.. और कर्तव्य की इतिश्री ...इनके कारण ही सभी धर्म के लोग देश में रहते हैं ..क्यूंकि इन्होने कभी अपने को आज तक कर्तव्य विमुख नहीं किया ...बिना भेदभाव के नित्यकर्म शील रहते हैं ...मुस्लिम इसाई जैन बुद्ध सभी धर्म या सम्प्रदाय आरक्षित श्रेणी में इनसे अधिक लाभ प्राप्त करते है फिर भी चीखते हैं ..इन्हें शिक्षित करने का भी कोई उचित साधन अभी तक इनके  पास भी नहीं पहुंचा सबको स्वच्छ रखने वाले ये लोग ..स्वयम उसी  कीचड़ गंदगी अस्वच्छ वातावरण में रहने को मजबूर है .......क्या कोई इनकी सुध लेगा कभी या बस आरक्षण के गीत अन्य तराने ही गाते रहेंगे ...मजबूर और मजबूर होंगे ,,
जिए जगत को देकर ज्ञान ,
करते जिनपर सब अभिमान
वाल्मीकि संस्कार के रक्षक
अविदित है आज भी ..कराकर मर्यादा का भान
--- विजयलक्ष्मी 

शरद पूर्णिमा 2016 कुछ जाना कुछ अनजाना ----
आश्चिन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा शरद पूर्णिमा के रुप में मनाई जाती है|
शरद पूर्णिमा की रात को सबसे उज्जवल चांदनी छिटकती है। चांद की रोशनी में सारा आसमान धुला नज़र आता है। ऐसा लगता है मनो बरसात के बाद प्रकृति साफ और मनोहर हो गयी है। माना जाता है कि इसी धवल चांदनी में मां लक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण के लिए आती हैं। शास्त्रों के अनुसार इसी दिन माता लक्ष्मी और महर्षि वाल्मीकि का जन्म हुआ था | भगवान शिव और माता पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय का जन्म भी इसी दिन हुआ था | शास्त्रों के अनुसार शरद पूर्णिमा की मध्य रात्रि के बाद मां लक्ष्मी अपने वाहन उल्लू पर बैठकर धरती के मनोहर दृश्य का आनंद लेती हैं। इस दिन श्रीसूक्त, लक्ष्मीस्तोत्र का पाठ करके हवन करना चाहिए. इस विधि से कोजागर व्रत करने से माता लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं तथा धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठा आदि सभी सुख प्रदान करती हैं | शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं; हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। इसी को कौमुदी पूजा और व्रत भी कहते है। ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दी धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।
साथ ही माता यह भी देखती हैं कि कौन भक्त रात में जागकर उनकी भक्ति कर रहा है। इसलिए शरद पूर्णिमा की रात को कोजागरा भी कहा जाता है। कोजागरा का शाब्दिक अर्थ है कौन जाग रहा है। मान्यता है कि जो इस रात में जगकर मां लक्ष्मी की उपासना करते हैं मां लक्ष्मी की उन पर कृपा होती है। शरद पूर्णिमा के विषय में ज्योतिषीय मत है कि जो इस रात जगकर लक्ष्मी की उपासना करता है उनकी कुण्डली में धन योग नहीं भी होने पर माता उन्हें धन-धान्य से संपन्न कर देती हैं।
🌹शरद पूर्णिमा का महत्व —
ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी का जन्म शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसलिए देश के कई हिस्सों में शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। शरद पूर्णिमा से जुड़ी एक मान्यता यह भी है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ तब मां लक्ष्मी राधा रूप में अवतरित हुई। भगवान श्री कृष्ण और राधा की अद्भुत रासलीला का आरंभ भी शरद पूर्णिमा के दिन माना जाता है।
शैव भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है। मान्यता है कि भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार कार्तिकेय का जन्म भी शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसी कारण से इसे कुमार पूर्णिमा भी कहा जाता है। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में इस दिन कुमारी कन्याएं प्रातः स्नान करके सूर्य और चन्द्रमा की पूजा करती हैं। माना जाता है कि इससे योग्य पति प्राप्त होता है।
शरण पूर्णिमा पर—
इस दिन गाय के दूध से खीर बनाकर उसमें घी और चीनी मिलाकर रात्रि में चन्द्रमा की रोशनी में रख दें। सुबह इस खीर का भगवान को भोग लगाएं तथा घर के सभी सदस्य सेवन करें। इस दिन खीर बनाकर चन्द्रमा की रोशनी में रखने से उसमें औषधीय गुण आ जाते हैं तथा वह मन, मस्तिष्क तथा शरीर के लिए अत्यन्त उपयोगी मानी जाती हैं। इससे दिमाग तेज होता है। एक अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है। शोध के अनुसार खीर को चांदी के पात्र में बनाना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। हल्दी का उपयोग निषिद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। रात्रि 10 से 12 बजे तक का समय उपयुक्त रहता है।
इस रात्रि को कुछ लोग चाँद की तरफ देखते हुए सुई में धागा पिरोते है। कुछ लोग काली मिर्च को चांदनी में रख कर सेवन करते है। माना जाता है की इनसे आँखों स्वस्थ होती है और उनकी रौशनी बढ़ती है। आयुर्वेद के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन खीर को चन्द्रमा की किरणों में रखने से उसमे औषधीय गुण पैदा हो जाते है। और इससे कई असाध्य रोग दूर किये जा सकते है। खीर खाने का अपना औषधीय महत्त्व भी है। इस समय दिन में गर्मी होती है और रात को सर्दी होती है। ऋतु परिवर्तन के कारण पित्त प्रकोप हो सकता है। खीर खाने से पित्त शांत रहता है। इस प्रकार शारीरिक परेशानी से बचा जा सकता है। शरद पूर्णिमा की रात में खीर का सेवन करना इस बात का प्रतीक है कि शीत ऋतु में हमें गर्म पदार्थों का सेवन करना चाहिए क्योंकि इसी से हमें जीवनदायिनी ऊर्जा प्राप्त होगी।
मान्यता है कि गाय के दूध से किसमिस और केसर डालकर चावल मिश्रित खीर बनाकर शाम को चंद्रोदय के समय बाहर खुले में रखने से उसमें पुष्टिकारक औषधीय गुणों का समावेश हो जाता है जब अगले दिन प्रातः काल उसका सेवन करते हैं, तो वह हमारे आरोग्य के दृष्टिकोण से अत्यंत लाभकारी हो जाती है। यह खीर यदि मिटटी की हंडिया में रखी जाये,और प्रातः बच्चे उसका सेवन करें ,तो छोटे बच्चों के मानसिक विकास में अतिशय योगदान करती है ;ऐसा आयुर्वेद में उल्लेखित है। इस खीर के प्रयोग से अनेक मानसिक विकारों से बचा जा सकता है।
वर्ष में एक बार शरद पूर्णिमा की रात दमा रोगियों के लिए वरदान बनकर आती है। इस रात्रि में दिव्य औषधि को खीर में मिलाकर उसे चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। रोगी को रात्रि जागरण करना पड़ता है और औ‍षधि सेवन के पश्चात 2-3 किमी पैदल चलना लाभदायक रहता है। शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है।
जानिए योग और शरद पूर्णिमा का सम्बन्ध–
लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।

शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है , वर्षभर में बारह(१२) पूर्णिमा होती है लेकिन सिर्फ शरद पूर्णिमा पर ही अमृतवर्षा होती है ! यह एक मान्यता मात्र नहीं है , वरन आध्यात्मिक अवस्था की एक खगोलीय घटना है | शरद पूर्णिमा की रात्रि पर चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है एवं वह अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण रहता है | इस रात्रि चन्द्रमा का ओज सबसे तेजवान एवं उर्जावान होता है | इसके साथ ही शीतऋतु का प्रारंभ होता है | शीतऋतु में जठराग्नि तेज हो जाती है और मानव शरीर स्वस्थ्यता से परिपूर्ण होता है परन्तु इस घटना का आध्यात्मिक पक्ष इस प्रकार होता है कि जब मानव अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है तो उसकी विषय – वासना शांत हो जाती है | मन इन्द्रियों का निग्रह कर अपनी शुद्ध अवस्था में आ जाता है | मन का मल निकल जाता है और मन निर्मल एवं शांत हो जाता है | तब आत्मसूर्य का प्रकाश मन रुपी चन्द्रमा पर प्रकाशित होने लगता है , इस प्रकार जीवरूपी साधक की अवस्था शरद पूर्णिमा की हो जाती है और वह अमृतपान का आनंद लेता है | यही मन की स्वस्थ्य अवस्था होती है | इस अवस्था में साधक अपनी इच्छाशक्ति को प्राप्त होता है | योग में इसी को धारणा कहते है | धारणा की प्रगाढ़ता ही ध्यान में परिवर्तित हो जाती है और यहाँ से ध्यान का प्रारंभ होता है"

Tuesday 7 October 2014

शरद पूर्णिमा ||

शरद पूर्णिमा 
सम्पूर्ण प्रेम 
पावन अवसर 
मन 
बना है ब्रजधाम 
राधा के अराध्य
मनमोहन
हे घनकेशी
हे घनश्याम
आ जाओ इस याम
खिला चन्दमा
सोलह कलाओ संग
रस बरसाओ मन आंगन में
और रचाओ रास
गोपी मन
करे पुकार
बजा बांसुरी
मधुर मनोरम
यमुना तट का करो श्रृंगार
महिमा अपरम्पार
सांवरे
अब तो दर्श दिखाओ
नैनो में तस्वीर बसी
मन वीणा पर सरगम गूंजे
चातक बन करें पुकार
अब सम्मुख आ जाओ
मेरे
कृष्णमुरार
मन मन्दिर को
पावन
कर जाओ एकबार .
-- विजयलक्ष्मी


