सच कहूँ तो जब कुछ और न नजर आये ...
एक ही राह पे लौट लौट के फिर नजर जाये ..
अक्सर बहलाते हैं खुद को नजरिया तंग है..
कहकर रोकते है ,कैसे जिंदगी बसर पाए ?
--विजयलक्ष्मी
साथ की दरकार में, उसका साथ निभाते निभाते ..
वो दर कभी का छूट गया ,उसके साथ आते आते .विजयलक्ष्मी
परछाई की तरह साथ साथ थे हम उसके ...
जब वो ही वहाँ न था तो दर की दरकार क्यूँ ..-विजयलक्ष्मी
गुमाना क्या है ...जब हम उनके शब्द बन गए ...
न मालूम कब वो हम और हम वही बन गए . -विजयलक्ष्मी
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