Saturday 31 May 2014

क्या फिर एक कैंडिल मार्च ...फिर से चीखना चिल्लाना ...नया आध्यादेश.. और ...



कभी दिल्ली ..कभी बदायु ..या इटावा ...क़ानून में छूट की गुहार ...पूरी छूट देदी ....जो चाहे सो करो 
मुख्यमंत्री का महिला पत्रकार से बात करने का तरीका .....सोचने को मजबूर करता है ...इमारतों से विकास होगा या ....गुंडाराज के दिमाग ठिकाने लगाकर ,,,सी बी आई की रिपोर्ट में इन्ही के बंगलो की कीमत बीस हजार और बत्तीस हजार बताई थी न ....अब नई जाँच में ..दुरुस्त कानून व्यवस्था की रिपोर्ट देदे... तो ताज्जुब भी क्या है ..,उत्तरप्रदेश ....का अर्थ कृषि प्रदेश नहीं अराजक प्रदेश कर देना चाहिए .......जहाँ पुलिस गुनाह को गुनाह नहीं आंकड़ो के आधार पर कम आँक रही ....कमी है तो तुम्हारे घर में कोई जिन्दा औरत है या सब मरी हुयी लाशे रेंगती है ....सोचकर देखना ....हरित प्रदेश ..नंगई-क्रांति आ गयी ...और शांति चली गयी ...सुशासन की भ्रान्ति खत्म भुगतो वोट देने का नतीजा ! .......क्या फिर एक कैंडिल मार्च ...फिर से चीखना चिल्लाना ...नया आध्यादेश.. और फिर लम्बी चुप्पी .......अगले बलात्कार का इन्तजार करेगी ..और ....चीखेगी हर नये कांड के बाद .... आखिर कब अंत होगा ...इलाज ??????!!
यूपी की सरकार अनाचारी
संरक्षण पाते बलात्कारी
पुलिस है अत्याचारी
नेता भ्रष्टाचारी
दुखित औ पीड़ित नारी
चुप है धर्म ध्वजाधारी
मैं मेरा की लगी बीमारी
नेता और धनिक के आज्ञाकारी
बाकि जनता है दुखियारी
करे विरोध, पिटती है महतारी
न्याय हुआ भिखारी
जिन्दा ही मरती है बलात्कार की मारी.
बिजली पानी छोडिये इज्जत की मारी
दलित वर्ग में आएगी प्रदेश की जनता सारी
मुखिया हुए बेशर्म जनता है दुखियारी
अब इनके वनवास की करनी होगी तैयारी.--- विजयलक्ष्मी



Friday 30 May 2014

" बजती रागिनी सी दिल का ख्याल बनकर "

जिन्दा रहने लगा वो मुझमे ख्याल बनकर 
छोड़े निशाँ भी उसने मुझमे सवाल बनकर 

एक वक्त था वो जब हम खुद में भी नहीं थे 
जुदा आज भी , जिन्दा तुम ख्याल बनकर

पलको पे ठहरा अक्स झिलमिल सितारे सा 

बजती रागिनी सी दिल का ख्याल बनकर 

जल उठे थे जुगनू सा चमकने की फिराक में 
जल रहे है आज भी खुद में सवाल बनकर

आईना ए ख्वाहिश, आइना हुए भूलकर खुदी
बिखरी किरचे भी लहू में बही ख्याल बनकर

अब ,मैं हूँ संग बहता हुआ एक अहसास है
कश्ती में पतवार से तुम बसे ख्याल बनकर
.- विजयलक्ष्मी 

" फूलो की चाहत में बसंत उमड़ा था"




आज फिर.. इल्जाम हवा पर आया है ,
दरख्तों ने मलय को तूफ़ान बताया है ||

सूखा रास आता है सहरा को सदा से 
एक बदली बरसात ने सब बहाया है ||

फूलो की चाहत में बसंत उमड़ा था
देखो पतझड़ का इल्जाम लगाया है ||

बंद दरो के पीछे सांकल पर मुहरबंदी 
बरसों पुराना इक सबक याद आया है ||

जब छोड़ना होता है घर वनिता को
घर की कड़ियों में ही साप बताया है ||
-- विजयलक्ष्मी 

