Saturday 24 November 2012

रूह के अहसास को इतना छोटा न बना ,,,

न जाने वो पाक दामन भी थे कि नहीं ,,
निशानियाँ अक्सर खामोश ही रहा करती हैं .- विजयलक्ष्मी



नजरों से देखूं तेरी खुद को भला कैसे ,,
पलकों ने खुलने पर रूठने का वादा लिया है हमसे . - विजयलक्ष्मी



अहसास ए वफा ही बहुत है रूह की खातिर ,
यूँ जमाने में लोग बहुत मिलते है मंजिल की राहों पे .- विजयलक्ष्मी



रूह के अहसास को इतना छोटा न बना ,,,
खुद से नफरत लगे ,रूह को पाक रहने दे .- विजयलक्ष्मी

बहुत हैं ,जिन्हें हर रोज जलते दिए अखरते हैं ....

हम निगहबानी में हैं जाने किस किस की ,
मेरी दहलीज पे जलते दिए दूर तलक रोशन दिखते हैं .
बैठने दे अंधेरों में ही बिसात ए शतरज न समझ ,,
बहुत है जिन्हें हर रोज जलते दिए अखरते हैं .- विजयलक्ष्मी



रिश्ते कागज के, क्या सच है इनमे खुशबू नहीं ? 
बेख़ौफ़ जी लेने दे मुझे इनको मुरझाने का भी डर नहीं .- विजयलक्ष्मी



वक्त ने जब भी खंजर उठाया मेरी जानिब,,,
और भी करीब से देखा है ए जिंदगी तुझको .- विजयलक्ष्मी



नजरों की जबाँ के सब हर्फ सीखने की कोशिश थी ,
दुनिया ही भूल गए उन नजरों में ऐसी कशिश थी .- विजयलक्ष्मी



मेरी निगाहों से मेरे दिल कि बात मुश्किल में आ न जाना ,,
आम बात है गुलों के बगीचे के बीच सहरा सा मंजर नजर आना .विजयलक्ष्मी



ताज को निशाँ ए मुहब्बत न कहना ,,
जाने कितना लहू बहा है इसे बनाने में ,,
सब दुआएं ही हों मुश्किल कहना है ,,
बद्दुओं का हश्र ए सिला बुरा बुतखाने में .- विजयलक्ष्मी



यूँ आजमाने की कोशिश, माटी का पुतला माटी को देखने की चाह लिए ,
ताज खड़ा है मुर्दा सा दामन में अपने जाने कितनी मुहब्बतों की आह लिए .- विजयलक्ष्मी

रंग ए नूर दमकता है अहसास ए वफा में ...

नागफनी ही हूँ यही वजूद का रंग है मेरे ,
जड़े भीतर जमीं के खुद से ज्यादा ऊपर परम्परागत काँटे मेरे .
मुझे बंगले के गमले में भी रोपा तुमने ,
मगर सीरत न बदली दर्द दिया ,ओस की बूंदों को छुए जो काँटे मेरे.- विजयलक्ष्मी



वक्त की बेरुखी भी मंजर खूबसूरत कर देती है ,
ये जिंदगी जब हर लम्हे को इबादत में बदल देती है.- विजयलक्ष्मी



अस्तित्व की पहचान उस राह पर क्यूँ भला ,,
जहाँ रंग ही बदलता है प्रीत के रंग से ..
रंग ए नूर दमकता है अहसास ए वफा में ,,
लगन होती है ...जीतने की उसके ढंग से .- विजयलक्ष्मी

Friday 23 November 2012

बुत में देखकर आब और ख्वाब ,,होता है हैरान क्यूँ ?

