Saturday 28 May 2016

" कहाँ लिखा संविधान में सुभाष गिरवी रखना मजबूरी था "

" सुभाषचंद्र को सुना गिरवी रखा था गद्दारों ने ,,
खरीदी थी कलम साजिशन राष्ट्रिय मक्कारों ने ..
राष्ट्र को दिशा देना भी उनकी खुद की मजबूरी थी
मालूम था अन्यथा वंशजो की सत्ता से दूरी थी 
जितने बरस खाए देश के क्या उतना विकास हुआ कभी
पीछे वाले आगे निकले क्यूँ पड़े हुए हम पीछे अभी
कछुआ चाल चली जितनी उससे ज्यादा घोटाले हैं
मुखबिरी देशभक्तों की करके ,,कहते ईमान के पाले हैं
क्या मैकाले की शिक्षा में इतिहास बदलना जरूरी था
कहाँ लिखा संविधान में सुभाष गिरवी रखना मजबूरी था
क्यूँ गायब फाइल हुई ...क्यूँ भगत चढ़े थे फांसी पर ?..
कितने चरखे कते बताओ .. क्या कटे बरस चौरासी थे ?
हैदराबाद निबटा मारा था एक अकेले बल्लभ भाई में
लटका है काश्मीर आजतक मारा जगहंसाई ने
सन बासठ में धरती हारी ,,सन इकहत्तर भी भेंट चढाया था
वक्त भूल गये अपना सारे देश को इमरजेंसी में लटकाया था
सत्ता की हुक उगी कैसी कोकीन दंश अब मार रहा
ये कैसा समय चला आया ... दलाल भी ललकार रहा
वही प्रश्न करते फिरते हैं जिनके कपड़े तक धुलते विदेश रहे
नाम सेकुलर लिख मारा झगड़े साम्प्रदायिक अशेष रहे
इक वृक्ष कटे तो भूकम्पी रंग जनता पर दिखलाते हैं..
कैसे है वो लोग झूठको सच सच ही बस चिल्लाते हैं
कलम बिके जो दौलत में ,, उनका कोई जमीर नहीं
पैसे वाले हुआ करें वो ..फिर भी कोई अमीर नहीं ..
सत्यपथि चलते चलते लहुलुहान होते रहते हैं...
मंजिल से पहले लेकिन कदम नहीं रुका करते हैं || "
------- विजयलक्ष्मी

Thursday 26 May 2016

" जिन्हें देशप्रेम की क ख नहीं आई "

" मंजूर हर शिकायत औ शिकवा..
मंजूर न हुआ तेरे रूठने का मंजर ||

मुफलिसी का यूँ दर्द नहीं मुझको
मुफलिसी वक्त की बेच आऊं किधर||

जिन्दगी तपती मिली थी धूप में
जिन्दगी में तपिश हुई बिन शजर ||

भीगती थी बारिशें तन्हा वीरान
भागती जिन्दगी लहुलुहान सफर ||

बा-शिद्दत बेवफाई देश से किये
शिद्दत से उगाई थी फसल भ्रष्टाचार||

चरखे से मिली आजादी झूठ निरा
सीचा है लहू से है सबको सब खबर||

लिख कागजों पर ईमान खरीदो
उछली है इक नये बाजार की खबर ||

जिन्हें देशप्रेम की क ख नहीं आई
दौलते खाद में बोए हैं वफा का शजर|
| "--- विजयलक्ष्मी



" खबरनवीसों सोचो और पढो खबर अख़बार के हवाले से ,
क्यूँ आजादी की डायरी के पन्ने कुछ ही नाम सम्भाले थे ,
वो कहाँ गये जिन्हें जख्म मिले देह पर और आत्मा पर छाले थे 
घर दर छूटे जिनके जिन्दगी के भी पड़े लाले थे 
फखत कुछ क्यूँ बाकी जो आजादी से सत्ता सम्भाले थे ..

कौन है जो लगा ..उन्हें ढूँढने के प्रयास में
दफन कर दिए बलिदानों के नाम तक इतिहास में
क्या नेहरु गाँधी ही बस आजादी ले आये है,
उनका वारिस भी तो ढूंढो जो अपनी जान गंवाए हैं
कितने वीरो और वीरांगनाओ ने बरात चढाई आजादी के साथ
और सजाई सेज सुहाग मातृभूमि के साथ
सो गये जो वतन के मतवाले थे ..
इबादत ए इश्क ए वतन...जो भारत पर मिटने वाले थे
उनका क्या देखे ...लड़े या नहीं मगर वसीयत में गद्दी सम्भाले थे
"--- विजयलक्ष्मी

" तैने ,मुझमे आग लगाई मैंने तेरे भीतर सुलगाई,,"




तैने ,मुझमे आग लगाई मैंने तेरे भीतर सुलगाई,,
तेरी दोस्ती की लत मैंने अंतिम साँस तक निभाई

 --- विजयलक्ष्मी

" कर्मचक्र संग चलता पहिया समयरथ की धुरी का ,,
साँझ सवेरे रोके कौन, थामे कौन जीवन मजबूरी का "
--- विजयलक्ष्मी


लगता है झूठे स्वप्न में जी रहे हैं आजकल ...
करें क्या सरकार से घोटाले खफा हैं आजकल
 ---- विजयलक्ष्मी

Sunday 22 May 2016

" क्यूँ करते हो अंतर पति पुत्र भाई में ,,पुरुष बस पुरुष अहो "

" मैं पायल चूडियो के गीत नहीं गाती ,,
मैं प्रेम अगन के बीज खेत में नहीं उगाती 
मन्दिर-मस्जिद के झगड़े को संस्कार बना देखो
अपने पुरखों के जीवन इतिहास उठा देखो
कर्तव्य पथ पर बढ़ते कदमों को मत रोको
देशप्रेम के बढ़ते पथ पर मत टोको
भरने दो हुंकार वतन के दुश्मन की जानिब
इमां में ईमान भरे बने इंसान इंसान की खातिर
क्या संगीनों के साये में धर्म पला करते हैं
उनमे भी आग दबी होगी जो बन्द्कों से डरा करते हैं
मत खींचों नफरत की खाई भारत माता के नाम पर
ईमान यदि सच्चा है... क़ुरबानी हो वतन के नाम पर
गौमाता हन्ता सुनो गर तुम गौमाता को जीव कहो ..
क्यूँ करते हो अंतर पति पुत्र भाई में ,,पुरुष बस पुरुष अहो
है तपिश मेरे अंगना में उगते सूरज की आती
धर्मयुक्त जीवन शैली वैज्ञानिक कहकर अपनाती
सूरज की किरणों में तुमने " ॐ " तपस्या को समझा होता
राम नहीं असत्य इस सत्य को परखा होता
समय-धारा में स्खलित सत्य को पहचानना होगा ...
सत्य नहीं बदलता कभी तत्व को मानना होगा
"-------- विजयलक्ष्मी