बड़ा अजब सा आलम है
चौराहे पर खड़ा होकर बोलता है और खुद घर का दरवाजा बंद रख कर के बैठा है ..
क्या हर ऐरे गैरे नत्थूखैरे को झाँकने दूँ ..
क्यूँ न मार दूँ गोली उनको बोल !
ख्वाब देखने की हिमाकत साथ की ..कर न दूँ कलम !
हाँ ,कलम कुछ शातिरी माँग रही है तुमसे ..
कहो तो षड्यंत्र के ताने बने के बिना यहाँ कोई बात नहीं करता ..
या करने भी नहीं देता ..बस हाशिया दिखा देते हैं और खुद ...
कुछ करें न करें सोते है दिखावे की खातिर ..
शातिर हों गया है जनपथ सारा ही और राजपथ पुकारता सा लगा ..
समय का चक्र है कि तुम मुहम्मद हों गोया ..
जब तुम थे तो हम नहीं और फिर खुदा मेहरबानी करता सा दिखा ..
और अँधेरे में सूरज फिर से आसमां पर तेरे इन्तजार रहा ..
आँखों में धुंधलका सा छाने लगा था ..
और वक्त था कि थम गया.... रात में ..ख्वाब तो नींद के हाथ का खिलौना है .
और इन्तजार कब खत्म हुआ है ..
ये संसद भी फांसी पर लटकाती ही उन्ही को है जो परवाह करता है ..
कसाब को देखों न !....क्या जिंदगी मिली ..
दामाद बन गया और हम ....सडको पर उतरकर भी बेकार ही तो है ..
वो भवानी सी हमे उल्लू बनाती रही है और बन गए बनने वाले ..
और मेरा खुदा भी देखता रहा ..लहुलुहान होकर भी दर्द में कराहता है अब ..
कितनी चीखे है सर फटने लगता है सुनकर और दर्द रिसता है नासूर सा ..
कोई बात नहीं आदत हुई जाती है अब तो ..
मरहम करना होगा ..जख्मों पर पट्टी लगनी है अब..
जिसको देखो सुरमई रंग ढूँढता है इन्द्रधनुष में..
चलो एक नया ख्वाब बुन लेते है,..हम तुम मिलकर ..
वक्त से मुहलत छीननी पडेगी कुछ तो ...
और बिदाई भी होनी बाकी है.. बहुत मोटी चमड़ी है यहाँ सबकी
चल क्या फर्क पड़ता है ..
अब तो चल दिए सफर पर ...
जब भूख है तो मजदूरी भी करेंगे ...
खाली बैठना ? .. ..चल हम भी चल रहे है साथ ..
छालों से नहीं डरते अहसास का मरहम है ...फिर क्या सोचना .चल
सन्नाटे में भी सुनाई देगी आवाज अब ...ध्यान न दोगे तब भी....--विजयलक्ष्मी
चौराहे पर खड़ा होकर बोलता है और खुद घर का दरवाजा बंद रख कर के बैठा है ..
क्या हर ऐरे गैरे नत्थूखैरे को झाँकने दूँ ..
क्यूँ न मार दूँ गोली उनको बोल !
ख्वाब देखने की हिमाकत साथ की ..कर न दूँ कलम !
हाँ ,कलम कुछ शातिरी माँग रही है तुमसे ..
कहो तो षड्यंत्र के ताने बने के बिना यहाँ कोई बात नहीं करता ..
या करने भी नहीं देता ..बस हाशिया दिखा देते हैं और खुद ...
कुछ करें न करें सोते है दिखावे की खातिर ..
शातिर हों गया है जनपथ सारा ही और राजपथ पुकारता सा लगा ..
समय का चक्र है कि तुम मुहम्मद हों गोया ..
जब तुम थे तो हम नहीं और फिर खुदा मेहरबानी करता सा दिखा ..
और अँधेरे में सूरज फिर से आसमां पर तेरे इन्तजार रहा ..
आँखों में धुंधलका सा छाने लगा था ..
और वक्त था कि थम गया.... रात में ..ख्वाब तो नींद के हाथ का खिलौना है .
और इन्तजार कब खत्म हुआ है ..
ये संसद भी फांसी पर लटकाती ही उन्ही को है जो परवाह करता है ..
कसाब को देखों न !....क्या जिंदगी मिली ..
दामाद बन गया और हम ....सडको पर उतरकर भी बेकार ही तो है ..
वो भवानी सी हमे उल्लू बनाती रही है और बन गए बनने वाले ..
और मेरा खुदा भी देखता रहा ..लहुलुहान होकर भी दर्द में कराहता है अब ..
कितनी चीखे है सर फटने लगता है सुनकर और दर्द रिसता है नासूर सा ..
कोई बात नहीं आदत हुई जाती है अब तो ..
मरहम करना होगा ..जख्मों पर पट्टी लगनी है अब..
जिसको देखो सुरमई रंग ढूँढता है इन्द्रधनुष में..
चलो एक नया ख्वाब बुन लेते है,..हम तुम मिलकर ..
वक्त से मुहलत छीननी पडेगी कुछ तो ...
और बिदाई भी होनी बाकी है.. बहुत मोटी चमड़ी है यहाँ सबकी
चल क्या फर्क पड़ता है ..
अब तो चल दिए सफर पर ...
जब भूख है तो मजदूरी भी करेंगे ...
खाली बैठना ? .. ..चल हम भी चल रहे है साथ ..
छालों से नहीं डरते अहसास का मरहम है ...फिर क्या सोचना .चल
सन्नाटे में भी सुनाई देगी आवाज अब ...ध्यान न दोगे तब भी....--विजयलक्ष्मी
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