Monday, 25 June 2012

शब्द कहाँ गिर गए देश के निर्माण के

कहाँ शब्द गिर गए देश के निर्माण के ..
आँसू पीते थे जो अपनी आवाम के ,
तराशने का मतलब कदाचित नहीं सब छोड़ दे ..
जिंदगी से अपनी इसकदर मुह मोड दे ..
चल उठ ,जरा तैयार हों ...बहुत आराम हों चुका 
दर्द सुन कराहटों का बढ़के आंसूओं को रोक तो ..
उस बहन की आवाज सुन जो तुझे पुकारती ..
ख्वाब बुन ,न भूल उनको मगर जिनसे जिंदगी बनी पूजा का थाल है 
क्या हुआ बस इतना ही था प्यार क्या अपने घर से तुझे ...
रोक उस सैलाब को बाँध कोई तो बना..
लिख कोई उन्वान माँ के आंसूओं से झांकता ..
देख दर्द नजरों में वो देह को नहीं जो ढांपता ..
कैसी प्यास जग पड़ी ये ? जो सुनती नहीं किसी तौर अब ,
आफ़ताब को मुखर होना ही चाहिए ...चल खड़ा हों 
तुझे तो मुझसे पहले चलना चाहिए ..
मुझे मंजूर नहीं ,तू राह अपनी छोड़ दे 
जोड़कर चल, न खड़ी कर दिवार...सोच घर कैसे चलेगा 
साथ चल चलेगे दोनों छोर से ..
सर्द रात ,तपिश बढ़ रही है ताप से ...
क्या करूं ? तोडना नहीं था ,जोड़ना है सबको अपने आप से ..
उफ़ ,सुन कहाँ खो गया ..कान में क्या तेल डाल कर के सो गया ?
तू नकारा भी नहीं ,बात है फिर जो ... वो बता ?. -विजयलक्ष्मी

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