Monday 23 December 2013

क्यूँ नहीं खुद को पत्थर करती है ?

खुद की दुश्मन है औरत ही 
अपने आप को बहुत तीसमार खां समझती है 
जानती नहीं औकात अपनी समाज में फिर भी हनकती है !
कीमत उसकी लगती है देह के हिसाब से जाने क्यूँ ठनकती है ?
विश्वास पर जिन्दा विश्वाश पर ही क्यूँ मरती है ?
क्यूँ नहीं कुचलती मारीचिका को मन की ..क्यूँ आगे बढती है 
क्यूँ रखती कोमल भाव क्यूँ नहीं खुद को पत्थर करती है ?
माँ रहे तो ठीक मगर क्यूँ खुद को मोहताज करती है ?
अपने को मार क्यूँ किसी के अहम को पूरित करती है ?
बहती है नदी सी क्यूँ नहीं पर्वत बनती है ?
ममता का सागर क्यूँ बनती क्यूँ नहीं अम्बर सा संवरती है ?
क्यूँ त्याग की मूरत बन सर्वस्व करती स्वाह ..जाने खुद को क्या समझती है ?
क्यूँ निकलकर घर की देहलीज से कुछ कर गुजरने का सपना बुनती है ?
नारी तेरे नर्म हाथो में ऊन के गोले भाते है..क्यूँ नहीं उन्ही में अपना ख्वाब बुनती है ?
बस तेरा स्पर्श ...एक ही रूप तेरा है नजर में ..
मान मर्यादा सम्भाल तू क्यूँ घर से निकलती है ?
वो तेरे कोई नहीं जो सडकों पर मिलते हैं .
क्या कहूं कौन से सपने नारी तन की खातिर आँखों में पलते हैं !
वो औरत को माँ बहन दोस्त सखा प्रिया या ...बस औरत तन समझते हैं !
दुश्मन हैं न औरत ही ...सच में जनती है पुरुष को
प्रेम का पथ पढाती है औरत को
दहेज की खातिर लालच में जलाती है औरत को
औरत ही जो घर से बेघर बनाती है औरत को
तू दोस्त सखा सबकी बन ..बदले में तुझे मिलती है न रोटी बहुत हैं
माता पिता ने देहलीज से विदा किया ...क्यूंकि तू उनपर भारी बहुत है
रख लेते घर में तुझको ...कैसे दुनिया कहती ...मर गये बेचारे लडकी अभी कुँवारी है
वाह री दुनिया, विदा करती कैसे बताओ बेटी औरत बनकर महतारी है .---- विजयलक्ष्मी

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