सृजन पर अक्सर जमाना उठता है सवाल क्यूँ ,
वक्त को देखकर होता है खड़ा बवाल क्यूँ ,
बपौती है ये कुछ लोगों की बता सकते हों क्या ,
हर सरकारी मुलाजिम के माथे पे लगता रिश्वत का टीका क्यूँ 

बंगलों के पौधों से दुश्मनी रखने वालों नहीं है हक जिंदगी का उन्हें क्यूँ ,
माना मुट्ठीभर आसमां नहीं हिस्से में उड़न पर उठते है सवाल क्यूँ ,
पिंजरे की मैना के बोलने पर भी होता अविश्वास क्यूँ ,
क्या धुरंधर बाज और गिद्ध ही है गगन के 
बिन पंख की उड़ान पर खड़ा मिलता सवाल क्यूँ ,
सीमा पे खड़ा जो ,, परम्पराओं के घरौंदे से दिखता हैरान क्यूँ .
बुत में भी देखकर आब और ख्वाब ,,होता है हैरान क्यूँ .-विजयलक्ष्मी
दर्दीले रिश्ते या रिश्तों में दर्द का होना ,,,
अधूरापन नहीं है समझ अहसास का होना ,
क्या जिंदगी का एक हिस्सा नहीं सरहद पर आँसू होना ,
देता है सृजन को जन्म ,,किसी भी अहसास का होना .

कभी सप्रयास कभी अप्रयास सा मंजर होना ,
वक्त की पराकाष्ठा बताती है शब्दों के बीज से वृक्ष सा होना .
बंजर सा सहरा हों हरियाली लहराए खेतों मैं ,,
जिंदगी जिन्दा है या उसमे शामिल मौत का होना ,
गरीब तरसता है रोटी को ,अमीर के हाथों में बोटी का होना ,
रंग ए दुनिया ही समझ इंसान का इतना निष्ठुर होना .
कभी सहर के सूरज सा तो कभी रात अमावस होना .
सरकारी लुत्फ़ जो उठाते है उनकी वो जाने ...
पसंदगी है जिंदगी अपने दम पे जियो न कि आराम का गुलाम होना ,,
उगाते है फसल हाथों से, अलग बात है सरसों जमती है हथेली पर ,,
इसमें शामिल है शायद वक्त पे बरसात का होना . विजयलक्ष्मी

देह से निकलकर रूह में झांक कर देख लेना ..

गर वादा किया है कैसे जा सकते है कहीं ,
छुडाकर कर जहाँ खुदा भी यूँ ले जा सकता नहीं .

जीवन के रंगों में तुम से ही रंग सारे है ,
कह दो तो तुम इन्द्रधनुष खिला सकते है यहीं .

तुम बहार को ढूंढते क्यूँ हों जब साथ हों ,
पतझड कैसे आयेगा बहारों का रुख मोड देंगे यहीं .

देह से निकल कर रूह में झांक कर देख लेना ,
खामोशियाँ कहाँ है गुलशन खिलते है देखो हर कहीं .- विजयलक्ष्मी

मिले हर वो खुशी जिसकी तुम्हे जरूरत हों ..

न मंजर कोई दुःख के बादल दे पाए ,
न बरसात रंज औ गम की हों ..
मिले जब भी कोई अहसास हमारे नाम से तुमको ..
खुशी ही खुशी रंग शबनमी खूद भी शबनम हों . - विजयलक्ष्मी



हर लम्हा दुआ होगी ,जिंदगी खूबसूरत हों ,
मिले हर वो खुशी जिसकी तुम्हे जरूरत हों . विजयलक्ष्मी



बहुत खूबसूरत सा ये अहसास होता है ,
दूर रहने वाला जब कोई अपना साथ होता है .- विजयलक्ष्मी




हर अहसास जिन्दा हों न कोई शर्मिंदा हों ,
जीवन की हर एक आस में जीवन के साथ में जिन्दा हों .- विजयलक्ष्मी


खेत में बीज बो दिया है ...

घनीभूत अहसास की परतें जब कोहरा बन छा जाती है ,
कोई रुपहली सी रौशनी फिर दीप जला जाती है ,
उड़ जाते है दर्द के पहरे और हवाएं सम्भल सम्भल पग धरती हैं ,
खिलते सावन की कोई रंगोली पुष्पों सा महका जाती है ,
पुष्प डाली जो भेजी तुमने हाथों में आकर खुशबू हाथों में भर जाती है,