"जैसे लहू बहकर हर कोशिका मे बिखरता है "

" सपने समाते कब है खुद से खुदाई के ,
काट छांट कर महीन कर लिए
लम्हे लम्हे में भर लेंगे 
कागज कलम से कोने कोने 
जैसे लहू बहकर हर कोशिका मे बिखरता है 
जान फूंकता सा ...बस इक मुस्कुराहट..
बादल सी बरस जाएगी और भीगते रहेंगे हम उम्र के बाद भी
रात को नहीं मालूम ...अंधेरों की कहानी ..
उनके याराने की कहानी है भी कितनी पुरानी ..
और हमारी आँख में सपने आकार लेते हुए सोचते रहते हैं आज भी
सपने समाते कब है खुद से खुदाई के ,
काट छांट कर महीन कर लिए
लम्हे लम्हे में भर लेंगे
कागज कलम से कोने कोने
जैसे लहू बहकर हर कोशिका मे बिखरता है ".
- विजयलक्ष्मी

Wednesday 28 May 2014

"दिल की दीवार पर थाप देती देशराग की तरन्नुम "

"खोई सी चेतना का चिन्तन 
सम्वेदित वेदना का मनन 
सौंधी सी मौलिकता का हनन 
छिले हुए से श्ब्दाक्षारो का अंकन 
आहत हुयी आहट की अकुलाहट 
पुष्प की जीवंत सी मुस्कुराहट 
पतझड़ में झड़ गिरते पत्तों की सरसराहट 
गहनों में सजी बहन की मुस्कुराहट 
सरगम गाती चिडियों की चहचाहट 
अमुवा की बगिया में कोयल की कूक 
खाली से खेत में उगती हुयी भूख
सडक पर जार जार चिल्लाती धूप
राजपथ पर नंगे पाँव दौड़ती जनता की हूक
दिल की दीवार पर थाप देती देशराग की तरन्नुम
जिन्दगी और मौत ,,,जमी पर जन्नत मिले या जहन्नुम
आस की कली पर ओस सी तबस्सुम
जहेनसीब अपना पी डाले हमने इश्क ए वतन ए समन्दर भरे सागर औ खुम
खुद को ढूंढना मुश्किल... हुए हैं इसकदर गर्क औ गुम".
-- विजयलक्ष्मी

Sunday 25 May 2014

" ओ बदरा तुम घिर घिर आओ ,"




ओ बदरा तुम घिर घिर आओ ,
जलती है धरती जल बरसाओ .
ओ पवन बसंती सुन खोई कहाँ हो
सुलगती अगन शीतल कर जाओ
सूखे गुंचे और सूरज भी जलता
मदिर मदिर स्नेह-रस बरसाओ
देख दरारे तेरा मन नहीं भरता
मेघा ,उमड़ घुमड़ तुम आ जाओ
हा हाकर मची धरती पर
अब तो जल बरसाओ ...
ओ बदरा तुम घिर घिर आओ ..
जलती है धरती जल बरसाओ
..---- विजयलक्ष्मी

Friday 23 May 2014

" अनुनाद या नाद जब गुंजायमान आसमान तक होगा "

अनुनाद या नाद जब गुंजायमान आसमान तक होगा 

चिनार की आग धरा पर भभकती दिखेगी दूर तक 


अमलतास की चमकीली धूप सूरज को रंग देगी 


नमक कम हो जाये समन्दर का मैं नदी सी चली जा रही हूँ 


लहू शब्दों में उतरा तो रंगीन हो जाएगी तस्वीर सिंदूर सी 


और तिलक चन्दन का कम न पड़ जाये 


शंखनाद रात के सन्नाटे को चीरता चलेगा ..


इक छोटा सा दीप आंधी तूफ़ान में जलता मिलेगा

 
नौका की क्षति कैसी ..डूबकर मरेगी लहरों में देख लेगा समन्दर भी 


बरस लो ए बादलों तुम भी ..तपिश धरा कम कर सकोगे क्या 


खाली कर दो झोली कितनी भी... प्यास अगस्त्यमुनि से मिल चुकी है 


धार समय के पत्थर पर रगड़ कर तेज कर रहा है कब से ..


जानते हो नागफनी खिलती है मगर महक नहीं देती ..