" प्रेम को अमर बनाती ,सात्विक दृष्टिकोश से निहारती कृष्ण के आकर्षण में बांधती ,,इन्द्रिय नृत्य की महान  रात्रि ...रास अर्थात लास्य से परिपूर्ण हो आत्माए जब अपने आराध्य से मिलती है सम्पूर्ण प्रकृति उल्लासित होकर उस नृत्य में शामिल होती है ...रास देह नृत्य नहीं अपितु आत्मा का नृत्य है ...जिसमे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शामिल होता है .....चन्द्रमा भी अपने सौन्दर्य की सभी कलाओं से युक्त हो ...आज अर्धरात्रि लसित होता है साक्षी बनता है ....राशियों नक्षत्रो से भी खूबसूरत समर्पण करते हुए अभिसार युक्त जीवन के उन क्षणों में जब आराध्य का आराधंक में मिलन होता है .....कोई भेद नहीं रहता ....प्रकृति और ईश एक रूप हो उठते हैं ..जहाँ जीवन मृत्यु कुछ भी नहीं विलग नहीं ...प्रेम समग्रता से समग्र में शामिल होता है .. चन्द्रमा भी जैसे अमृतमय हो उठता है ...धरा नाच उठती है ,,,आत्मिकता का पूर्ण ब्रह्म से मिलन ..अद्भुत अनोखा संगम है गंगा जमुना जैसा पवित्र ...लास्य है किन्तु स्वार्थ नहीं.. समग्रता है किन्तु देह नगण्य अर्थात शून्य ..दैह्कता उसे छू भी नहीं पाती ....यही है प्रेम का ईश्वरीय तत्व ....नेह शामिल है देह नहीं आत्मा ब्रह्म से एकाकार होती है ....ईन्द्रिया संसारिकता से उपर अमृत रस पान करती है ...सृजन हैं किन्तु दौहिक नहीं ...सुख है किन्तु भौतिक नहीं ...जैसे करोड़ो मीरा अपने श्याम से मिली हो ...राधा कृष्णमय....कृष्ण राधामय होते हैं ......कोई भेद नहीं रहता अभेद ..अर्थात एकात्मकता के दर्शन ...शरद पूर्णिमा ..संवरती रात के साथ हर दोष से मुक्त होकर प्रेमभक्ति की पराकाष्ठ का दिन है ...रीती दर्शन ज्ञान द्वेष सबकुछ भूलकर प्रेमोत्सव की रात है ...प्रभु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की रात है ...किंचित सोच भी बाधक है इस मिलन में ....यहाँ विचार भी खाई जैसे प्रतीत होते है ..दीवार बनते हैं ...आलौकित करता परलौकिक परालौकिक प्रेम की अनुभूति करता ...शरद के आगमन का निर्मलता पूरित प्रेमोत्सव की रात ...प्रेमतत्त्व को प्राप्त करने की रात ..प्रेमामृत के रसास्वादन की रात ..आत्मा परमात्मा के साक्षात् मिलन की रात ||
महारास ..कान्हा का गोपिकाओ संग मिलन
रस पाग भिगोई आत्मा परसी ब्रह्मानन्द
इन्द्रिय विजयिनी गोपी प्रेम रस भीजी
जग सगरा भूल पावन संग भीजे ब्रह्मानन्द
 "---- विजयलक्ष्मी 

" तारे लापता है उडगन भूलकर डगर बैठ गए ,
चाँद शबाब पर क्यूँकर न हों आखिर पूनम की रात है ,
गुंचा ओ गुल खिले है हर डाली पर देखिये ,
क्यूँ न इठलाये चाँदनी भला आखिर पूनम की रात है
",- विजयलक्ष्मी


" कन्हैया मोहे दरस दिखा दो आज ,
चाँद भी पूरा भयो है आज ..कन्हैया मोहे ...

तुम बिन राधा कैसे पूरी ,
भक्ति तुम बिन रहे अधुरी ..
चन्द्रकला भी होंगी आज पूरी ..
गोपियन संग रचाओ रास ..
चाँद भी पूरा भयो है आज ..कन्हैया मोहे ...

तुम बिन कान्हा कैसे चैन मिले ..
नयनों से आँसू दिन रैन मिले ..
खोए कहाँ हों कृष्ण कन्हैया 
ढूंढ रहे है तुम्हे बंसी बजैया ..
चाँद भी पूरा भयो है आज ...कन्हैया मोहे ....

गलियों में ढूंढे तोहे गांव के ग्वाले ,
गोकुल की गलियाँ सब रंगरलिया ...
दूध दही अब कौन चुरावे 
सूने आंगन अखियाँ पथरावे ..
कन्हैया रंग बरसा जा आज ...कन्हैया मोहे "
-- विजयलक्ष्मी