Sunday, 3 June 2012

राह ए वफा के दर्द


राह ए वफा के दर्द नगमा ए मुहब्बत सिखा गए ,
नजरों से मिल उन्हें भी वफ़ा ए मुहब्बत सिखा गए .

रूकती नहीं नजर कहीं अब जहाँ पर तुम न हों ,
बस में नहीं खुद के क्यूँ वफा ए कसम दिला गए .

अहसास दिल से तेरे दिल से जाते नहीं हमारे ,
बे वक्त बे मौसम क्यूँ नगमा ए मुहब्बत सुना गए .

क्या ख्याल दूँ तुम्हे मैं अब तुम्हारे ही ख्याल से,
राह ए वफा में इल्जाम ए बुतपरस्ती लगा गए .

जानेगें क्या तुम्हे ,हम खुद को ही भुला बैठे हैं ,
होश आने न पाया मुहब्बत ए काफ़िर बता गए .

गुल तो खिले चमन में मेरे अंजुमन में बहारें नहीं,
दरकार जिंदगी की थी ,हमें सजा ए मौत सुना गए.

शिकवा नहीं किसी से खुद से ही हैरान हूँ मगर ,
क्यूँ जिन्दा हूँ अब तलक खुदारा बुत बना गए .--विजयलक्ष्मी

No comments:

Post a Comment