तितली से पूछो कितने बसंत देखने की चाहत राहत पाती है ,,,,
सहमे शब्दों को शिलालेख पर पढ़ लो अब ,
मिट्टी को मिट्टी ,मिट्टी से भी मिट्टी ...
पर फिर भी कोई तो अहसास बाकी क्यूँ है ,
उन्मुक्त आकाश मगर सरहद तो तय है ,
बारिश का बरसना तय है तो ...वक्त के साथ बादल आवारा होता क्यूँ है ?
क्यूँ खिलते है दर्द भरे नगमे ..तुम .....ही जानों ...
मौसम उधार तो मोल बता दो अब क्या सम्भव है बिक पाना ?
ये बाजार बहुत बेदर्द बहुत बेबाक हुआ ,कीमत की बात ....सुना दे फिर ..
वश में होगा सोचेंगे ...वर्ना खो जायेंगे ...
खेत में बीज बो दिया है फसल दे जायेंगे .- विजयलक्ष्मी

Tuesday 6 November 2012

कभी नजदीकियां बहुत है ...कभी दूरियां गजब ...

"कभी सोच क्यूँ पत्थर हुआ है वो ,
उसके दर्द को कोई पहचान न सके ."- विजयलक्ष्मी

"दर्द को जोड़ कर सारे खुशियों से निकाल देते काश ,
मुसलसल जो भी बनता कम सही मेरी अपनी पगार होती ."-- विजयलक्ष्मी


"टूट जाने पर रिश्ते निभाना रिश्तों की अहमियत ,
दरमियाँ रिश्तों के कभी कोई दरार न पनपने पाए."--.विजयलक्ष्मी


"अब नफरतों ने घर बदल दिया अपना ,
मेरे दर से गली के उस मुहाने तक दर्द के पहरे हैं ."-विजयलक्ष्मी


"दुआए किसी काम की नहीं मेरे ...
बददुआ असर भूलकर चली गयी ."-- विजयलक्ष्मी ..


"जो रिसेगा अब वो दर्द मत समझना दर्द रिसता नहीं कभी ,
दर्द होता, समन्दर की लहरों सा लहर कर किश्ती डुबा चुका होता हमारी ."-विजयलक्ष्मी


"दरमियाँ ए वक्त मुझसे है फासले अजब ,
कभी नजदीकिय बहुत है कभी दूरिया गजब."- विजयलक्ष्मी


"एतराम ए सिला देखिये फिजाओं के फलसफे में ,
चुप्पी हुयी खुदाई और बेरुखी रब बन कर दामन में आ गयी ".विजयलक्ष्मी

खुशियों की सौगात हमे देनी नहीं आई ...

बंद दरों में बैठा ,मुफलिसों का देवता जाना था ..
रियासत ए मुहब्बत का शहंशाह बन इफ्रायत में खैरात सी बांटता है .-

चोट लगती ही शब्दों की है मन पर ,
पत्थरों के सिले तो होकर गुजर जाते है तन पर .- विजयलक्ष्मी

मेरा बयाँ मेरी जुबा से हों तो बसर अच्छा कहूँ ,
मेरा बयाँ तेरी जुबा से हों तो बसर अच्छा कहूँ बता ?.--विजयलक्ष्मी

आँसू तो है मगर ... गम के नहीं हैं अब ,,
तसल्ली बख्श है, हम मरके भी जिन्दा है जेहन में .-- विजयलक्ष्मी

ख्वाब को ख्वाब में बुनकर एक ख्वाब सजा बैठे ,
यही नादानी थी मेरी, ख्वाब को क्यूँ एक ख्वाब बना बठे.- विजयलक्ष्मी

राजनैतिक हलकों में जिक्र ए सरूर है ...बदलने का चलन 
बिना दल बदले ईमान ,रिश्ते ,धंधे ,डंडे और झंडे सब बदल गया .-विजयलक्ष्मी

खुशियों की सौगात हमे देनी ही नहीं आई ,
दर्द औ गम का सिला देना मुनासिब नहीं किसी को .- विजयलक्ष्मी

वीराना कविता कहता है खुद में ...

