सियासत की चाल जब रियासत में बंटती है ,
कोई राह जब दिल ए रहगुजर से गुजरती है ,
खुशबू सहरा की जब कायनात से गुजरती है ,
रेतीली आंधियां रहगुजर की समन्दर बनती है ,
हस्ती भी खुदी में समाकर जब नजर डूबती है ,
खलिश छूकर तपिश जब बर्फ सी पिघलती है ,
सामां ए वफा बिखरकर राह से जब गुजरती है ,
वो जिंदगी जब जज्ब होकर खुद में संवरती है ,
शब्दों की चुभन भीतर ,अहसास में उतरती है ,
चमक जुगनू की भी जब सूरज सी निखरती है ,
परवाना जले न जले चाहे मगर शमा जलती है ,
भीतर ख्यालों के हूक सी कोई दिल में पलती है ,
इज्जत के पर्दे से कोई जब आरजू सी उतरती है,
तवायफ भी जब उस रंग से खरी हों निखरती है ,
दर पे दर्द के पहरे और आवाज सर्द बिखरती है ...
कहते सुना हमने भी, तब एक गजल संवरती है .-- विजयलक्ष्मी
कोई राह जब दिल ए रहगुजर से गुजरती है ,
खुशबू सहरा की जब कायनात से गुजरती है ,
रेतीली आंधियां रहगुजर की समन्दर बनती है ,
हस्ती भी खुदी में समाकर जब नजर डूबती है ,
खलिश छूकर तपिश जब बर्फ सी पिघलती है ,
सामां ए वफा बिखरकर राह से जब गुजरती है ,
वो जिंदगी जब जज्ब होकर खुद में संवरती है ,
शब्दों की चुभन भीतर ,अहसास में उतरती है ,
चमक जुगनू की भी जब सूरज सी निखरती है ,
परवाना जले न जले चाहे मगर शमा जलती है ,
भीतर ख्यालों के हूक सी कोई दिल में पलती है ,
इज्जत के पर्दे से कोई जब आरजू सी उतरती है,
तवायफ भी जब उस रंग से खरी हों निखरती है ,
दर पे दर्द के पहरे और आवाज सर्द बिखरती है ...
कहते सुना हमने भी, तब एक गजल संवरती है .-- विजयलक्ष्मी
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