Friday, 20 December 2013

जब लहू गिरता है दिल की आग पर ...

जब लहू गिरता है दिल की आग पर ,,
उठती है चिंगारी सी भडक कर राख पर 
चिनार के वृक्ष से लिपटकर चलती हुयी आँधियों सा गुजरना तेरा 
सहमकर रात इंतजार करती है सहर का 
वक्त कब रुकता है मगर खिसकता भी नहीं जैसे रातभर 
कल पूस की ये रात खेत पर कटी ..खुले गगन में 
जंगली जानवर भी भूखे से घूमते है ..
जंगल सुना है इंसान खा गया ,
बचे हुए हिस्से में दावानल लगा गया ..
जिम्मेदार सरकारी खातों में गाँव के लोगो को ठहरा गया ..
मोटर लगाई थी सूद के पैसो पर ..उसे महाजन उठाकर ले गया
खेत सूखे पड़े है सर्द मौसम हुआ ..
ओस कवियों को सुहाती होगी ...लेकिन वही पाला फसल पूरी मार गया
पानी मिलता रहे हजारे से ही कभी ...गमले के पौधे सूखते नहीं ..
मनीप्लांट जैसे पौधे दीवार पर भी सूखते नहीं
एक फूल लगा लिया है तुलसी के पौधे के पास ही ..
उसे सूरज के बिना खिलना नहीं आता ,
सुना है लोगो ने उसकी कलम लगा डाली ..
जड़ बची रही थोड़ी बाकी पूरी नोच डाली .- विजयलक्ष्मी

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