हम राख से भी ख़ाक बन चुके है ,
बादलों की जरूरत ही खत्म कर चुके हैं
आग का है पहरा मेरे दर की खुशी पर
हर दरवाजा उसके नाम का बंद कर चुके हैं
जाने करार कैसे समन्दर को आयेगा
नदिया ही अगर अब रस्ता बदल चुके हैं
मुश्किल तो बहुत है तुफाँ का रोकना ,
मगर अब हम भी कुछ फैसला कर चुके हैं
देखते है अब हम ,इस दिल की सदा को
जिसको वफा के नाम कुर्बान कर चुके हैं.
किया था तर्पण नारायणी पे हमने ,
अमावस्या को अपने सब काम कर चुके है
हकीकत है रूह नाचती है कलम में
कुछ भी तो शेष नहीं ,नीलाम हों चुके हैं .-विजयलक्ष्मी
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