Tuesday, 12 June 2012

एक मूरत संवार लूं


उपासिका भवानी की ,कर्म की तलवार बनूं ..
अहसास दे इक साँस का ,वक्त की पुकार बनूं
रात में बन शमा जलती रहूँ मैं उम्र भर के लिए
धैर्य मापकर देखना है,खुद में पैमाना उतार लूं .
रह गुजर गुजरेगी क्यूकर सख्तजान पत्थर हुए,
चोट का हर दाग मुझको, सख्ती  खुद में उतार लूं,
हौसले से बेदिली देखी है कई राहों पर समझ ...
बाकी कोई हुनर बता जिसे खुद में मैं उतार लूं ..
सुन जरा धर कान ..प्रस्तर मन शजर हुआ ..
अब सोचती हूँ कि बस एक मूरत संवार लूं .-विजयलक्ष्मी


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