Monday, 18 June 2012




















ख़ामोशी अब सन्नाटे को चीरने लगी है ...
पंहुच रही है ...मुझमें
लहू के साथ बह कर भीतर पिंजरे तक लहू के ..
चुन लेता है वो तुमको छलनी की मानिंद.....छान छान कर ...तुम्हे उठाता है ,
सरगम तक ले जाता है और गुनगुनाता है अक्सर साथ ...
देह बाकी बची कहाँ ....अब तो रूह अहसास करती है ..वही बाकी है बस ..
जौहर ..कर लिया था ....जब तुमने पिंजर भेजा था मुर्दाघर से ...
हर शहादत में तू अकेला रहा कहाँ .?
हर कदम राजपथ की तरफ ही बढता सा लगता क्यूँ है अपना ...न चाहने पर भी ..
अब नजरें आईने में भी... मुझे नहीं देखती ..
जब से तुने खुद को भेजा है ...औरो के हाथ ,
द्वार पर तुम ही थे ...ये सच है वहम नहीं हों सकता मेरा ...कदापि ..
भर देते हों मांग चमकती सी रक्त से अपने तुम ....
फिर बंद कर दरों को सांकल चढाते हों ...ताले बंद कर ...
चुभते है कांटे हजारों दंश से भीतर कहीं जाकर..सहती हूँ बंद नयनों के भीतर..मैं
तुम नींद से जगते हों जब वो मेरे पास आ कर घेरना चाहती है मुझको ..
सुबह की लाली करती श्रंगार मेरा पर तुम कुछ बोले नहीं ...
ये भी मालूम..... संग रखते हों मुझको ही तुम ..
.....तुम ने कहा था जब हम पहुंच नहीं पाए थे..वक्त पर ..याद है न ..
.हाँ तुम्हे याद होगा ....
तस्वीर टंगी है मेरी जिससे बातें करते हों अक्सर तन्हाई में ,...
वही टंगी है उस कोने में ...जर्जर सी दीवार पर ...बिलकुल ठीक सामने तुम्हारे ..
चल,बहुत बातें हुई ..बाकी बातें कल कर लूंगी
क्या सुनोगे या ...बस खामोश बुनोगे मुझे ..
बतलाना अब तुम ...बहुत थके हुए दिखते हों ....
कुछ ठहरो... आराम करो ..?
फिर जाओगे ..कह कर जाना ...
कब आओगे.... बतला सको गर ...
बहुत इन्तजार रहता है ... मुझको .--विजयलक्ष्मी 

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