Thursday, 28 June 2012

शब्दों की अभिव्यंजना ,अतिरंजना और संजना ...
रचनायें जन्म धरती चले कलम बस यूँ ही चले ..
देखती है खोल आँख ,कौन किसकी बोल आन ,
आग ज्वालामुखी लुटाता बदलों की गर्जना ,,
शब्दों की वर्जना चल दिए फिर उसी राह ..
जिस राह देखि वर्जना ,बहुत कपट कलुष भरा है अंतर्मन अभिकल्पना..
वक्त सर चढ़ बोलता ,उसी गली में डोलता ...
देख मानुष अब कहीं रक्त की न हों संकल्पना ..
शब्द शब्द में बस रोष भ्रम मति का नहीं..
तिमिर उजाला रंग दो जिनके बिना कुछ नहीं अभिव्यंजना...
खोल कर तू देख कपटी नयन कपाट शब्दों के ..
घूंघट में बैठी मिलेगी ..छूरी कटार सी तृष्णा ..
प्रस्तर शजर बन सका भला कब जिंदगी के रूप का ..
बलुई मर्म तपता धधक ...आग उगलेगी धरा और जलता फिरेगा आसमां ,--विजयलक्ष्मी

No comments:

Post a Comment