लेती है जन्म ...समय की विषबेल पर बैठकर ..
अनुपयुक्त क्यूँ है भला ...
समय देता है हाथ और ....
परिस्थिति अनचाहे ही कलम को आवाज देती है ...
चलती है विषबेल फिर ....
कभी नाराजगी ...
कभी चुप्पी ...कभी झुंझलाहट मौत सी ...
कशमकश कि परिधि मापती है अंधेरों को जब ...
दर्द चीखता है सन्नाटे में ....
आवाजें गर्म तेल सी उड़ेली जाती है ....
और जन्म लेती है कुछ नई जिंदगी ....
बेगैत सी ...
न चाहो ...नहीं सुनती .....
भला क्या रोक सकते ही हों ....
देह की माफिक ....कुंठित विचार माला धरती है देह सी ....
नाग पाश सी लिपटती है चहुँ और ...
जन्म लेती है अनचाही कविता भी .....
व्यथित सी स्वीकारिय हों या न ....
जन्म हों चुका ...
अनचाह रूप अचानक अचकचा कर सामने अता है ....
अधकचरा सा ...माने तो घनीभूत हुआ ....
और सृजन फलीभूत हुआ .अनचाह सा ...
विषरूप में ....विष बीज बनकर ...और..
चढ़ गया फिर छान पर ......
उतरना मुश्किल ...
अनचाह सा गर्भ वही जन्म लेता है ....
कविता बन कर ...दर्द से पीड़ित हों पाता है दुत्कार ...
मगर जन्म हुआ ...
कविता का अनचाह सा ...विजयलक्ष्मी
No comments:
Post a Comment