नागफनी के फूल मरु में भड़कती आग को दर्शाते हैं 


सर के बल खड़े होकर देखने से सच नहीं बदलता 


तुम जानते हो सत्य क्या है ...मौत की चीख दहलाती कब है मुर्दों की बस्ती को 


मिटाना होगा झूठ और झूठ के बन्दों को ,


निशाना बनाकर धमाका ..करने की बात कहकर दुश्मन का घुंघट उठाना होगा ..


ईमान से दुश्मनी निभाई है हमने ..


जानते हो ..दोस्त बन गये गर ...नजरे नहीं झुकेगी ईमान की ..-- विजयलक्ष्मी

Thursday 22 May 2014

"रवायत ए मुहब्बत नहीं जानते हम "

आज तक भी खुद को ढूंढा किये हम 
तन्हाई घर अपने ही लेकर गयी जो 

चैन खोया किस गली इस दिल का 
बेचैनी पता अपना बताकर गयी जो 

खुद का पता हैं न आवाज ही अपनी 
मुहर ए बेवफाई मुझपर लग गयी जो 

रवायत ए मुहब्बत नहीं जानते हम 
न आंसू मुकम्मल हंसी छीन गयी जो

मेले में तन्हा संग तन्हाइयो का मेला
सोचेंगे क्या खुदकी हालत हो गयी जो

राजदारी बता किसकी किससे करे हम
गुनहगारी मुख्तसर हमसे हो गयी जो
--- विजयलक्ष्मी

Monday 19 May 2014

" विश्वास पर दुनिया कायम है "

वक्त उलझा रहा है वक्त को ,
सुलझायेगा इक दिन जरूर .

भूख खड़ी है जिन्दा खेत में,
लहलहाएगा इक दिन जरूर .

सुना है, वो रंगरेज गजब है,
रंगा जायेगा इक दिन जरूर .

तूफ़ान-आंधियो से खौफ क्यूँ ,
थम जायेगा इक दिन जरूर.

विश्वास पर दुनिया कायम है
बतायेगा वक्त इक दिन जरूर . -- विजयलक्ष्मी 

Wednesday 14 May 2014

" शब्द सयाने हुए कब ... मालूम ही न हुआ "


"किसी को ..शब्द मिलते है खिलखिलाते से 
किसी को ..मिले मुस्कुराकर लजाते से 
किसी को ..मिले आँख से आँख मिलाकर बतियाते से 
किसी को ..मिले सडक पर लावारिस से खड़े 
किसी को ..मिले सुनसान सी सडक पड़े से 
किसी को ..मिले मोती जड़े से 
किसी को ..मिले सर्द मौसम में ठिठुरकर सिकुड़े से 
किसी को ..सुनहली सी धूप की भट्टी में तपते मिले 
किसी को ..खुदी में खुद को जपते से मिले 
किसी को ..जड़े मिले सिले होठो पर 
किसी को ..चिपकते मिले लहुलुहान चोटों पर
किसी को ..दर पर खड़े मिले दया के रंग में
किसी को ..डूबे मिले राजनैतिक ढंग में
कही चिल्ला रहे थे गला फाड़कर ..
चुप हो जाते थे कही मौत को ताड़कर
कही गमगीन गम को गुनगुना रहे थे
कही जिन्दगी का राग सुना रहे थे
कही बेबाक से ..कही बेलाग से
कही बर्फ से जमे ..कही धधकते आग से
कही मौसम से पतझड़ में बसंत हो आया
कही लगते रहे धुप बनी हो छाया
कहीं खंजर कहीं मंजर ...कहीं अनगढ़ कही अनपढ़
कही बददिमाग से ..कहीं फिजूल के राग से
कही सुर से बिंधे ..कहीं गले में रुंधे
कही बिखरे बिखरे ..कही माला से गुंथे
हर रंग हर रूप से ..कहीं भिखारी से कही भूप से
कही बिछड़े हुए टूटे शजर से
कही कठोर पड़े पत्थर से
..जिसने जैसे चाह मरोड़ा ... बे-परवाह होकर निचोड़ा
उठा उठाकर पटका ...कभी मार मारकर फोड़ा
चुपचाप से निरीह देखते रहे ,सहते रहे है सबके विचार ..
नहीं छोड़ा आचरण ..न व्याकरण
रोते गाते रहे ..पल पल साथ निभाते रहे
ये शब्द ..मेरा भी और तुम्हारा भी .
फिर भी सदा शिकायत ही रही सबको ..अधूरेपन की
शब्द सयाने हुए कब ... मालूम ही न हुआ
!!".-- विजयलक्ष्मी