हर रंग कविता कहता है अपने ढंग की .. 
किसी को रोने में सुनती ,किसी के हंसने में होती ...
जीवन के रंगों में काली लकीरे भी कविता सी सजती 
शब्दों की अन्तरध्वनियाँ रच जाती हैं एक नई कविता फिर फिर 
जीवन के हर रंग में डूबी है कविता ....
अहसासों का मुर्दाघर भी तो कविता कहता है 
इन्द्रधनुष सा हर रंग कविता है खुद में ...
ममता का आंचल भी कहता है कविता ,बहन का ख्वाब भाई की कविता ही तो है 
खून शिराओं से चल कर 
दिल तक आता है सच है ...
बनता है उन्वान तो लिखते है कविता ...
कभी राग रंग कविता लगता है सबको ..
कभी आंसूं की धार लिखे कविता ..
किस लम्हे को कह्दूं कविता नहीं नहीं मेरी ...
जिसको जो रंग लगे प्यारा उसे कविता कहते है..
छू जाये आँखों को मन को बहती अहसासों की नदी को कविता ही कहते हैं ..
तलवार की धार भी कविता है कविता है ,
छोटी सी कटार भी कविता है ...
विषदंत जीवन की अंतिम कविता कहता है ...
करूँण प्रलाप, आहत मन की आहट का आलेख भी कविता है ..
वीराना कविता कहता है खुद में...
गर सुन सको ,....खुद में खुद का होना भी.... कविता है ... --विजयलक्ष्मी

आग बना मुझको ,जलना है तुझको ...


















सहेज रहे है हम आसमान को अपने अहिस्ता से 
सिल रहे हम टाट पैबंद से ही सही मगर खोने नहीं देंगे .
सिला आंसुओं का होता है और जुदाई भी अक्सर 
जिंदगी को यूँ जुदा खुद से सदा के लिए हम होंने नहीं देंगे .
हम मुफलिसी में सही मगर ईमान से डिगेंगे नहीं 

खोने का खौफ नहीं टूटने का सबब हम खुद को होने नहीं देंगे.
तुम जा ही नहीं सकते रूठ सकते हों हमसे माना
कोई तो पल होंगे ही कहीं न कहीं जब आवाज खोने नहीं देंगे .
कैसे हों पूछ लेते है तुमसे भी ,नहीं बोलोगे जानते है
मगर कब तलक कहो तुम,तुम्हारा ख्वाब गुम होने नहीं देंगे.
माना हम मुफलिसी में जीते है याद रख दीप जला
रंग दीपावली को, जलेंगे जरूर एक दिन संग तेरे, बुझने नहीं देंगे.
तू बुझा हुआ दीप नहीं है ,जल अंधेरों की रौशनी सा
आग बना मुझको, जलना है तुझको तो हम तुझे बुझने नहीं देंगे .- विजयलक्ष्मी

गमले के पौधे मोहताज होते है माली के ..

गमले के पौधे मरते है मगर लापरवाही से माली की ,
बुराई उनमे नहीं होती उन्हें मिलती है सिमित जमीं ,
मगर खिलते भी वही तरतीब से है सलीके के साथ ,
बिन तरीके चलने वालों को लोग आवारा कहा करते हैं .
जंगली जानवर बहुत शातिर होते है जीवन के खेल में,

शातिरी सीख लेते है मगर जंगलीपन साथ चलता है ,

कुछ पौधे मर जाते है जिंदगी की शुरुआत में और ...
सच है जिंदगी इतनी आसान भी नहीं हों तुम ...
हर दिन बसंत सा होता है और हर पल मौत का खतरा ..
खुशी भी जहाँ है और गम भी लम्हों के साथ चलता ..
तितलियाँ निहारती है पल भर को ही सही चली आती है खुशियाँ बांटने
यही बहुत है गमले के पौधे को खुशी में नम कर लेने को आँखें ..
और जी लेने को अहसास जिंदगी तुम साथ हों मेरे ..
हम बोनसाई ही सही मगर खिल लेते है कुछ देर ही सही ..
चाहो तो जिन्दा रहेंगे हमेशा ...जब चाहो मार दो ..
गमले के पौधे मोहताज होते है माली के ..-- विजयलक्ष्मी

क्या पाकीजगी कम थी ..

