" अक्सर मौन पूछता सवाल
क्या जवाब दूं ,,
समय की आँख में झांककर देखो ..
कैसे हैं ?
.
समय की बिनाई पर चढ़ बैठे सवाल
जैसे गौरैया से पूछ रहा हो वक्त
कहाँ गायब हो ?
.
गुजरते समय की सीमा पर प्रहरी से
सरहद से गुजरते हुए से बादल
उठाते हुए मन में सैकड़ो सवाल
क्यूँ नहीं बरसे ?
.
बहती नदी बढ चली
समन्दर लहरता घहरता सा उमड़ता तो है
लील लेता हैं खुद में खुद को
क्यूँ नहीं भर लेते मिठास ?
.
पगली सी पवन बेसुध ढूंढ रही हो जैसे
बावरी जाने न मौसम ..
कभी तपती धूप के थपेड़ो में
कभी सर्द बर्फ की सहती मार ,,
क्यूँ नहीं थम जाती ?
.
ये सन्नाटा जो पसरा है ...
कोहरे की रजाई ओढ़े
नहीं पिघलेगा चौराहे पर जलते अलाव से
तपते क्यूँ नहीं ?
उजड़े उपवन में खुरपी लिए माली सा
सींच रहे हैं बंजर होती धरा को
कभी जल से कभी अहसासों से
क्यूँ लिए हो खारा पानी ?
जानते हो यही खारा पानी ,,
प्रस्फुटित होकर बहता है नयनों से
जब ...
हरियाता है धरती को मन की ..
मार देता है हरियाई धरती को कर देता है बंजर
जब किसी सौदाई के हाथों से निकलकर मिलता है जड़ से
हो जाता है नमकीन बहकर सुदूर समन्दर तक
समेट लेता है बंजरपन को अपने भीतर
हरियाली ओढ़नी उढाता सा धरती को
अजब से रंग है उस छोर गगन पर
जहाँ चंदा उजरा तो है ,,
आसमान कजरारा सा ..
सितारे जड़े तो हैं ... रास्ता अघारा सा ,,
चांदनी भी रात रानी की महक को देख रही है
बदनामी कितनी ...
कोई रखता नहीं घर में ,,
नागफनी सजा लेते हैं यद्यपि
क्या दोहरा दूं ?
.
वक्त की बिनाई के ताकू पर अटके
लटके कुछ कांटे के गुंछ
सुनहरी आभा लिए रंगीन सजे सजीले से
अक्सर मौन पूछता सवाल
क्या जवाब दूं ,,
समय की आँख में झांककर देखो ..
कैसे हैं ? " ------- विजयलक्ष्मी
क्या जवाब दूं ,,
समय की आँख में झांककर देखो ..
कैसे हैं ?
.
समय की बिनाई पर चढ़ बैठे सवाल
जैसे गौरैया से पूछ रहा हो वक्त
कहाँ गायब हो ?
.
गुजरते समय की सीमा पर प्रहरी से
सरहद से गुजरते हुए से बादल
उठाते हुए मन में सैकड़ो सवाल
क्यूँ नहीं बरसे ?
.
बहती नदी बढ चली
समन्दर लहरता घहरता सा उमड़ता तो है
लील लेता हैं खुद में खुद को
क्यूँ नहीं भर लेते मिठास ?
.
पगली सी पवन बेसुध ढूंढ रही हो जैसे
बावरी जाने न मौसम ..
कभी तपती धूप के थपेड़ो में
कभी सर्द बर्फ की सहती मार ,,
क्यूँ नहीं थम जाती ?
.
ये सन्नाटा जो पसरा है ...
कोहरे की रजाई ओढ़े
नहीं पिघलेगा चौराहे पर जलते अलाव से
तपते क्यूँ नहीं ?
उजड़े उपवन में खुरपी लिए माली सा
सींच रहे हैं बंजर होती धरा को
कभी जल से कभी अहसासों से
क्यूँ लिए हो खारा पानी ?
जानते हो यही खारा पानी ,,
प्रस्फुटित होकर बहता है नयनों से
जब ...
हरियाता है धरती को मन की ..
मार देता है हरियाई धरती को कर देता है बंजर
जब किसी सौदाई के हाथों से निकलकर मिलता है जड़ से
हो जाता है नमकीन बहकर सुदूर समन्दर तक
समेट लेता है बंजरपन को अपने भीतर
हरियाली ओढ़नी उढाता सा धरती को
अजब से रंग है उस छोर गगन पर
जहाँ चंदा उजरा तो है ,,
आसमान कजरारा सा ..
सितारे जड़े तो हैं ... रास्ता अघारा सा ,,
चांदनी भी रात रानी की महक को देख रही है
बदनामी कितनी ...
कोई रखता नहीं घर में ,,
नागफनी सजा लेते हैं यद्यपि
क्या दोहरा दूं ?
.
वक्त की बिनाई के ताकू पर अटके
लटके कुछ कांटे के गुंछ
सुनहरी आभा लिए रंगीन सजे सजीले से
अक्सर मौन पूछता सवाल
क्या जवाब दूं ,,
समय की आँख में झांककर देखो ..
कैसे हैं ? " ------- विजयलक्ष्मी
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 16 दिसम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुंदर कविता।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ।
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