Tuesday, 5 June 2012

अपना है भी कि नहीं?




कैसे कहे कि इन्तजार कटता हैं कैसे अपना ..

शब्द होते तो बयाँ करते रिसता है कैसे सपना ..

जाँ खुश्क होती है अहसास भर से जिसके ..
नाचता है मयूर सा दिल ,खिलता है कैसे सपना ..

एक वक्त ए बेरुखी ,बाकी कुछ नहीं है दरमियाँ ..
उनका देखना भर कुमुदनी कमल जैसे खिलना..

चमन में काँटे बेशुमार, है दरकार सबको गुलो की ..
देखे वो क्यूकर,जख्मों से सजता भी कैसे सपना ..

अमीत उनकी बेदिली रंगत दिखाती है हमें देखो ..
अपना है भी कि नहीं?,दिल कहता है जिसे अपना .

                                         --विजयलक्ष्मी

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