बिखरे से ख्वाब ,सिमटते से खत आये है ,
जिंदगी फैली है दूर तलक अहसास आये हैं ,
दर्द कहाँ छिपा दूँ भेज दे तन्हाई अपनी ...जरूर बहुत है उसकी ,
आज विश्वास दरका है और जिंदगी खो रही है ..
डूबकर मरती नहीं समन्दर में ..
एक लहर आये और हम खो जाये ...चैन शायद सभी को आ जाये ,
हम बंट गए क्यूँ ,क्या पाकीजगी कम थी ..
या हमारी नजर भली नहीं थी ....
हम खतावार है ख्वाब संग चल दिए क्यूँ ...
सजायाफ्ता मुजरिम से ...अब दरकार ए सजा होगी ,
उन रातों की नमी नयनों में चली आई दूर तलक ...
जाना ही होगा सफर लम्बा हुआ जाता है अब मेरा .-विजयलक्ष्मी
 

दुनिया मिटेगी नहीं ...

सत्य कटु होता है ,
पूरा ही जीने दे सदैव ..जरूरी नहीं ,
कभी कभी बाँट देता है दो टुकडो में ...
क्या जन्म और क्या समापन ...वक्त है ये ..
सुना था योद्धा पंचांग नहीं बांचते ...
हाँ वक्त ऐसा ही योद्धा है ...सबके बांचे गए पंचांग ...पलट देता हैं पल में ,
और चल देता सब समेट कर अपने बाहुबल में ,,,
सत्य बदलता नहीं फिर झूठ साबित हों जाता है ...
सत्य बोलना और सत्य में जीना ....क्या सम्भव है ?
सत्य बदलता कब है 

,...
ये खेला है जीवन ,सब नश्वर मगर सबसे पहले जाना है खुद मुझको ..
दुनिया मिटेगी नहीं ..
पौधे गमलों के सूख जाते है निरंतरता के बिन मगर ...
जंगली पौधे मनमौजी से मरते नहीं ,कई बार उखाडो जमीं से तब भी ,
बरसात के इन्तजार करते हैं ,
सोखते है धरा से जल और लड़ते ही रहते हैं जीवन भर ...
बाकी सब तो चलता ही रहेगा ...जीवन जीना जो ठहरा ...
गगन धरा मिल गए उस छोर जहाँ कोई नहीं मिलता .- विजयलक्ष्मी

कलम जब करती बात है ..

शब्द जीवन डोर थामे हों ,
रिश्ते कोमल से कच्चे धागे हों ,
जब जीवन बनी एक आस हों ,
शब्द जीवन के खुद के अहसास हों ..
दूरियों में नजदीकियों कि दरयाफ्त हों ,
जीवन खेला जीवन के साथ है ,
कलम जब करती बात है ,
शब्द बोलते हों कानों से गुज उतर कर भीतर मन के ..
बस यही है करतब हैं शायद इस कलम से ..--विजयलक्ष्मी

कुछ और बचा हों दे जा ....

जिन्हें शौंक हुआ रिश्तों के बदलने का वोही बात बनाते नजर आते है ..
ईमान वाले ही मौत के घाट उतर जाते हैं ...
मतलब की दुनिया हुयी किस कदर जब चाहे बुत कर जाते है ,
भरोसा करें किसका अपने ही इल्ज़ाम लगा जाते हैं ,
मौत के दर पहले ही मारने पर उतारू हों जाते हैं ...
चैन जब नहीं मिलता .. कब्र के मुर्दों को आवाज लगा जाते हैं ..
वाह री सियासत की दुनिया ..अब हर रिश्ते ही सिंथेटिक नजर आते हैं ,
अच्छा हुआ कलयुग चल रहा है ...

वक्त को नापो तो जैसे  राम खुद सीता में आग लगा जाते हैं ...
हर वफा के किस्से को ...बेवफाई का का इल्ज़ाम लगा जाते हैं ,
कोई मर भी जाये चाहे बदनीयती का इनाम दिला जाते हैं ,
किया कुबूल ये तोहफा भी तेरा ,कुछ और बचा हों दे जा ...
हम फिर भी तुझे हर इल्ज़ाम से बरी किये जाते हैं .-- विजयलक्ष्मी