Friday 9 May 2014

" महकी पतझड़ की बसंती बयार "

" जिंदगी भी एक रवायत ही तो है ..
हर इक को मगर शिकायत ही तो है 

धरा पर जिन्दगी की तमन्ना ,
मिलना सूरज का इनायत ही तो है 

दुन्दुभी के राग रणभेरी बजना 
तड़तड़ाना नगाड़ा बगावत ही तो है

अंधेरो को जीतने की चाहत में 
जलना पतंगे सा अदावत ही तो है

महकी पतझड़ की बसंती बयार
चटकना कली का रवायत ही तो है "
-- विजयलक्ष्मी

"राष्टीय विकास भी चुनावी तिलिस्म लगे "

" कशिश है मगर कोशिश भी कम लगे ,
सियासती चालों में क़ानून कम लगे 

तीर भी बनाये गुल उठाकर चमन से 
मुश्किल यही है दुश्मन को बम लगे .

कहकर मौत का सौदागर चाबुक चलाया 
तिस पर चीखता है अभी जख्म कम लगे 

हकीकत बयाँ करूं ,नाराज न हो जाये 
खुदगर्जी न पूछो कातिल भी हम लगे

चुनावी चूल्हा गर्म है आजकल देश में
राष्टीय विकास भी चुनावी तिलिस्म लगे
 "--- विजयलक्ष्मी

Wednesday 7 May 2014

" हमे अनुवाद नहीं आता अनुनाद करेंगे "

हमे अनुवाद नहीं आता अनुनाद करेंगे
फुर्सत मिली तो ..थोडा सम्वाद करेंगे 
वेदना की चेतना आसमान पर तैरने दो 
दर्द को रक्तपिपासा का अहसास उभरने दो 
जिन्दा से दीखते लोग जो मरे पड़े जड़ होने दो 
उभरने दो खार को कब्र पर मेरी 
गंध बन जब हवा के साथ लाश महकेगी मेरी 
देखना नजर में उठते हुए सितारे को ध्रुव अटल सा 
पहचान लेना अँधेरे उजाले में बदलने के समय को 
जिजीविषा अंतिम लक्ष्य पर पहुंचेगी जब 
मौत का परचम लहराकर जिन्दगी मांगेगा हाथ को पसारे
बस तभी हिसाब हो जायेगा हर दर्द का
गरीबी में रक्तचाप बढकर भी दीखता नहीं
रिक्शा के पहियों में चित्कारती अँधेरे की कालिमा
सयानी होती बेटी की देह पर झांकता नुक्कड़ का नेह
पन्द्रह बरस की उम्र भी बीस की नजर आती है
सुना तुमने झुग्गी में लडकी की जात उम्र से पहले बड़ी हो जाती है
बर्तन मांजने भेजू रोटी के लिए दिल दहलता है
तीसरी कोठी में रहने वाला बुद्धा दिग्विजय की शक्ल से मिलता है
शहर की सबसे खामोश गली में रातभर रौनक रहती है
उस ऊँचे मकान में कोई सनी लियोन रहती है
बाबु जी ..किसी तरह हाथ पीले हो जाये तो अच्छा
क़ानून को क्या पता ...एक ग्र्रेब बाप कैसे पालता है अपना बच्चा
हर किसी को हैसियत पैसे की बड़ी दिखती है
मेरी जिन्दगी तो इंसानियत पर चलती है
वो जिसका सर पड़ोसी ने काटा ...उसकी माँ बीमार बहन को भी नेता जी ने डाटा
कोई नहीं बचा घर में अब कमाने वाला
ताजमहल के बनाने में कटे हाथो का मजदूर ने दिया हवाला
एक कोई गड्ढे में गिर गया था ...उसे हाथों पर सबने लिया था
यहाँ तो गड्ढे ही गड्ढे हैं ...जाने कितने रोज गिरते रहते हैं
भला हो मिडिया का इतना कोहराम भी मचाया ...लेकिन कोई गड्ढा आजतक नहीं भर पाया
फिर मिडिया भी चल पड़ा पैसा बनाने ...नई नवेली सी खबर कोई भुनाने
सरकारी तरकश खाली हो गया क्या ?
एक रिमोट से चलता रोबोट बैठा था खाली कर गया क्या ?
हमे अनुवाद नहीं आता अनुनाद करेंगे
फुर्सत मिली तो ..थोडा सम्वाद करेंगे
वेदना की चेतना आसमान पर तैरने दो
दर्द को रक्तपिपासा का अहसास उभरने दो
बहने दो लहू में ...शिराओ से होकर दिल में उतरने दो
अभी कुछ कदम तो साथ चलने दो
न हो तुम नाराज होकर मुख मोड़ लो ...न हो रिश्ता ही तोड़ लो
हम डर से गये हैं ..थोडा गुजर से गये हैं
वेदना को धमका दिया है ...नेह को रंग में डूबा लिया है
बस ...यूँही ..इतना सब तुमसे भला क्यूँ कह दिया है
--- विजयलक्ष्मी

