Friday, 22 June 2012

जीने के लिए बेटियों का सौदा












   




                  
दुःख है कष्ट हुआ अपार 
सर झुक रहा है पढ़ कर..
वेदना रोती है बीच बाजार है ...
रोटी की खातिर पिता ही कर रहा बेटी का व्यपार ..
आती नहीं है लाज
बेशर्म हुआ समाज ..
अपनी ही देह के हिस्से को बेच रहा निर्लज्ज
ऐसी क्या मजबूरी ..
निकल घर से कर मजदूरी ..
हाथ पीले करने की रुत में धन सहेज रहा है ..
कितनी भी विपदा हों खुद को बेच.....
बेटी क्यूँ बेच रहा है ?
कुछ मजबूरी सच है कुछ को पैसे की ही लत है ...
कुछ सरकारी बाते है कुछ अपनी की ही घातें है
कुछ सफेदपोश शामिल ...कुछ को मारे है लाचारी
कहा गयी सरकार पेंटिंग खरीदने को धन बहुत
जनता रहे लाचार ,कैसे मिटेगा भष्टचार..
नुचती देह ...लाचार ढ़हती देह भूखी आँखों को सहती देह..
क्या हुआ सरकारी समान खो गया ...
या जनता ने पकड़ा गिरबान खो गया ..
उतारो इन्हें अब बाकी क्या देखना है ..
अब इनके हाथो बस खुद को बेचना है ..
और क्या क्या बाकी है अभी ..?विजयलक्ष्मी

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