Wednesday 16 November 2016

" अपनी जिंदगी का मैं खुद ही कोलम्बस हूँ "

मैं गरीब का बेटा ..
संगिनी मेरी गरीबी है..
मैं चलता हूँ नंगे पांव ..
दर्द मेरा हमसफर है ,
लाचारी बहन मेरी ..
दोस्त गम का साया है ...
झूठ बोला कहने सब ..
वो मुस्कुराया है ..
सच का फंदा है गले में ..
धौंस की दादा गिरी ..
कोई जिन्दा कोई मुर्दा ..
जिंदगी तू है कहाँ ...
क्या यही तेरा रूप रंग है ..
नयनपट जब से खुले ..
धरती बिछौना आकाश कम्बल ..
जमीं पर पैर ..ख्वाब आसमां में है ..
उड़ना ख्वाबों में भी मना मुझे ..
मैं गरीब...
भूखमरी के संग भी जीता हूँ हँस कर ..
ताज्जुब क्यूँ भला ..
मेरा वजूद ही ऐसा है ..
बड़ा होना है मुझे ...
मैं सडको पर पलकर
अपनी जिंदगी का मैं खुद ही कोलम्बस हूँ
.-------- विजयलक्ष्मी

Monday 7 November 2016

प्रदूषण दिल्ली का ...........

" धुंध प्रदूषण धुआँ -धुआँ ..
गलती किसकी किस कारण हुआ 
सोच-विचार घनेरा ,,फिर भी 
छाया है प्रदूषण घनेरा 
बिजली पानी इंटरनेट मुफ्त मिला नहीं 
ये दिल्ली है साहेब ,,दिल देश का
जिसे मुफ्त मिला प्रदूषण ..
इसे रावण कहूं या खरदूषण ,,,
जिसने स्वच्छता को हर बंदी बनाई शुचिता
जैसे पंचवटी में बंदी बनाई सीता
राम सरीखा ढूँढू कहाँ ,,कलियुगीं छाया ,,
परछाई देह से लम्बी है यहाँ ..
फेंको फेंको अपना वजन ,,दूसरे के कंधे
इल्जाम की रस्सी बनाओ ..और जिसे चाहो लटकाओ
स्वयमसिद्ध गिद्ध है जो सिद्ध का रूप धारे हैं ,,
सत्यता की कसौटी पर सभी दीखते बिचारे हैं
कोई प्रयास करते ,,,सफलता ताकती राहे ,,
प्रदूषण के कारण जन भर रहे हैं आहें ,,
कोई साँस को परेशां.......
किसी को जलन है सीने में ,,
जलते कूड़े के ढेर ,,उड़ता हुआ धुआँ
बीमार पानी बिमारी उगलता हुआ
ईमान गायब शुद्धता का पैमाना कहाँ ढूँढू कहो ...
हवा में मिटटी उड़ रही हैराँ परेशां जिन्दगी
उपाय करने के लिए पैसे हुए खत्म ...
बांटने के लिए करोड़ उगते हैं पेड़ पर ...
जैसे मशीन लगी हो खेत की मेड पर
आत्महत्या को बढ़ावा दिया जा रहा है
हवा के सांस में मद्धम जहर दिया जा रहा है
बिना सिगरेट की आदत के चार सिगरेट का जहर भीतर जा रहा है
अस्पताल में लम्बी कतारे हैं ,,
रोती लगे है आँख जिनमे गंदगी के फाहे हैं
मुखौटे ही मुखौटे लगे हैं अच्छाई के ,,
पुष्प अर्पित किये खड़े हैं सच्चाई के
दिखावा और बदजुबानी महल चिन चुकी अपना ....
जनता ने चुना,, भुगत रही है टूटा पलको पर बसा सपना
दर्द सुनाये किये सब की जेब में नोट हैं ,,,
पालतू बनाते मतदाना खरीदते वोट हैं ...
बिकने वालों पर अधिकार नहीं मिलते ,,
इसीलिए गुलामों को सुखी संसार नहीं मिलते ..
जर खरीद गुलामों सा व्यवहार है ,,,
दिखाव ही अनुशासन ,, सद्व्यवहार है
"------- विजयलक्ष्मी