Tuesday 6 May 2014

" देशभक्तों पर भी अंगुली उठने लगी है आजकल "

कासिद ने खत नहीं भेजा ,,इन्तजार में रहे ,
किस्सा तमाम गोया किस किस से हम कहें .

झूठ को सच बनाने में लगे हैं सियासती बंदे 
झूठ के पाँव नहीं होते किस किस से कहे हम .

विकास औ घोटाले बिखरे हैं चुनावी जमीं पर 
शहादत नहीं जानते हैं किस किस से कहें हम.

उभरी इक इक इबारत, खुला यादों का सन्दूक 
वीराना ए नखलिस्तान किस किस से कहे हम .

देशभक्तों पर भी अंगुली उठने लगी है आजकल
दलालो की तो मत सुनो किस किस से कहे हम
- विजयलक्ष्मी

Saturday 3 May 2014

"लिख रहा है नाम मेरा वो आढती उधारी के हिसाब में "



चमक महताब की क्या खूब थी ख्वाबो भरी रात में ,
आओ देखो आग भी बढती ही जा रही आफताब में .

आसमां छितरे सितारों लिखी कोई गजल नायब है 
रंग ए हिना सी महक है ,खूबसूरती छिपी हिजाब में

अँधेरी राह पर चमकना दीप सा क्या खूब हिसाब है 
पैमाइश सूरज की हो कैसे ,ख्वाब संवरता ख्वाब में 

हमरही भी हैं ,बेमानी भूख की गरीबों की जिन्दगी में 
लिख रहा है नाम मेरा वो आढती उधारी के हिसाब में 

बिल चुकाऊं क्यूँ न बिजली की न पानी की लाइन है 
दफ्तर के चक्कर लगवा रहे मगर कानूनी किताब में -- विजयलक्ष्मी

"देशद्रोही को मौत सीमासुरक्षा को अंगार चाहिए "

उजड़ते इस देश का होना जीर्णोद्धार चाहिए ,
जिन्दा जमीर वाला कोई असरदार चाहिए !!

न झूठ का पुलिंदा हो . न डरपोक चाहिए ,
बिगड़ा सिस्टम दुरुस्त करे सरकार चाहिए !!

नमकहलाली हो लहू में जिसके ईमान लिए 
यहाँ जरूरत देशभक्त की है नहीं गद्दार चाहिए !!

समझे दर्द गरीबों का औ शिक्षा का इतजाम हो 
सुरक्षा के इंतजाम हो, नहीं व्यभिचार चाहिए !!  

वतनपरस्तों को पलकों पे बिठाए सम्मान से  
 गद्दारों की खातिर सींखचो का संसार चाहिए !!

बेइमानी की दूकान बंद, भ्रष्टाचार की नाकाबंदी
राष्ट्रधर्म में निमित्त जीवन हो ,खबरदार चाहिए !!

सीमा प्रहरी निश्चिन्त हो कर सके देश की रक्षा  
देशद्रोही को मौत सीमासुरक्षा को अंगार चाहिए !!-- विजयलक्ष्मी